हे! बीरा फूफू, हे! बीरा फूफू, हे! बैरी (बहरी,) हे! सुनती है कि नहीं, मैं अपनी छज्जा के किनारे तब तक धै (आवाज) लगाती रही, जब तक ऊपर वाले खोले से ऊऊऊ नहीं सुनाई दिया. झट यहाँ आ बहुत जरूरी काम है तुझसे. मैंने फिर धै लगाई. जब तक बीरा फूफू नहीं आई मैं बैचेनी से चौक में घूमती रही.
क्या है रे, क्यों मरी जा रही है. बीरा ने आते ही मेरी पीठ में एक मुक्की मारी. मैंने तपाक से उसका हाथ पकड़ा और बोली, तूने सुना कि नहीं कल फूल संग्रांद है. शाम को फूल लेने नी जाना हमने. जब शाम बगत फूल लाके रखेंगे तब कल सबकी देहली में फूल डालेंगे न. जा अपनी कंडी ले कर आ हो, सब दगड्यों को भी बता देना हाँ. आज हम तल्ली सारी (नीचे के खेत) से लाएंगे फ़ूल. जा सरासर.
बीरा और मैं बराबर उमर के है. वो पिताजी के बोडा जी की बेटी है पिताजी की बहन मेरी फूफू ही हुई न. पर मैं हमेशा उसका नाम लेती हूँ. बीरा ने सारे रास्ते हल्ला मचा दिया आओ रै छोरियों चलो सारी (खेत) से फूल ले आएं. जिसको आना है आओ हो. हम तो जा रहे हैं.
बीरा के जाते ही मैंने दादी का पल्ला खींचा अब तू चल बैठी क्या है, मेरी ढक्कन वाली रिंगाल की ठोपरी निकाल सरासर. दादी ने पहले ही टोकरी निकाल के रखी थी. बिना आनाकानी के टोकरी मेरे हवाले कर बोली, लै मर जा यहाँ से. भला भला फूल लाना बाबा हैं.
मैं अपनी टोकरी पकड़ के लै फ़ो पत्ती रिंगा पत्ती रीटने (घूमने) लगी. दादा जी ने रोका, हैं हैं आराम से बाबा जादा उतावलापन नहीं करते. गिर जायेगी. हम सब दगड्या (सहेली) उछलती कूदती चला भै चला फूल टीपने चला, अपने सुर में गाती फूल टीपने चल दी. बसन्त के इस मौसम में नाना प्रकार के फूलो से खेतों की मेढें भरी रहती है.
फागुन का महीना खत्म होते और चैत के महीने के पहले दिन को गाँव भर की लड़कियां फूल बीन के मुँह अँधेरे सबकी देहरियों को फूलों से भर देती. इसको दादी फूल संग्रांद बोलती. गाँव के हर घर में औजी ढोल दमो बजाते हरे जौ के बोट(पौधे) बाँट कर आशीष देते. हर घर में रोट बनता और सबको रोट का प्रसाद बंटता.
इस पूरे महीने हम लड़कियां अपनी टोकरियों में हमेशा रात को ही फूलों से भर कर बाहर ओस में टांक देती. ओस में रखे फूल सुबह तक एकदम ताजा रहते. यही फूल हम सुबह सबकी देहरियों में डालती. जब महीना खत्म होता सब घरों से हमें स्वाली (पूरी) भूड़ी (उड़द की पकोड़ी) गुड़ और दक्षिणा मिलती.
उस दिन रात को सोते समय दादी बोली आज मैं तुमसे फूल संग्रांद की कहानी लगाऊंगी. अरे आज तो बिना मांगे मोती मिल गए. हमने जोर से ताली पीटी हे हे हे हो हो.
त सूणा ह्वा ध्यान से अर हुंगरे (हूँ हूँ) भी दो. हमने जोरदार हुंकार भरी हुँन्नन्नन्नन्न.
द बाबा याद है न वो कथा जिसमे पार्वती ने शिवजी को ये दिखाने कि मैत में उसने कंडाली की सब्जी नहीं खीर खाई थी सफ़ेद उल्टी की थी. उस दिन पार्वती तो बरफ़ ही बरफ़ उल्टी करके चैन से अपने बाल बच्चों के साथ कैलास में बैठ गयी. अर सारी पृथी में मच गया हाहाकार. सूरज भगबान रोज ठण्ड से थुर-थुर काँपता आता और छिप जाता.
आदमी नमान, पौन, पंछी, कीड़े-मकौडे सब जाड़े से या तो मर गए या नीचे धरती में छिप गए. सारे पेड़ों के पत्ते झड़ गए. गोर बाछरु जाड़े से अपने रोये फुला कर ठन्ड भगाते. जानबरों के लिए घास का अकाल पड़ गया. शिकार खाने वाले जानबर भूखे मरने लगे.
अर पार्वती तो अपने बाल बच्चों के साथ टप भीतर बैठ के बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. शिवजी ने एक दो बार बातों बातों में मुल-मुल हँसते हुए पार्वती को सुनाया, देख भई तूने तो जितनी खीर अपने मैत में खाई वो सब उल्टी कर दी पर अब तीन महीने हो गए वो ठण्ड से जम गयी. लोग, पशु, पक्षी जाड़े से परेशान हो गए.
पेड़-पौधौ के पत्ते झड़ गए. पेड़ बिना पत्तों के सूखने लगे. सारी पृथ्वी में हाहाकार मचा हुआ है. नंदी, गणेश का मूसा, कार्तिकेय का मोर सब ठण्ड से सिकुड़ गए. पार्वती शिवजी की बात की अनसुनी करके नंदी, मूसा और मोर से बोली आओ रै तुम भी तो हमारे बच्चे हो. यहीं हमारे साथ अंदर आ जाओ.
अर अपने घर के काम काज में लग गयी. शिवजी बिचारे क्या करते पार्वती के सामने उनकी एक नहीं चलती फिर यहाँ पर तो उनकी गलती ही थी. न पार्वती को मैत के खाने का ताना मारते न ये दिन देखना पड़ता.
चुपचाप उठे अर अपनी परजा का हाल चाल पूछने निकल पड़े. अभी आधे रास्ते में ही पंहुचे थे की, क्या देखते हैं सारा मृत्यु लोक कैलाश के रास्ते में ऊपर को चढ़ रहा है. शिवजी को आता देख लै रोआ रो पड़ गयी. शिवजी जानते तो थे ही फिर भी पूछा भाई क्या बात है. रोना बंद करो और अपना दुख बताओ.
लोग बोले प्रभु आप तो जानते ही है. बरफ ने पूरी चराचर ढक लिया. न भोजन है, न घास-पात. सूरज भगवन भी डर डर के आता है. पेड़ पौधे नंगे हो गए. पशु-पक्षी मर रहे हैं. दया करो भगवन.
थोड़ी देर सोचने के बाद शिवजी बोला देखो भई इस समस्या का उपाय तो पार्वती के पास ही है. चलो हम सब मिल कर पार्वती को मनाते हैं. शरमाते हुए शंकर ने ये भी बता दिया की एक दो बार वो खुद पार्वती से बात कर चुके हैं पर क्या करे, तुम मानुष जानते ही हो जनाना हठ.
क्या बोलू अब तुम्ही चल कर अपनी बात पार्वती से बोलोगे तभी मानेगी वो. चले सब कैलाश पर्वत की तरफ.हल्ला सुनके पार्वती घर से बाहर निकल आई.
रोते कलपते लोगों के साथ शिवजी को देख के पार्वती सब समझ गयी. ठण्ड से कांपते लोग पार्वती के पैरों के सामने लमलेट हो गए. माता हमारे दुःख को तू नहीं देखेगी तो हम किसके पास जाएँ.
दया कर माँ, दया कर.
पार्वती पृथ्वी लोक को देख कर पहले ही बहुत दुखी थी. पर करती क्या? बात मायके के सम्मान पर आ गयी थी. बोली मैं एक शर्त पर सूरज से बात करूंगी जब शिवजी के साथ सारे मर्द नमान आज से तय करें कि अपनी घरवाली के मैत का असम्मान नहीं करेंगे. अपनी पत्नी के मायके को छोटा नहीं समझेंगे.
द बाबा उस समय किसका घमण्ड सब मर्दों ने माता के सामने कान पकड़े, माता आज से अपनी घरवली के मायके का हमेशा सम्मान करेंगे. शिवजी ने भी पार्वती के सामने शर्म से आँखे नीची कर ली. पार्वती चुपके से शिवजी की शर्मिंदगी समझ गयी.
पार्वती ने उसी समय सूरज भगवान से कहा आज से तुम अपना तेज बढ़ा दो. तुम्हारी गर्मी से बरफ़ पानी बन कर नदी गदेरों में बहने लगेगी. जब जमीन खाली होगी तो घास-पात उग आएगी. बसंत अपने घर से बाहर निकलेगा. पेड़ों पर पत्ते निकलेंगे, फूल आएंगे.
खेतों में बसन्त छोटे-छोटे पौधों में फूल खिलायेगा. बस बाबा पार्वती के कहने की देर थी. चम्म से घाम लग गया. गाड़ गदेरे सफ़ेद पानी से भर कर स्युंस्याट मचाने लगे. दो चार दिनों में ही चारों तरफ हरियाली फ़ैल गयी.
लोगों ने अपने खेतों में फसलें बो दी. काली पेड़ों की टहनियां छोटे-छोटे कोमल पत्तों से भर गयी. सूरज की गर्मी मिलते ही सारी पृथ्वी में हलचल मच गयी. सारी जमीन में पौधों के साथ फूल खिल गए. पार्वती ने फूलों से अपने घर के दरवाजे सजा दिए. कहते है जिस दिन पार्वती ने अपनी देहरी को फूलों से सजाया उस दिन चैत के महीने की संग्रांद थी.
पार्वती की खुशी में सारे लोग शामिल हो गए. कहते है उसी दिन से हमारे पहाड़ में फुल्यारी की संग्रांद मनाई जाती है. उन दिनों गांव के सारे औरत मर्द तो खेती पाती के कामों में लगे रहते हैं. पर छोटे बच्चों ने पूरे एक महीने जब तक फूल मुरझाये नहीं सबकी देहरी में फूल डाले. तब से इन बच्चों को लोग फुल्यारी कहने लगे. सुबह होते ही लोग अपनी देहरियों को फूलो से भरी देखते और खुशी मनाते. बस तभी से फूल संग्रांद मनाई जाती है. जब एक महीने बाद बैशाख की संग्रांद आती है तब सारे गांव के लोग फुल्यारी लड़कियों को दक्षिणा देते है. स्वाली पकौड़ी बना कर आपस में बांटते हैं.
ठण्ड ख़तम होने लगती है. मौसम बदल जाता है. गेहूं, जौ, मसूर के पौधों से खेती हरी-भरी हो जाती है. लोग नई फसल पकने का इंतजार करने लगते है.
हाँ वो तो ठीक है दादी, पर तू एक बात बता मर्द लोगों ने पार्वती माता की बात मानी कि नहीं. रीता ने दादी से पूछा.
दादी ने पट्ट से अपने कपाल में हाथ से मारा और बोली, द! निराश होगा इन मर्दों का. कहाँ बाबा उस समय पार्वती माता के सामने कान पकड़ लिये पर आज तक कोई नी मानता.जब मौका मिलता है तब अपनी घरवाली के मैत की बेजती करने में कब चूके है ये मर्द.
चलो सब सो जाओ अब. कल सुबह फूल डालने जाना है कि नहीं. और हम सारी दुनिया में फूल ही फूल बिछे होने के सपने लिए सो गए.
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-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. काफल ट्री की नियमित लेखिका.
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