साहित्यकार अमित श्रीवास्तव का बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘गहन है यह अंधकारा’ आखिर छपकर आ ही गया.
आजादी के बाद से पुलिस-सुधार की बातें जोर-शोर से चलती रहीं. पुलिस- कमीशन की कई रिपोर्ट्स आईं, जिनमें पुलिस की परेशानियों की झलक मिलती है. कमोबेश सभी रिपोर्ट्स में पुलिसकर्मियों को मानवोचित दशाएँ देने की सिफारिशें पुश्तदर्ज हैं.
डॉ. केएन काटजू लिखित ‘कुछ स्मरणीय मुकदमें’ जस्टिस खोसला कृत ‘महात्मा गांधी की हत्या तथा बाकी मुकदमें’ उत्तर प्रदेश के आईजी (रिटायर्ड) लाहिड़ी महाशय की लिखी ‘एक पुलिसमैन की डायरी’ और अशोक कुमार (पुलिस महानिदेशक, कानून-व्यवस्था) कृत ‘खाकी में इंसान’ जैसी रचनाओं की एक छोटी सी फेहरिस्त है, जिसमें पुलिस-जीवन की वास्तविक झाँकी मिलती है अन्यथा क्राइम-थ्रिलर-सस्पेंस की बेस्टसेलर सीरीज में पुलिस को अमूमन ‘शोले’ के जय-वीरु वाले नजरिए से दिखाया जाता है-
मुझे तो सब पुलिसवालों की सूरतें एक-जैसी ही लगती है.
अमित, मूलतः पुलिस सेवा के अधिकारी हैं. पुलिस, विशेष तौर पर ग्रास रूट लेवल पर काम करने वालों के मर्म को उन्होंने एक अपराध-अनुसंधान -कथा के बहाने विस्तार से लिखा है. लेखक की संजीदगी इस बात में दिखती है कि, यह उपन्यास लेखक ने उन्हीं को समर्पित किया है- नींव की ईट को समर्पण, महकमें का ढ़ाँचा तो उन्हीं पर टिका हुआ है.
उपन्यास की केंद्रीय कथा, थाना क्षेत्र में एक ब्लाइंड मर्डर से शुरू होती है. यहाँ से कथा आगे बढ़ती है. पुलिस किन-किन तनावों से होकर गुजरती है, एक तो संज्ञेय अपराध, ऊपर से ब्लाइंड मर्डर. भारसाधक अधिकारी को ऊपर इंफॉर्मेशन देने में ही पसीना छूटने लगता है, क्योंकि अपराध की सूचना ऊपर के अधिकारियों को देना, खुद अपराध कर देने के बराबर गिना जाता है.
आला-अफसर इतने सवाल पूछते हैं कि जान पर बन आती है. इतनी जिरह करते हैं, जितनी डिफेंस-लॉयर और सरकारी वकील भी क्या ही करते होंगे. अफसरान इतने अमनपसंद होते हैं कि डीटेल तफ्तीश से पहले ही नतीजा जान लेना चाहते हैं.
अफसरी-संस्कृति पर यह टिप्पणी दृष्टव्य है-
उच्चाधिकारी बाई डिफॉल्ट विद्वान होता है. वह पदेन विद्वता धारण करता है- बाई वर्च्यू ऑफ दी पोस्ट…
लेखक उसी महकमें से है, इसलिए प्रोसीजरल लैप्स जैसी चूक से वे साफ-साफ बचने में कामयाब हो जाते हैं. उन्होंने घटनाओं का सूक्ष्म अन्वीक्षण किया है.
नौजवान अफसर जब नया-नया सिस्टम में आता है, तो उसे एडजस्ट करने में भारी जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है. जब वह देखता है कि जमीर बेचकर स्यूडो इंटीग्रिटी खरीदी जा सकती है, तो उसका स्वाभिमान जाग उठता है. वह झुंझलाकर कहता है – इंटीग्रिटी माय फुट.
उपन्यास में अफसरी- मातहती संबंधों को डाल- डाल, पात-पात वाले दिलचस्प अंदाज में बयां किया गया है. लीड पर काम कैसे शुरू होता है, विवेचना पर पड़ने वाले वाह्य प्रभावों का क्या नतीजा निकलता है. सिस्टम में काम करते-करते पुलिसमैन इतने रूढ़ हो जाते हैं कि पुलिसिया अंदाज पर यह टिप्पणी देखने लायक है –
पुलिसवाले तब तक लाश को लाश की तरह ट्रीट नहीं करते, जब तक कि डॉक्टर यह लिखकर न दे कि बंदा मर चुका है.
कथावस्तु से अनुसंधान के पुराने तौर-तरीकों, डॉग स्क्वायड का टोटा, एफएसएल- फील्ड यूनिट-एसओजी में आपसी खींचतान से रिपोर्ट के डिले होने जैसी प्रक्रियागत खामियों और संसाधनों की कमी पर भी प्रकाश पड़ता है. इनके चलते प्रोसीजर में ऐसी व्यावहारिक अड़चनें आती हैं कि सामान्य इंसान का काम करना दूभर हो जाए.
तो दूसरी तरफ, इसी व्यवस्था में थानों के लिए चल रही प्रतिस्पर्धा का दृश्य सामने आता है. कृपापात्र कैसे मौद्रिक मुनाफा उठाते हैं. कथानक से यह जानकारी मिलती है, कि साधनों की कमी के चलते मशरूम कट करप्शन पनपता है. व्यवस्थागत खामियाँ परत-दर-परत खुलती जाती हैं.
आवासीय परिसरों की दुरवस्था पर महीन तंज कसा है-
विद्यमान आवासीय व्यवस्था पर, वे “आ-वास करके दिखा” की चुनौती कहकर चुटकी लेते हैं. इस पर पुलिस की विनम्रता तो देखिए, ऐसी जीर्ण-शीर्ण सरकारी इमारत को ‘सुविधा’ समझकर ‘उन घरों जैसी चीज’ में रह लेते हैं.
रचना में कथा के बहाने, पुलिस-सुधार के अनेक सूत्र सामने आते हैं-
अभियुक्त की खुराकी-दर इतनी पुरानी हैं कि प्रसाद भर खिलाकर, चरणामृत पिलाकर, हवालात में मंदिर जैसी फीलिंग देती है.
चिराईनाश (अंतिम संस्कार-राशि) दशकों से रिवाइज नहीं हुई है. वह इतनी नॉमिनल मिलती है कि,
पुलिस अगर उस पर निर्भर रहती, तो लाश को रुमाल में लपेटकर ले जाती.
इन परिस्थितियों में भी समाज को पुलिस से काफी ऊँची अपेक्षाएँ रहती हैं.
ऐसे सिस्टम में, कर्मचारी एफिशिएंट भी हों और ईमानदार भी, वह ‘यूटोपियन ख्वाब’ है, जो नौकरी के शुरुआती सालों में देखा जाता है.
चौथी जेनरेशन के युग में, जब पूछताछ के ब्रिटिशकालीन तौर-तरीके इस्तेमाल में लाए जाते हों, तो अनुभवी अफसर का यह कहना तो बनता ही है,
इंटेरोगेशन शुद्ध देसी कला है. आस-पास के मजदूरों को उठाया जाता है या उन्हें जिन्हें हिस्ट्रीशीट में दर्ज होने का गौरव प्राप्त होता है.
मुख्य कथा के समांतर, कई अवांतर कथाएं चलती हैं, जिनमें होमगार्ड मिश्रा की कथा है. सुल्ताना डाकू की मजार- श्रद्धा की कथा, दिनकर शाह की कथा, आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के किस्से, भूतपूर्व दरोगा, वर्तमान ज्योतिषाचार्य की कथा, जैसी छोटी-छोटी रोचक कथाएँ हैं.
तो भ्रष्टाचार के पुरातन तौर-तरीकों- नजराना, शुकराना, जबराना पर भी विमर्श किया गया है, जो उस दौर के रिश्वत लेने के इंप्रोवाइज्ड तरीके होते थे.
इसी तरह पुलिस के सादा सैल्यूट, सीनियर सैल्यूट, आदाब सैल्यूट आदि पर, शिष्टाचार-सैल्यूट के आमतौर पर जितने भी मैनर्स होते हैं, उनका सांगोपांग वर्णन किया गया है. साथ ही उनके पीछे चल रही भावना को भी खूबसूरती से पेश किया गया है.
कुल मिलाकर कथा स्पष्ट और अर्थपूर्ण है, जिसमें सरोकार पर गंभीरतापूर्वक विमर्श किया गया है.
अमित मूल रूप से कवि हैं. उनके गद्य में पोयटिक टेस्ट देखने को मिलता है, जो गद्य के आस्वाद को बढ़ा देता है. इससे पूर्व उनकी पहली रचना ‘पहला दखल’ में शानदार गद्य सामने आया था. फिर “बाहर मैं, मैं अंदर’ काव्य संग्रह.
प्रस्तुत रचना कसावपूर्ण है. भाषा में व्यंग की मारक-क्षमता दिखती है. पश्चिमी साहित्य में व्यंग्य को ‘लिटरेचर ऑफ पावर’ कहा गया है. संपूर्ण रचना को एक तटस्थ नजरिए से देखा जाए, तो रचना में कहीं-ना-कहीं उनका अनुभव-प्रतिबिंब झलकता है.
लेखक को इन भावों के साथ रचना-प्रकाशन की शुभकामनाएँ. कविता सम्मान देती है. व्यंग-रचना यश देती है. फिलहाल आपके दोनों में चांस बनते हैं.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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