शुरुआती जीवन
नौटी गांव से दो किमी की दूरी पर बैनोली नाम का एक गांव है मेरा जन्म वहीं हुआ था. मेरी शिक्षा दीक्षा भी उसी गांव में हुई. मैंने आठ तक वहीँ पढ़ा. मेरे पिताजी (त्रिलोक सिंह रावत) वन विभाग में फौरेस्टर हुआ करते थे तो मैं आठवीं के बाद पिताजी के साथ पौढ़ी आ गया. उसके बाद में पिताजी के साथ अनेक जगहों पर घुमा. मेरे पिताजी बड़ी ईमानदार छवि के थे. उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर रिटायरमेंट के बाद उन्हें निर्विरोध ब्लाक प्रमुख चुना गया था. उनका बहुत प्रभाव मुझपर पड़ा. पिताजी का जंगल से वास्ता था इसलिये बचपन मैं ही मेरा प्रेम प्रकृति से हो गया. इसके बाद पिताजी वन रेंजर बनकर चमोली में आये. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
मेरी मां (विमला देवी) अपनी संस्कृति के प्रति बहुत समर्पित रही. वह मांगल गीत और जागर गीत की बड़ी एक्सपर्ट थी. सारे गांव में मेरी मां मांगल गीत गाया करती थी.मां से मुझे अपनी जमीन, परम्परा और समाज को समझने में बड़ी मदद मिली. पिता से पर्यावरण के संस्कार मिले तो मां से मुझे संस्कृति के संस्कार मिले. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
पहली नौकरी
तब मैं डिग्री कॉलेज गोपेश्वर में पढ़ने लगा. 1970 में मैंने यही से वनस्पति विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. बी.एड. किया था तो शिक्षा विभाग में मुझे नौकरी लग गयी फिर मैं यही पौढ़ी गढ़वाल में चौड़ीखाल में एक जगह है वहां में शिक्षक बनकर आ गया. यहां मैंने देखा लोगों के पास पानी, जंगल की बड़ी समस्या थी. वहां पर मैंने लोगों को सामजिक कार्यों से जोड़ना शुरू किया. मैंने छुट्टी के दिन गांव में लोगों के बीच जाकर जन जागृति का कम शुरू किया.
वहां एक बड़ा मेला होता हैं बुंखाल का मेला. तब वहां इस मेले में सौ डेढ़ सौ बड़े भैंसे और ढाई तीन सौ बकरियां मारी जाती थी.मैंने देखा यहां देवी का इतना बड़ा अनुष्ठान हो रहा है जिसमें लोग बलि को इतना महत्व दे रहे हैं. मैंने बलि प्रथा को रोकने के प्रयास करने की ठानी. धीरे-धीरे जब मैंने गांव के बच्चों और लोगों के बीच काम किया तो उन्हें लगा कि गुरूजी अच्छा काम कर रहे हैं तब मैंने लोगों से आग्रह किया कि बलि प्रथा को रोक दें. मैंने लोगों को अलग-अलग तरीके बताये कि कैसे हम इसे कम कर सकते हैं. लोगों के मेरे विश्वास में आने के बाद मैंने उनकी मीटिंग बुलाई और कहा कि हम लोग मिलकर एक अनुष्ठान करें और इस बलि प्रथा को पूर्णतः बंद कर दें. मैंने उनको समझाया की आप लोगों के बच्चे भी यहां आते हैं इस तरह बलि देखकर इन बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इन बलियों से लोगों पर आर्थिक स्थिति भी प्रभावित होती थी. मैंने बच्चों के लिये एक सैटर डे क्लब बनाया जिसमें बच्चों को कहता कि शनिवार के दिन अपने आस-पास की सफाई करें. इस तरीके की गतिविधियों से मैं गांव वालों को जागृत करने में सफल हो गया था. इसका प्रभाव यह रहा कि मेरे एक बरस बलि दिये जाने वाले जानवरों की संख्या 40 हो चुकी थी. 1983-84 तक वहां पूरी तरीके से बलि प्रथा पूर्णतः बंद करा दी. 1984 में उत्तरकाशी को मेरा पहला तबादला हो गया.
चिपको आन्दोलन से जुड़ी यादें
जब चिपको आन्दोलन शुरू हुआ तब मेरे पिताजी नन्दप्रयाग में रेंजर थे और मैं गोपेश्वर में पोस्टग्रेजुएशन कर रहा था. गोपेश्वर में इन दिनों में पर्यवारणीय कार्यों में सक्रिय हो गया था. उस समय आस्ट्रिया के कुछ लोग हिमालय के जीव जंतुओं पर रिसर्च कर रहे थे. पूरा शासन उनके पीछे लगा हुआ था. तुंगनाथ वाले इलाके में कस्तुरी मृग होते हैं. उन कस्तूरी मृगों पर रिसर्च चल रही थी. उनके लिये गोपेश्वर से गाड़ी घोड़ा रोज जाता था. हमने सोचा हम लोग जो पहाड़ के रहने वाले हैं हम क्यों रिसर्च नहीं कर सकते जब विदेशी लोग आकर रिसर्च कर रहे हैं. इसके बाद मैंने वन जीव संरक्षण के लिये एक संस्था का गठन किया और उसका नाम रखा हिमालय वन्य जीव संस्थान. उसको बनाने में चंडीप्रसाद भट्ट जी का बड़ा योगदान रहा. इसका मैं पहला अध्यक्ष था जगदीश तिवाड़ी सचिव बने और चंडीप्रसाद भट्ट जी इसके संरक्षक बने. इसके बाद हमने सबसे पहला काम यह किया हमने रुद्रनाथ के बुग्यालों को बचाने का काम किया. फिर हमने गांव-गांव जाकर लोगों को पर्यावरण के प्रति जागृत किया. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
जब गौरादेवी और अन्य महिलायें चिपको आन्दोलन करने वाली थी तब चंडीप्रसाद भट्ट जी ने हमें बताया की जोशीमठ चलना है और तुम कालेज के लड़के तैयार रहना. मैंने कहा लड़के तो तैयार हो जायेंगे लेकिन जायेंगे कैसे? तब भट्टजी ने एक ट्रक किया और हम डेढ़ सौ लड़के ट्रक में बैठकर जोशीमठ को गये. तब वहां के ब्लाक प्रमुख रावत थे उन्होंने कहा कि वहां से महिलाओं का कहना है की इन लोगों को हम लोग ही भगा देंगे अगर वो लोग ठेकेदार के आदमियों को नहीं भगा सके और वहां से कोई सुचना आएगी तब हम लोग जंगल की ओर जायेंगे. तब तक तुम लोग जोशी मठ में बैठे रहो. उस दिन बहुत बारिश लगी हुई थी तब एक आदमी आया उपर से उसने बताया कि वहां तो महिलाओं ने सारे मजदूरों को वहां से भगा दिया है, वो लोग पेड़ों में चिपक गये, अब हमें जाने की जरूरत नहीं है. तो हम लोग वहां से गोपेश्वर वापस आ गये. इस दौर में हमने खूब सिखा.
राजगढ़ी में
मेरा दूसरा ट्रांसफर रंवाई घाटी क्षेत्र में हुआ. यहां के लोग केवल पेड़ काटना जानते थे. पेड़ लगाना नहीं जानते थे. लोगों ने मुझसे कहा कि गुरूजी रंवाई जा रहे हो वहां तो बड़ा खतरनाक इलाका है आप कैसे काम करोगे. मैंने कहा कोई बात नहीं अपने देश का ही तो भाग है वो. मैंने कहा मैं लोगों का जागरुक करूंगा. जब मैं वहां गया तो देखा सच में वहां लोग केवल पेड़ काटना जानते हैं लगाना तो जानते ही नहीं और अगर आप उनसे पेड़ न काटने की बात करोगे तो लोग तुम्हें मार देंगे. वहां स्कूल की स्थिति ऐसी थी कि बच्चे कभी पढ़ते नहीं थे. पास-करने वाले इंटर पास कर जाता था लेकिन अपना नाम नहीं लिख पाता था. नकल चलती थी. स्कूल के प्रबंध में उन दिनों मैदानी और पहाड़ी वाली गुटबंदी भी खूब हुआ करती थी. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
मैंने सभी अध्यापकों को एक किया और बच्चों को पढ़ाना शुरु किया. राजगढ़ी स्कूल में मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही स्कूल परिसर में बच्चों की सहायता से बनाई गयी थी. इस नर्सरी में 45000 पौध तैयार किये थे. यह उत्तराखंड शिक्षा विभाग की यह सबसे बड़ी नर्सरी थी. उन दिनों हमारे स्कूल में आस-पास के चालीस गावों के बच्चे आते थे. मैंने उन बच्चों के माध्यम से वह पेड़ गावों में भेजे और वहां पेड़ पहुंचा कर मैंने वृक्षारोपण का एक नया तरीका खोजा. सच पूछें तो मुझे पर्यवारण के प्रति जो एक बहुत बड़ी प्रेरणा मिली रवांई घाटी के राजगढ़ी से ही मिली थी.
आपने 1930 का तिलाड़ी काण्ड जरुर सुना होगा जिसमें स्थानीय लोगों ने अपने वन अधिकारों के लिये आन्दोलन किया था. इससे जुड़ी घटना को उत्तराखंड जलियांवाला काण्ड भी कहा जाता है. 30 मई 1930 को तिलाड़ी काण्ड हुआ था इसी वजह से 30 मई के दिन उत्तरकाशी में शहीद दिवस मनाया जाता है और सरकारी अवकाश रहता हैं. मैं राजगढ़ी में था तब मुझे लगा कि आज शहीद दिवस है तो तिलाड़ी मैदान जाना चाहिये. मैं यमुना किनारे तिलाड़ी मैदान पर गया देखा वहां कोई नहीं था. उन दिनों उत्तार प्रदेश में बलदेव सिंह आर्य मंत्री हुआ करते थे वो बेचारे नीचे तिलाड़ी मैदान नहीं जा सकते थे तो उन्होंने स्मारक नीचे से उठा कर हमारे स्कूल के पास ही बना दिया. जिसमें लोगों में किसी प्रकार की कोई रूचि नहीं थी कोई चला गया तो दो एक फूल चढ़ा देता था.
यह सब देखकर मुझे बहुत बुरा लगा. शहीदों के नाम पर यहां दो आदमी भी नहीं आ रहे हैं. यह अच्छा नहीं है. मैंने एक संकल्प ले लिया कि मैं यहां शहीद दिवस का आयोजन यहां बड़े भव्य रूप में करुंगा. 1987 में मैंने राजगढ़ी में एक वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम की रुपरेखा बनाई. इसी साल इस क्षेत्र में भयंकर सूखा पड़ा लोगों की खेती बरबाद हो गयी. बारिश की कामना के लिये लोगों ने अपने स्थनीय देवताओं को डोलियों में बैठाकर चारधाम यात्रा की. यह सब मार्च अप्रैल की घटना थी. मुझे भी अपना कार्यक्रम मई 30 को करना था. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
मैंने जब डी.एफ.ओ. साहब से बात की तो उन्होंने कहा कि हम पेड़ तो दे देंगे लेकिन इतने भयंकर सूखे में कम वृक्षारोपण करेंगे तो लोग क्या कहेंगे और पेड़ कैसे बचेंगे? मैंने कहा सर मैं मेरे राजगढ़ी में प्राकृतिक स्त्रोतों में पानी है मैं बच्चों के द्वारा पानी डालूंगा. मैं चाहता हूं कि मेरे गांव में पढ़ने वाले चालीस गांवों के बच्चों के चालीस पेड़ लगें. मैंने चालीस गांवों के ग्राम प्रधानों की मीटिंग बुलाई और प्रस्ताव रखा कि 30 मई के दिन आप लोगों को एक डोली में एक पेड़ रखकर लाना है यह पेड़ ग्राम वृक्ष कहलायेगा. इस दिन वृक्ष अभिषेक कार्यक्रम मनाया जायेगा. हम पहले से गड्डे खोद कर रखेंगे और उसमें गांव का प्रधान पेड़ लगायेगा और प्रधान के साथ गांव की सात लड़कियां परम्परागत परिधान में एक कलश में पानी के साथ आयेंगी. प्रस्ताव तय हो गया.
30 मई को 1987 को मैंने डीएम इत्यादि को भी बुलाया. तीस मई के दिन सुबह 11 बजे से चालीस गांव के लोग ढोल दमाऊ बजाते हुये एक पेड़ डोली में रखकर स्कूल पहुंचने लगे. उस साल राजगढ़ी के मैदान में चार हज़ार लोगों की भीड़ थी. वहां हमने वेद मंत्रों के साथ वृक्षों को पूजा और फिर हमने ग्राम प्रधानों से कहा कि अपने गांव की लड़कियों के साथ अपने गांव के नाम वाले गड्डे के पास जाइये और पेड़ लगाइये. पेड़ लगने के बाद गांव की सात लड़कियां पेड़ की सात परिक्रमा कर पेड़ में कलश से पानी डालेंगी. इसके बाद एक भव्य कार्यक्रम हुआ.
इन चालीस गांवों में कुछ ऐसे गांव भी थे काफ़ी दूर थे. इन गावों के लोग रात को वापस अपने घर नहीं जा सकते थे इसलिये हमने पास में स्थित राजा का कोठा में उनके रहने खाने की व्यवस्था कर दी. उन लोगों ने कभी सिनेमा नहीं देखा था मैंने पहले ही डी.एफ.ओ साहब से निवेदन किया था कि इन्हें रात को एक चलचित्र दिखाया जाये. डी.एफ.ओ. साहब ने इसकी व्यवस्था कर दी. रात को सिनेमा देखेने आस-पास के लोग और वहां रुके हुये दूर गांव के लोग सिनेमा देखने लगे. मैं दिन भर की थकान के बाद सो चुका था एक बजे रात एक लड़का मेरे पास आया बोला बाहर चलिये आपरेटर लोग कह रहे हैं सिनेमा बंद करना है. मैंने कहा बंद क्यों करना है उसने कहा कि बाहर बारिश आ गयी. मैं बाहर गया बाहर बूंदाबांदी शुरु हो गयी मैंने आपरेटर को कहा कि तुम्हारी रील ख़राब हो जायेगी थोड़ी देर के लिये बंद कर लो. लेकिन बारिश अगले सात दिन तक बारिश तक नहीं रुकी. गांव के लोग भीगकर अगले दिन अपने गांवों की ओर गये. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
डी.एफ.ओ. साहब का मुझे फोन आया कि रावत जी ये क्या चमत्कार हो गया. यह दिन मेरे जीवन का ऐसा अद्भुत अनुभव था जब मुझे लगा कि हम ईमानदारी से काम करते हैं तो प्रकृति साथ देती है. इस घटना के कुछ समय बाद रंवाई घाटी की कुछ महिलायें मेरे पास आई और कहने लगी कि भाई साहब हमको लगाने के लिये कुछ पेड़ दीजिये. मैंने डी.एफ.ओ. साहब से बात की गांव की महिलाओं और डी.एफ.ओ. साहब के बीच की मीटिंग में डी.एफ.ओ. साहब ने प्रस्ताव रखा कि मैं तुम्हें पेड़ भी दूंगा, गड्डा खोदने के पैसे भी दूंगा लेकिन तुम्हें केवल एक काम करना है तुम्हें पेड़ को बचाना है. महिलाओं ने कहा हमें केवल पेड़ दो साहब गड्डे भी हम खोद लेंगे और सुरक्षा भी हम करेंगे. आज रवांई घाटी के लोगों ने अपने क्षेत्र में शानदार जंगल बनायें हैं.
मैती आन्दोलन
1988 में मेरा तीसरा तबादला हुआ और ग्वालदम चला गया. मैंने वहां भी वन्यजीव को बचाने का काम जारी रखा. 1995 में ग्वालदम में ही मैंने मैती आन्दोलन की शुरुआत की. इन दिनों मैंने देखा चारों तरफ पेड़ कट रहे हैं उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है, एक साल मैंने देखा कि वन विभाग ने पेड़ लगायें हैं अगले साल वहां एक भी पेड़ नहीं हुआ. एक साल एक एनजीओ आया उसने पेड़ लगाये अगले साल एक नहीं हुआ. मैंने सोचा सब जगह ऐसा ही वृक्षारोपण हो रहा होगा तो तब तो हो गया हिमालय हराभरा. दिमाग में आया कि क्या ऐसा किया जाये कि पेड़ जिन्दा रहे. तब एक भाव आया कि हमारे गांव में, घरों में मां और बेटी का एक रिश्ता है कि मां के साथ बेटी हर समय खड़ी रहती है. खेत में बेटी जाये, जंगल जाये मां के साथ हर समय साथ देती है. घर में चौखे से लेकर खलिहान से लेकर हर जगह बेटी साथ देती है और जिस दिन बेटी की शादी होती है सबसे ज्यादा दुःख मां को होता है और मां का बहुत बड़ा सहारा उस दिन जा रहा होता है. मेंने सोचा अगर बेटी शादी के समय एक पेड़ लगाकर के जाती है तो एक तो उनकी शादी की यादगार हो जायेगी दूसरा उस पेड़ को कोई नहीं बचायेगा तो मां जरुर बचाएगी. मां कभी उसे नहीं सूखने देगी. मैंने सोचा वह पेड़ भावनाओं से जिन्दा रहेगा. ये भाव आये तब मुझे लगा कि लड़की का सबसे प्यारा शब्द होता है मैत. मैने सोचा की इसका नाम मैती रखा जाय. इसको मैंने सबसे पहले अपने ग्वालदम गांव में मनाया. एक लड़की हमारे स्कूल में पड़ती थी उसकी शादी में सबसे पहला काम हमने एक पेड़ लगाया था. फिर हमने कहा कि ये लड़की जायेगी इसका पेड़ लग जायेगा ये इसकी शादी का यादगार होगा. कल इसके बच्चे होंगे और वो लोटकर आयेंगे अपने नैनिहाल में तब इस पेड़ मैं फल लगे होंगे और इनकी नानी कहेगी बच्चो अंदर आओ देखो तुम्हारे मां-बाप की शादी का पेड़ इनता बड़ा हो गया इसमें अमरुद लगे हैं जाओ खाओ कितना अच्छा लगेगा उनको. वो भी कहेंगे हम भी अपनी शादी में ऐसे पेड़ लगायेंगे और इस तरह परम्परा आगे बड़ेगी. एक साल में इस गाँव में दस शादियाँ भी होंगी तो दस साल में तुम्हारा गांव हरा भरा हो जायेगा. तुम्हारे गांव वालों को हवा मिलेगी, पानी के स्त्रोत नहीं सूखेंगे, तुमको चारा-पत्ती मिलेगा. एक-एक बेटी का लगाया गया पेड़ गांव को समृद्ध बनायेगा यही मैती है. शादी के बाद हर मां-बाप के कुछ सपने होते हैं वो उसके लिये कपड़े बनाते हैं झूले बनाते हैं लेकिन जब एक बच्चा पैदा होता है तो उसे इन सबसे पहले हवा चाहिये. मैती में शादी पर लगाया गया पेड़ मां बाप द्वारा अपने बच्चे के लिये हवा का पहला इंतजाम है. मैती आन्दोलन लोग कहते हैं कल्याण सिंह रावत का है लेकिन मैं कहता हूं यह हम भूल गये थे पार्वती मंगल किताब पढ़िये उसमें लिखा है जब शिव पार्वती की शादी हुई तो पार्वती ने पेड़ लगाया था. जानकी मंगल में भी राम सीता की शादी के समय भी जानकी ने पेड़ लगाया. मैंने उसी परम्परा को बढाया है.
जहां शादियों में जूता चोरने की परम्परा थी हमने कहा कि ये चोरी की रीत खत्म, अब ये लड़कियां खड़ी होंगी और दूल्हा दुल्हन पेड़ लगायेंगे और दूल्हा उन लड़कियों को पैसे देगा कि हम जा रहे हैं हमारे पीछे इस पेड़ को बढ़िया से रखना. गावों में युवा लड़कियों के मैती समूह बने हैं दूल्हा इस समूह की अध्यक्ष को पैसा देता है और लडकियां पैसा इकट्ठा कर गांव की गरीब लड़कियों की मदद करती हैं.
हमारे यहां की परम्परा है कि जब लड़की शादी के बाद घर अती है तो गांव की लड़कियां और औरतें सबसे पहले उस बेटी को गागर पकड़ा कर पानी के स्त्रोत तक ले जाती हैं और धारा की पूजा की जाती है. इसके बाद बेटी गागर में पानी भरकर घर में सबको खाना खिलाती है तो हमने इसमें जोड़ा की दुल्हन पानी के स्त्रोत बचाने के लिये अपने घर में भी एक पेड़ लगाये ताकि पानी जिन्दा रहे. उस पेड़ को दुल्हन बचाती है. आज मैती आन्दोलन 18-20 राज्यों में चल रहा और सात-आठ देशों में भी चल रहा है. इंडोनेशिया ने अपने यहां कानून बना दिया. (Exclusive Interview with Kalyan Singh Rawat)
कल्याण सिंह रावत का यह साक्षात्कार गिरीश लोहनी द्वारा लिया गया था. काफल ट्री की ओर से कल्याण सिंह रावत को जन्मदिन की शुभकामनाएं.
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1 Comments
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सरल सी बातें लागू करने का साहस -दिल पे उतार दो तो लोग साथ देते हैं. प्रकृति का साथ दो तो प्रकृति भी साथ है मात्र अवधारणा नहीं, कल्याण ने साबित कर दिखाया.
बहुत बढ़िया. गिरीश ने सब जरुरी मुद्दे सामने रख दिये.