वैशाख बीतते रवि की फसल कट जाती. अनाज की सफाई सुखाई के बाद नया अनाज स्थानीय लोक देवताओं के थानों में भेंट कर दिया जाता. रोट भेट भी चढ़ती. गेहूं के बाद भुट्टों-जुनलों के लिए खेत तैयार करने की फटाफट तैयारी भी होती. जेठ का कोई भरोसा नहीं. कई बार असमय बरस भी पड़ता है. वैसे तो पहाड़ में सब कुछ इन्द्र देव की ही कृपा पर हुआ इसीलिए जब सुखा-फटक-बीन घट चक्की में पीस पिस्यू तैयार हुआ तो नई फसल की रोटी खाने का दिन भी त्यार ही हो जाने वाला हुआ.
(Festival and Fasting Days Uttarakhand)
वैशाख के जाने और जेठ के शुरू होने पर गढ़वाल में विशेष कर टिहरी उत्तरकाशी इलाके में पहले घोल्डया संक्रान्त भी मनायी जाने वाली हुई. जब नया गेहूं भकार में भर जाता तो घट में पिसे नये गेहूं के पिसुए को गूँथ कर उसकी लोई बनती और लोई को हिरन का आकार दिया जाता. अब आटे के हिरन को तेल में पकाया जाता और खाया जाता. पहाड़ में हिरन से मिलते जुलते घुरड़-कांकड़ खूब दिखने वाले ही हुऐ. स्वभाव से शर्मीले और चाल में सरपट. पर अब ये घोल्डिया संक्रान्त कहीं मनाई जाती दिखती नहीं. बस कई बड़े बूढ़ों ने इसके मनाये जाने की हामी भरी पर कोई यह नहीं समझा पाया कि हिरन के आकार को तल कर खाने का प्रचलन आखिर क्यों हुआ होगा?
ऐसे ही पिथौरागढ़ जनपद की पट्टी तल्ला और मल्ला जोहार में ‘लूणी जमींसें’ के नाम का विशेष त्यार मनाये जाने की रीत रही. जेठ मास घर में थापे लोक देवता को बलिदान देने के लिए भी भला माना जाता रहा. बकरे या बकरी की बलि भी चढ़ती.
जेठ में ही रवाईं जौनपुर में मोण नामक त्यार मनता. इसमें मछली मारी जाती जिसके लिए टेमरू के बग्घल या छिक्कल खूब कूट कर गाड़ गधेरों या नदी में डाले जाते व मच्छी मारी जाती. रंवाई में विशेषकर कमाल नदी, बरनी गाड़ और सारी गाड़ में ग्रामवासी जत्था बना कर जाते और मछली मारते.
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जेठ मास की अमावस के दिन का विवाहित महिलाओं को खूब इंतज़ार रहता. इसी दिन पड़ती है ‘बट-सावित्री’. सुहाग की कामना में अपने पति की दीर्घायु की कामना से इस दिन व्रत रखा जाता. घर में दिया बाती कर प्रसाद चढ़ा आरती कर पीपल, आम, कदली या बट के पेड़ की पूजा अर्चना की जाती. पेड़ पर रक्षा धागा तीन बार लपेटा जाता और अक्षत पिठ्या चन्दन लगा फूल चढ़ा घी की ज्योति जगती. आरती संपन्न की जाती.
पंडित जी संकल्प ले पूजन करते मंत्रोचार होता और सावित्री सत्यवान की कथा सुनाते. जल्दी ब्या हो जाने को आतुर लड़कियां भी भला गबरू मिल जाने की कामना से बट सावित्री का बर्त रखती. सो उसकी कथा भी जाननी हुई.
मद्र देश यानि दक्षिणी कश्मीर में एक धर्मात्मा, न्यायकारी और दयालु राजा रहते थे. उनका नाम था अश्वपति. एक ही कमी रह गई थी कि अधेड़ावस्था तक संतान न हो पायी. अनेक उपाय किए गए. फिर एक ज्योतिषी ने कुंडली बाँची, ग्रहों का उलटफेर समझा और राजा जी को बताया कि संतान योग तो प्रबल है बस देवी सावित्री की पूजा आराधना करनी होगी. राजा ने घरबार राजपाट से मन हटा जंगल में जा पूरे अट्ठारह बरस तपस्या कर दी. देवी प्रसन्न हो गईं. राजा को मनोवांछित वरदान मिला. उनकी बेटी हुई. बेटी का नाम उन्होंने सावित्री रखा.
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अपूर्व सुंदरी थी सावित्री. साथ ही रूपवान गुणवती भी. अब राजा अश्वपति को उसके विवाह की भी चिंता हो गई. कितनी खोजबीन कर दी पर बेटी के गुण अनुरूप साम्य होता ही न था. एक बार तीर्थ यात्रा का योग बना तो राजा ने उसे घूमने फिरने प्रकृति का रसास्वादन करने की बात कही और ये भी कह दिया कि अगर कोई सुयोग्य पात्र मिले तो वर चुनने की आजादी है.
अब अपने लाव लश्कर के साथ सावित्री रथ पर सवार यात्रा को निकल पड़ी. घने पेड़ों के पथ में हरियाली से फूलों से भरे एक स्थान में उसकी दृष्टि एक युवक पर पड़ी जो घोड़े के बच्चे के साथ खेल रहा था. अच्छी कद काठी चेहरे पे तेज. लहराती केश राशि की बँधी जटा, वस्त्रों के नाम पर लपेटी हुई छाल. कौतूहल से भरी राजकुमारी ने रथ रुकवाया. युवक भी सामने आया. परिचय हुआ. पता चला यह सत्यवान है. अपने अंधे वृद्ध माता पिता के साथ रहता है, जो तपस्या में लीन हैं. इसी सुरम्य प्रदेश में आश्रम बना है. वहीं सब काम करता है . माँ बाप की सेवा करता है. राजकुमारी सम्मोहित हो गई. प्रेम में डूब गई.
राजप्रसाद में लौट राजकुमारी ने लज्जावनत हो शालीनता से राजा अश्वपति को अपने मन कि बात बता दी. राजा बहुत प्रसन्न हुए. जब उन्होंने सत्यवान के बारे में और अधिक जानकारी पता की तो पंडितों ने बताया कि सत्यवान की तो आयु अल्प है. ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष तक ही वह जी पायेगा. उन्होंने सावित्री को बहुत समझाया पर वह अपने निर्णय पर अडिग रही. विनम्रता से उसने अपने वर चुनने की स्वतंत्रता से हटने से इंकार कर दिया जो स्वयं पिता ने ही दिया था.
आखिरकार अपनी पुत्री के निर्णय को स्वीकार कर राजा अश्वपति सत्यवान के पिता द्युमत्सेन की वनकुटी में गए. द्युमत्सेन ने उन्हें अपनी वर्तमान दशा बताई. कहा पहले वह भी राजा थे पर अब सब कुछ त्याग तपस्या कर रहे है. ऐसे में राजकुमारी कैसे निर्वाह करेंगी. अब पिता ने अपनी पुत्री के अमिट प्रेम और अडिग निर्णय के बारे में बताया. अंततः वहीं वन में सावित्री ने सत्यवान का वरण किया. सादगी से वनकुटी में वैवाहिक जीवन की शुरुवात हुई. सास ससुर और पति की सेवा में रम गई. रोज प्रार्थना करती कि पति को आयुष मिले तो दूसरी तरफ ज्योतिषियों के वचन कि साल भर से ज्यादा बचने का योग नहीं. आखिर साल बीतने के मात्र तीन दिन रह गए. अब सावित्री ने अन्न भी त्याग दिया. बस हर समय ईश्वर से प्रार्थना कि सत्यवान जीवित रहे. उसका सुहाग बना रहे.
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तीसरा अंतिम दिन भी आ गया. सत्यवान जंगल लकड़ी काटने निकला तो सावित्री भी साथ चली. सत्यवान ने कितना कहा कि उपवास पर हो शरीर कमजोर हो गया न चलो. पर वह कहाँ मानती. हर हाल में पति के साथ रहना है बस. उसकी तो बस यही कामना थी. सत्यवान पेड़ पर चढ़ा, खूब लकड़ी काटी. पेड़ से उतरा तो बोला कि चक्कर से आ रहे हैं. वहीं अचेत हो गया. प्राण पखेरू उड़ गए.
यमराज आ गए. सावित्री ने प्राणप्रण से देवताओं को पुकार लगा दी. धर्मराज को अपने करुण क्रंदन से पिघला डाला. सावित्री की भक्ति पूजा और समर्पण से वह अभिभूत थे. उसे विधि का विधान समझाया. अपने कर्त्तव्य का पालन कर सत्यवान के प्राण हरण कर ले जाने लगे तो पीछे-पीछे सावित्री भी चलने लगी. यमराज ने समझाया कि सशरीर उनके साथ कोई नहीं चल सकता. चाहे तो कोई वरदान मांग ले. सावित्री ने अपने पिता के पुत्रवान होने का वरदान माँगा. पर पीछे चलती रही. यमराज ने फिर समझाया और एक वरदान देने कि बात कही. सावित्री ने तुरंत कहा कि वह पुत्रवती होना चाहती है. यमराज ने हामी भर दी. और आगे बढ़ गए. सावित्री भी पीछे चलती रही. अब तो यमराज भी क्रोधित हो गए. बोले इतने वरदान दे कर भी कहना नहीं मानती तो अब श्राप दूंगा. सावित्री बोली कि हे धर्मराज मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद तो दे गए पर मेरे पति को अपने साथ ही ले जा रहे?
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अब यमराज को ध्यान आया. वचन दे चुके थे. सत्यवान के प्राण छोड़े. सावित्री के धैर्य, भक्ति और दृढ़ता की प्रशंसा की. सावित्री ने इन्हीं के द्वारा अपने पति की प्राण रक्षा जो की थी. इसी कथा के विश्वास में बट सावित्री व्रत की परिपाटी बनी हुई है. बट सावित्री की अमावस को विधि विधान से व्रत रख गले में बारह पथों से बना विशेष सूत्र भी व्रत रखने वाली महिलाएं पहनतीं हैं..
जेठ शुक्ल की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है. शिव जी को जल चढ़ता है. शिवार्चन होता है. शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाने का विशेष महात्म्य बनता है गंगा नदी के तट पर गंगापूजा और आरती का विशेष आयोजन होता है. घर के मुख्य द्वार पर द्वारपत्र या दशार लगाते हैं. यह बज्र निरीषक मंत्र युक्त तथा सूर्य, गणेश, शिव व अन्य देवी देवताओं के चित्र से सजा हुआ पत्र होता है. इसमें ‘अगस्तस्य पुलस्तस्य च वैशम्पायन एवं च….. मंत्र लिखा होता है. इस दशार और मंत्र की मान्यता है कि घर कुड़ी, दुकान मकान, आदिव्याधि, छल छिद्र, वज्र पात मूठ कपट, से बचा रहता है. सुखचैन बना रहता है. जेठ मास कि शुक्ल पक्ष एकादशी कि तिथि निर्जला एकादशी के व्रत की होती है. इस दिन जल पीने का भी निषेध होता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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