(शमशेर सिंह बिष्ट: 4 फरवरी 1947 से 22 सितम्बर 2018)
शमशेर सिंह बिष्ट उत्तराखण्ड के ख्यातिलब्ध आन्दोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी हैं. अभावग्रस्त बचपन को अपनी ताकत बना लेने वाले शमशेर सिंह बिष्ट ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 80 के दशक के आरम्भ में अल्मोड़ा कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में की. इसके बाद राजनीतिक, सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध शमशेर उत्तराखण्ड के सभी महत्वपूर्ण आंदोलनों के ध्वजवाहक बने रहे . विभिन्न छात्र आंदोलनों के अलावा वे नशा नहीं रोजगार दो, चिपको आन्दोलन, राज्य आन्दोलन समेत कई आंदोलनों के प्रमुख योद्धा रहे. राज्य गठन के बाद भी वे सत्ता के गलियारों में जगह तलाशने के बजाय आजीवन जनसंघर्षों का हिस्सा बने रहे.
चार सितम्बर 2018 को शमशेर सिंह बिष्ट के अल्मोड़ा स्थित निवास पर उनसे लेखक, अनुवादक और ब्लॉगर अशोक पांडे की ‘काफल ट्री’ के लिए एक लम्बी बातचीत की शुरुआत हुयी. शमशेर सिंह बिष्ट के खराब स्वास्थ्य के मद्देनजर बातचीत कई चरणों में की जानी थी. इस इंटरव्यू के माध्यम से शमशेर सिंह के व्यक्तित्व के दिखाई देने वाले पहलुओं के अलावा उन अनछुए पहलुओं को भी सामने आना था जो उनके व्यक्तित्व निर्माण का कारक रहे. इस प्रेरक और दिलचस्प बातचीत के पहले ही दौर के बाद अस्वस्थ चल रहे शमशेर सिंह बिष्ट की असमय मृत्यु हो गयी. कुछ जाना जा सका और बहुत कुछ जानना शेष रह गया. शमशेर सिंह बिष्ट के इस आखिरी इंटरव्यू को हम ‘काफल ट्री’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.
अपने बचपन से जुड़ी कुछ यादें आप बतायें. आप लोग मूलतः कहाँ के रहने वाले थे, अल्मोड़ा कब, कैसे पहुंचे? वगैरह.
हमारा परिवार मूल रूप से गढ़वाल का रहने वाला था. फिर कभी यहाँ कुमाऊं आ गए, कुमाऊं में जो स्याल्दे ब्लॉक है. तिमली के नाम से जाने जाते थे, तिमली बिष्ट के नाम से. वहीं हम लोगों का गाँव था. बाद में बगल का एक गाँव हमारे दादाजी ने लिया जिसे खटलगांव कहते हैं. फिर हमारे परिवार ने यहीं रहना शुरू किया. हमारे दादा यहाँ फर्स्ट जीआर में नायक सूबेदार थे. यहाँ से रिटायर होने के बाद उन्होंने कपड़े की दुकान खोली. तब लाला बाजार नहीं हुआ करता था. तब यहाँ बनिया बाजार हुआ करता था, पलटन बाजार भी थी. इन्हीं बाजारों को बाजार माना जाता था. यहाँ दादाजी ने कपड़ों का कारोबार शुरू किया. इस कारोबार में उनका बहुत सारा पैसा उधारी में फंस गया और आखिर यह दुकान उनके पास नहीं रह पायी. लेकिन इसके बाद भी हमारा परिवार पलटन बाजार में ही रहा. 80 सालों से भी ज्यादा हम पलटन बाजार के मकान में रहे, यह किराए का मकान था. हमारे दादाजी ने कभी यहां मकान नहीं खरीदा. उन्होंने सोचा कि हमें आखिरकार अपने गाँव में ही जाना है, हम अपने गाँव में ही रहेंगे. हमारे इस किराये के मकान की 3 दफा खरीद-फरोख्त हुई. हम इसी मकान में रहते चले आये और इसके मकान मालिक बदलते रहे.
इसके बाद हमारे पिताजी को यहाँ कचहरी में क्लर्की मिल गयी. वे कचहरी में क्लर्क हो गए. हमारे दादा की 2 शादियां थीं. इन दो शादियों से उनके 2 लड़के हुए. एक लड़के का नाम किशन सिंह था और एक हमारे पिताजी गोविन्द सिंह थे. हमारे पिता गोविन्द सिंह ने आठवीं, नवीं तक ही पढ़ाई की और क्लर्क हो गए. इसके बाद हम लोग जिंदगी भर यहीं पलटन बाजार में ही रहे. पलटन बाजार में हमारे मोहल्ले को नेपाली मोहल्ला कहा जाता था. लोग हमें नेपाली ही सोचा और माना करते थे. घर के भीतर हम परिवार के लोग कुमाऊनी, पाली, पछ्याऊ बोलते थे बाहर हमें नेपाली माना जाता जाता था. हमारा मोहल्ला गोरखाओं का मोहल्ला था. गोरखाओं के उस मोहल्ले में पढ़ाई-लिखाई का माहौल नहीं था, पढ़ाई-लिखाई बहुत कम होती थी. मोहल्ले के लोगों को दादागिरी का बड़ा शौक था, सेना में भर्ती का भी शौक हुआ करता था. इसी ढंग का एक माहौल था. तो इस तरह की परिस्थितियां थीं. तो हमारे भाई लोग भी फौज में गए. हम चार भाइयों में से 2 फ़ौज में भर्ती हुए और एक भाई रेलवे में गया. स्थितियां ऐसी थीं कि हमारे पिता अल्मोड़ा के पियक्कड़ों में अग्रणी हुआ करते थे. वे किसी भी शाम को बिना पिये नहीं पाए जाते थे. तो बचपन में स्थितियां ऐसी ही थीं.
पिताजी तनख्वाह मिलते ही शराब भट्टी का रुख किया करते. पिताजी अधिकांश पैसा शराब में ही फूंक दिया करते थे. इस वजह से परिवार में बहुत अभाव था. मुझे याद है कि जब मैं सातवीं में पढ़ता था तो डीएम के वहां इस आशय की अर्जी लगायी गयी कि इनकी तनख्वाह इन्हें (पिताजी) को न देकर परिवार को दी जाये. जब मैं सातवीं आठवीं में पढ़ता था तो इस तनख्वाह के लिए लाइन में लगा करता था. अब इस तनख्वाह के आने पर हम अपना घर का खर्चा चलाते थे. इस तरह की स्थितियां मैंने अपने बचपन में देखीं. इन बहुत ख़राब स्थितियों में 2-3 घटनाएँ ऐसी थीं जिन्होंने अपना व्यापक असर डाला. एक तो यह कि 1966 में पिता की मृत्यु हो गयी. वे तो चले गए, उनकी मृत्यु के मौके पर घर में आने वाले लोग कहा करते थे कि अब कचहरी में तुमको क्लर्की मिल जाएगी. मुझे इस बात का बहुत बुरा लगता था कि ये लोग मुझे ऐसा क्यों कहते हैं, मुझे क्लर्की करने के लिए क्यों कहते हैं. उस समय में हाईस्कूल में पढ़ता था और मेरे अन्दर क्लर्क की नौकरी न करने का भाव था. उसी समय हमारी अमा (दादी) गंभीर रूप से बीमार हो गयीं, उनकी मरने की स्थिति बन गयी.
हमारे पिताजी जब ज़िंदा थे तो उनसे कहा गया कि मकान मालिक को जाकर किराया दो और वो किराया न देकर उस पैसे की शराब पी गए. और घर में बता दिया कि किराया दे दिया है. मकान मालिक ने परिवार पर मुकदमा कर दिया. मैं मुक़दमे के सिलसिले में वकीलों के चक्कर लगता रहा, उनसे बात करता रहा. मुझे याद है एक वकील हुआ करते थे, मैं उनका नाम नहीं लेना चाहूंगा. तो उनके पास जब मैं पहुंचा और मैंने कहा कि स्थितियां बहुत ख़राब हैं तो उन्होंने कहा कि मैं पहले वकील हूँ फिर…मैंने कहा कि ज़रा आप मानवीय पक्ष से इस पर विचार कीजिये. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं होता है. जो मुंसिफ था वह हमारे मकान मालिक का ही किरायेदार था. ऐसे में फैसला तो हमारे खिलाफ ही होना था. अंततः एक दिन ऐसी स्थिति आयी कि हमें मकान खाली करने का आदेश हो गया. मुझे वह वक़्त अक्सर याद आता रहता है कि घर खाली करना है, दादी मरने की स्थिति में है और घर में कोई है नहीं. तो यह मुझे बहुत स्ट्राइक कर गया. जैसे-तैसे मकान का बंदोबस्त किया. जहाँ हम 8-10 कमरों वाले मकान में रहा करते थे अब हमें एक-डेढ़ कमरे वाले मकान में जैसे-तैसे पूरा परिवार एडजस्ट करना पड़ा. तो ये रहीं बचपन की स्थितियां.
दूसरी बात, जब मैं सातवीं में पढ़ता था और उस दिन अपनी दीदी के साथ में था. मैं घर का खाना-पीना भी बनाता था. मैंने अंगीठी जलायी, तब बांज के कोयले वाली अंगीठी हुआ करती थी. अंगीठी मुझसे जल नहीं पा रही थी. मैंने मिट्टीतेल से जलने वाला स्टोव बंद किया और सोचा कि थोड़ा मिट्टीतेल अंगीठी में डाल दूं. जैसे ही मैंने अंगीठी में मिट्टीतेल डाला उसने आग पकड़ ली और मैं खुद उसमें जल गया. इसके बाद फिर मैं 6 महीने तक अस्पताल में भर्ती रहा, जिला अस्पताल में तीन महीने. और 3 साल मेरे बर्बाद हुए. लेकिन यह इस रूप में सकारात्मक रहा कि अगर मेरा एक्सीडेंट नहीं हुआ होता तो मैं भर्ती हो गया होता. कहीं सिपाही-विपाही हो जाता. अब क्योंकि मैं भर्ती भी नहीं हो सकता था तो मेरे दिमाग में यह आया कि अब तो मुझे पढ़ना है. ऐसा भाव मेरे मन में आया और सकारात्मक दिशा में चला गया. तब मैंने अपनी पढ़ाई जारी की. तो इस घटना ने मुझे फिर पढ़ाई के लिए प्रेरित किया, फिर मैंने पढ़ाई करी.
पढ़ाई करते समय जब हाईस्कूल में जब मैं था, हमारी दीदी टीचर हो गयी थीं देहरादून में. वहां वह मुझे एक बड़े ज्योतिषी के पास ले गयीं. उसने मेरा हाथ-वाथ देखा और कहा कि यह ज्यादा शिक्षा नहीं ले पायेगा, इसकी हाईस्कूल से ज्यादा शिक्षा लेने की स्थिति नहीं है. वह दिन मुझे याद है, मैंने उसी दिन यह तय किया कि चाहे कुछ भी हो मैं पीएचडी जरूर करूँगा. यह मैंने अपने दिमाग में रख लिया. मतलब कहा कुछ नहीं संकल्प लिया कि मैं इसे गलत सिद्ध करके रहूँगा. तभी से मेरा अंधविश्वास के प्रति एक गुस्से का भाव बना रहा.
कुछ घटनाएं और हुईं. जैसे एक घटना थाने के पास की है. एक मोची था मोची. उस वक़्त मैं इंटरमीडिएट में पढ़ता था. तो हुआ यह कि उसका (मोची) छत उखाड़ने लगे, लकड़ी का टेंटनुमा. उसी छत के नीचे वह अपना काम करता था. एक पुलिस वाला था शायद उससे उसकी बन नहीं पायी या क्या हुआ. उसकी छत को उखाड़ दिया. बड़ा झगड़ा हुआ और मैं भी उसमें कूद गया. अंततः एक माहौल बना और मामला ठीक हो गया. उससे मेरे अन्दर आक्रोश पैदा हुआ, मुझे लगा कि इस तरह से गरीबों को सताया जाता है.
एक और घटना भी है. जब मैं इंटरमीडिएट में पढ़ता था तो कोई एक शमशेर सिंह था पिथौरागढ़ का और वह मोहल्ले में अकेला रहता था. उसने चोरी कर दी. अब चोरी कर दी तो शमशेर सिंह के नाम से वारंट आ गया. मोहल्ले में सभी लोग मुझे जानते थे तो पुलिस वाले मुझे पकड़कर ले गये. सुबह से शाम तक मुझे थाने में बिठाकर रखा और कहने लगे कि अब इस चोर को बंद कर दो. उसी दिन मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी ठैरी जिस दिन यह चोरी हुई थी. अब मैं कितना भी कहूँ कि नहीं मैंने चोरी नहीं की वह मानने को तैयार ही नहीं होते. चांस की बात रही कि एक कोर्ट इन्स्पेक्टर थे मोहन सिंह अधिकारी, वे हमारे रिलेशन में आते थे. वे शाम को थाने में आ गए, पता नहीं कहां से. उन्होंने जब मुझे देखा तो कहा भई तुम कैसे बैठे हो यहां. तो मैंने कहा ये तो पकड़कर लाये हैं मुझे. उन्होंने कहा कि मैं इसे जानता हूँ, तब जाकर में उस दिन छूटा. इस तरह की कुछ घटनाओं ने मुझे प्रेरित भी किया. बचपन की कुछ चीजें ऐसी रहीं जिसने इस ढंग की स्थितियां पैदा कीं.
बचपन में आपके दोस्त भी रहे होंगे, अपने दोस्तों के बारे में कुछ बताएं. कैसे खेलते थे, समय बिताते थे? अल्मोड़ा में कैसे खेल हुआ करते थे?
मेरा कहना है कि बचपन में एक नंदा देवी का दिन होता था तभी हम बाजार जाते थे, लाला बाजार या… नहीं तो साल भर हम खेलने में लगे रहते थे.
क्या-क्या खेलते थे? जैसे…
एक तो गुल्ली-डंडा खेलते थे. गुल्ली-डंडा या अंठी तो कॉमन थे ही, इसके अलावा हम फुटबॉल भी खेलते थे. अल्मोड़ा इंटर कॉलेज के दौरान भी हम फुटबॉल खेलते थे. उस ज़माने में खिलाडियों को रिफ्रेशमेंट भी मिलता था. एक तो यह किया करते थे. दूसरा, जैसा कि मैंने कहा बचपन का हमारा नेपाली मोहल्ला था. हम लोग स्कूल से भागते थे और दुनीडांडा में चले जाते थे. तो वहां सिगरेट पीना, ये करना…यही सब था. लेकिन फुटबॉल ही हमारा मुख्य खेल था. उस ज़माने में मैच भी हुआ करते थे. यूनियन क्लब था, गोरखा यूनियन थी. इसे लेकर बहुत उत्साह रहा करता था. या तो हम फील्ड में गए या फिर दुनीडांडा, बाजार घूमने जाने की तो कोई अवधारणा ही नहीं थी. खेल में ही हम लोग रहा करते थे. शाम को जब बत्ती जलती थी तो जैसे-तैसे हम लोग घर लौटते थे नहीं तो दिन भर और शाम को भी खेल में लगे रहते थे. कभी-कभी हम लोग नदी के किनारे चले जाते थे, ऐसा भी हो जाता था. मैं इस मामले में जरा कमजोर था लेकिन मेरे दोस्त ऐसा किया करते थे.
मोहल्ले के कुछ दिलचस्प कैरेक्टर आपको याद आते हों. अल्मोड़ा तो वैसे भी कैरेक्टरों का शहर है.
एक शेरबहादुर हुआ करता था. वह इतना खुराफाती ठहरा, एक बार उसने मेरी पैंट में चुपचाप सिगरेट डाल दी, उस ज़माने की पैंटें नीचे से मुड़ी हुई हुआ करती थीं, इनमें नीचे कॉलर हुआ करता था. इसी कॉलर में उसने सिगरेट डाल दी और धुआं उठने लगा. तब यहाँ पर आर्मी तो नहीं थी मगर बंगले-हंगले हुआ करते थे. यहाँ नालियों के रास्ते कहीं घुस जाना, घरों में गड़बड़ करना, इस ढंग की खुराफातें वह किया करता था. बाद में वह जैसे-तैसे भर्ती हुआ, वहां आर्मी में भी उसने गड़बड़ करी और फिर नेपाल भाग गया. नेपाल से वह दोबारा भर्ती हुआ और अब सूबेदार मेजर से रिटायर हुआ. वह बचपन का हमारा दोस्त रहा. और भी कुछ लड़के इस ढंग के थे जो अभाव में भी थे. जिन्होंने आर्मी में कमीशन लिया. रानीखेत में भी हमने कमीशन के लिए एक बार ट्राई किया. 4-5 लड़के हम चले गए रानीखेत, हमने सोचा हम निकलेंगे. फिर उन लड़कों में कोई आईबी में गया… जैसे यहाँ गजे हले थे उनके घर का केसर हमारे साथ का था वो निकला, अच्छे पद पर गया.
मैं बताना चाहता हूँ कि बचपन में मैंने 15 साल बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाया.
इस समय आप किस क्लास में थे? जब ट्यूशन पढ़ाया.
जब ट्यूशन किया? (हाँ) उस वक़्त तो मैं इंटर-हाईस्कूल में था. बीए तक मैंने ट्यूशन पढ़ाया. फिर मैंने सर्विस भी करी, मैं जिला पंचायत में क्लर्क रहा. जब मैं बीए में पहुंचा तो मुझे क्लर्की मिली, इसके लिए मुझे 149 रुपये तनख्वाह मिलती थी. वहां मैंने करीब 9 महीने सर्विस करी इसी दौरान बीए की पढ़ाई भी करी. कॉलेज में छात्रों के बीच विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय रहा. बाद में जब मैं बीए फाइनल करके निकला तो उस वक़्त दादागिरी का बहुत शौक था. दादागिरी मतलब गाँव के लड़कों के पक्ष में खड़ा हो जाना. शहर के अप-टू-डेट लड़के स्पोर्ट्स में कब्ज़ा कर लेते थे, गांव के छात्र ऐसे ही रह जाते थे. जब मैं इंटरमीडिएट में था तो यहाँ छात्र-संघ अध्यक्ष का चुनाव हुआ करता था. इसके बाद वे जुलूस निकालते थे, फिर मार खाते थे. फिर आन्दोलन होता और ख़त्म हो जाता था. दरअसल हाफइयरली इम्तहानों को पोस्टपोन करने के लिए यह सब हुआ करता था. एक दफा ऐसा हुआ ये कि जब वे पिटाई कर रहे थे तो हम लोग बीच में घुस गए और हमने शहर के लड़कों को इतना मारा कि काफी खून-खून हो गया. फिर हम भागे वहां से कि बड़ी गड़बड़ हो गयी है. तो इस ढंग की दादागिरी करने का बहुत शौक था. दादागिरी के कारण एक छवि बनी कि ये तो दादा हैं, बहुत मारपीट करते हैं…उस ज़माने में यहाँ एक लड़का एसडीएम हुआ करता था नौटियाल करके उसके लड़के ने बहुत गुंडागर्दी कर दी. उसने हमारे मोहल्ले के एक लड़के, महेश जोशी, को पीट दिया. हम करीब 20-25 लड़के उसके घर में चले गए और उसे पकड़कर ले आये, कि भई तूने कैसे ये कर दिया. बड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ. तो इस तरह मेरी एक दादा की इमेज बनी. मैं उस ढंग का गुंडा तो नहीं था लेकिन मारपीट जरूर किया करता था. जैसे कोई लड़की को छेड़ रहा है उसे पकड़ लेना… हम इस तरह कि स्थितियों में पड़ जाते थे.
फिर मैं कॉलेज में दाखिल हो गया. कॉलेज में मेरे राजनीति करने के लिए माहौल बनने लगा. कुछ लड़कों ने तय किया कि इसे अध्यक्ष बनाया जाये. मेरा राजनीति से कोई वास्ता नहीं था लेकिन दोस्तों ने भी इसके लिए दबाव बनाया. फिर जब 2-3 छात्र मेरे खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें चुनाव न लड़ने के लिए समझाया गया. ताराचंद गुररानी कांग्रेस के जाने-माने नेता और नगर पालिका के सदस्य हुआ करते थे, आखिर वह मेरे खिलाफ खड़े हुए. दोनों के बीच जबरदस्त टक्कर थी. इसी दौरान जिला पंचायत में मेरी शिकायत कर दी गयी कि यह नौकरी करते हुए चुनाव लड़ रहा है. खैर, मैंने नौकरी से त्यागपत्र देकर चुनाव लड़ने का फैसला किया. मैंने चुनाव में बिलकुल भी पैसा खर्च नहीं किया. एक तो स्थिति ऐसी थी नहीं कि पैसा खर्च किया जा सके दूसरा हमने यह तय भी किया था कि चुनाव में बिलकुल भी पैसा खर्च नहीं करना है. एक रबड़ की मुहर बनायी गयी उसी का कागजों में ठप्पा लगाकर बांटा गया. उस समय मुझे बहुत अच्छे वोटों से प्रतिनिधित्व मिल गया. उससे मेरी जिंदगी बदल गयी. दादागिरी बंद हो गयी. लोगों ने भी समझाया कि यार! अब तुम जिम्मेदार आदमी हो अब ये सब नहीं होना चाहिए. अब सब छूट गया, यह एक नया बदलाव आया.
यह शायद 1973-74 की बात रही होगी?
यह 74…72-73.
हाईस्कूल आपने 66 में किया
हाँ, 72-73.
मैं फिर वापस जा रहा हूं, आपने कहा पिताजी की 66 में मृत्यु हुई, नौकरी आपने बाद में की. वह जो समय था 1966 से 73 तक का, घर का खर्च कैसे चलाते थे?
एक तो ट्यूशन पढ़ाये मैंने, बहन की नौकरी लग गयी थी. आर्मी में नौकरी करने वाला बड़ा भाई भी पियक्कड़ हो चुका था. लेकिन उससे छोटा भाई, जो आर्मी में ही था, वह मदद किया करता था. तीसरा बड़ा भाई रेलवे में था वह भी कुछ मदद किया करता था. फिर भी स्थितियां पूरी तरह ठीक नहीं थीं. ट्यूशन पढ़ाया, अपना खर्चा मैंने ट्यूशन पढ़ाकर ही चलाया. घर में माँ थीं, एक और बहन थी.
और थोड़ा वापस पीछे जायें, जैसे बचपन में हमारे कुछ प्रिय अड्डे होते हैं, कुछ दुकानें होती हैं जहाँ जाने का बहुत मन करता है. उस मोहल्ले में ऐसा क्या था? जरा बताइए.
उस मोहल्ले में एक खड़क सिंह हुआ करते थे, खड़क सिंह की हलवाई की दुकान थी. तो मेरे साथ का एक लड़का जो मेरे रिलेशन में भी था. उसे बिजीगुंडा कहते थे, बिजीगुंडा. उसने भी नाइंथ से ऊपर नहीं पढ़ा. उस दुकान में हम बैठा करते थे, मेरे ख्याल से प्राइमरी के बाद से ही. एक अड्डा वह था, जहाँ अक्सर बैठा करते थे. खड़क सिंह जलेबी बनाते थे और उनके पास चुटकुलों और अश्लील बातों का भण्डार था, यही उस दुकान में बैठने का आकर्षण था. उनकी बातों में आनंद आता था. दुकान में जलेबी के अलावा कुछ नहीं बनता था, दूध जरूर मिलता था. बैठने की जगह खूब फरांग ठैरी. यहाँ हम लोग बैठकर गप-शप लगाया करते थे. एक तो वह दुकान थी. दूसरा, यहाँ जो सिनेमाहाल था उसके सामने एक चाट की दुकान हुआ करती थी. उस दुकान के पीछे भी बैठने का ठिकाना हुआ करता था, जो लड़की की अलमारी, तख्तों से छिपा रहता था. अक्सर वहां बैठकर मटर-हटर खाया करते, एक वह अड्डा था. एक दुकान और थी यहाँ चौघानपाटा में. जहाँ सीढ़ी ऊपर की ओर जाती हैं वहां पर पद्दा की दुकान थी. पद्दा की दुकान में लकड़ी के ऊपर धुएं में मटर बन्ने वाला ठहरा और बहुत ही स्वादिष्ट. वह धुआं वहां हमेशा बना रहता था, उस धुएं के भीतर जाकर स्वादिष्ट मटर खाने का अलग मजा था. वह हमारी प्रिय दुकान थी. वहां छोले-मटर के अलावा और कुछ नहीं बनता था. हमें कहीं से भी चवन्नी, पचास पैसा या एक रुपया मिला तो पद्दा की दुकान में चले जाते थे. उस दुकान की आज भी बहुत याद आती है.
और आप पिक्चर वगैरह भी देखने जाते होंगे?
मुरलीमनोहर पिक्चर हॉल हुआ करता था लेकिन हमारे पास पिक्चर देखने का पैसा नहीं हुआ करता था. पिक्चर हॉल के पीछे एक गली हुआ करती थी. वहां से एक छेद बनाया हुआ था. उसी छेद से लड़के बारी-बारी पिक्चर देखा करते थे.
उस ज़माने की किसी फिल्म की आपको याद हो.
नागिन फिल्म थी. और दिलीप कुमार की फिल्में थीं…नया दौर फिल्म थी वैजयंती माला के साथ. झनक झनक पायल बाजे थी (वी. शांताराम वाली) वो फिल्में याद आती हैं अभी भी.
मतलब फिल्मों के लिए क्रेज हुआ तब लड़कों में?
हाँ, था, था. फिल्में… अब वो जगह ही ऐसी थी कि मटर की दुकान है, चाट की दुकान है, बड़ा आनंद था. मुरलीमनोहर के ठीक सामने. बल्कि मुझे आज भी याद आती है, बरसात हो रही है, पानी है, हम पत्तल में चाट खा रहे हैं. आज भी उसकी याद आती है.
कोई आपको उस वक़्त का स्कूल का अध्यापक याद हो, अच्छा भी और बुरा भी.
उस जमाने में हम लोग नरसिंहबाड़ी में पढ़ते थे, क्योंकि प्राइमरी स्कूल इस पूरे इलाके का एक ही था. एक ही नरसिंहबाड़ी ठहरा, पूरे मोहल्ले का वही ठहरा, वहां पर हेडमास्टर हमारे बैठे रहने वाले ठहरे और उनके टेबल में घंटी ठहरी, घंटी. वे घंटी बजाते थे और उससे पीरियड का पता चलता था. तो उनसे सबसे ज्यादा डर लगता था, हेडमास्टर से. और वो मारते तो नहीं थे मगर चिंगोटी ऐसी काटते थे. वही सबसे बड़ा डर रहता था कि हेडमास्टर चिंगोटी काट देंगे. लेकिन वो अपना पीरियड हुआ तो घंटी बजाते और हमसे कोई गड़बड़-गलती हुई तो चिंगोटी. प्राइमरी स्कूल की बात बता रहा हूँ मैं. बाकी जो टीचर थे…(बात अधूरी रह जाती है)
प्राइमरी में स्कूल में बैठने की क्या व्यवस्था थी?
स्कूल में चटाई होती थी. और पाठी. स्लेट भी नहीं होती थी. और दवात हुआ करती थी कमेट वाली और रेखा खींचने के लिए धागा होता था.
कलम पहली बार कब इस्तेमाल करी आपने?
कलम तो मेरे ख़याल से 4-5 के बाद ऐसे ही कभी.
होल्डर कब लिया?
हाँ, होल्डर चलता था होल्डर. पेन-हेन का तो कोई सवाल ही नहीं हुआ. और फिर मार खाते थे अगर किसी ने पेन पकड़ी तो. मतलब 4-5 के बाद बस होल्डर है और दवात. 2-3 तक पाठी और कमेट वाली दवात से पढ़ा फिर होल्डर आ गया. रिंगाल से घर में ही कलम बनाते थे. पिताजी तो नहीं बनाते थे, कभी दीदी ने बना दी, भाई ने बना दी.
अच्छा दूसरी एक बात मैं कहना चाहता हूँ, उस जमाने में जब हम छोटे थे समाचार सुनने का शौक हो गया था, थोड़ा-थोड़ा. हमारे मोहल्ले में एक बच्ची नाम का था उसके वहां इतना बड़ा रेडियो था (हाथ से इशारा) तो वे अपने तिमंजिले में फुल वॉल्यूम में उसे बजाते थे. समाचार प्रसारण के वक़्त हम उनके घर के नीचे खड़े हो जाते थे, समाचार सुनने के लिए. एक तो वो मुझे याद है. दूसरा, अब बीबीसी सुनने का भी शौक लग गया. बीबीसी सुनने का भी शौक इसलिए लग गया. जो अभी आप कह रहे थे टीचर, नीलाम्बर जोशी थे; ये प्रिंसिपल थे हमारे अल्मोड़ा इंटर कॉलेज में. वे चीनाखान रहते थे और अल्मोड़ा इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थे. ठीक साढ़े नौ बजे वे स्कूल पहुँच जाते थे. स्कूल पहुँचने के बाद वे सब देखभालकर प्रेयर में सारी घटनाएँ बताते थे. दुनिया में कैसा हुआ, क्या-क्या हुआ. बाद में जब मैं नाइंथ में पहुंचा तो मुझे लगा कि ये इतनी घटनाएँ कैसे बताते हैं, उस वक़्त अखबार यहाँ दूसरे दिन आया करते थे. नवभारत टाइम्स जैसे एक-दो अखबार ही आते थे. अमर उजाला, दैनिक जागरण उस समय थे ही नहीं. हमें लगता था ये कैसे इतना जानते हैं. तो ये सुनते थे बीबीसी. इन्होंने एक बार हमको बताया कि आप बीबीसी सुना करो.
तो नाइंथ से मुझे बीबीसी सुनने का शौक चढ़ा. अब रेडियो हमारे वहां ठहरा नहीं. तो एक काकू हुआ करते थे, उनके बच्चे तो थे नहीं. उनके वहां एक लड़की रहती थी, उनके दोस्त की लड़की. मैं उसे पढ़ाने जाता था. तब उनके वहां मैं बीबीसी सुनता था. उस ज़माने में बीबीसी पौने आठ बजे आता था. तब से मुझे बीबीसी सुनने का शौक हो गया और ऐसा शौक हुआ कि मैं आज तक सुनता हूँ. इस वजह से थोड़ा सा नॉलेज बढ़ती रही. नाइंथ-टैन्थ के बाद दिनमान पढ़ना शुरू कर दिया. तो कई मित्र कहते थे कि तुम ये क्या पढ़ते रहते हो. दिनमान पढ़ने से हुआ यह कि जब मैं छात्रसंघ अध्यक्ष था, उस ज़माने में एक फाइनेंस का पेपर आता था इकोनोमिक्स एमए फाइनल में, तो वो मैंने पढ़ा तो नहीं था क्योंकि उस समय आंदोलनों में रहा. लेकिन फाइनेंस के बारे में मैंने उसमें (दिनमान) पढ़ लिया. बजट कैसा रहा. तो उस वजह से मेरे अच्छे मार्क्स आ गए और मुझे पीएचडी की अनुमति मिल गयी. इस तरह की आदतों से लाभ भी होता है. अब मेरे बचपन के शिक्षक नीलाम्बर जोशी यह जानकारी नहीं देते तो यह आदत बन नहीं पाती. बीए में बसंतबल्लभ पांडे थे वे इंग्लिश के बहुत अच्छे टीचर थे. वे हमें क्लास में पीछे बैठने को लेकर टोकते थे. जब हम आगे बैठते तो वह हमें बताते कि सिर्फ फर्स्ट आने से ही कुछ नहीं होता. दुनिया के बारे में जानना चाहिए. वे बहुत ही ज्ञानी आदमी थे, उनकी मुझे आज भी बहुत याद आती है. उनको भी दुनिया की सारी चीजें मालूम थीं और बताने वाले ठहरे कि ऐसा है… कुछ ऐसे टीचर थे जिन्होंने हमारी काफी मदद करी. एक और अच्छे टीचर थे पीसी पाण्डेय, कामरेड भी थे. हमारे एमए में वे यहाँ आ गए. वे मार्क्सवादी थे, नैनीताल भी रहे. उनके हम शिष्य रहे. डायवर्ट करने में उनका बहुत योगदान है. वे बहुत गरीब परिवार से भी थे, चपरासी के बेटे थे. अभाव में पले-बढ़े थे. उनकी मार्क्सवाद की समझदारी बहुत अच्छी थी. और वे इस पर अडिग थे. तो इस तरह से एक प्रभाव बनता चला गया. (आज यहीं पर समाप्त करते हैं…)
(इसके बाद आगे की बातचीत अगली मुलाकात तक के लिए मुल्तवी कर दी गयी. मुल्तवी की गयी यह बातचीत शमशेर सिंह बिष्ट की असमय मृत्यु की वजह से अधूरी ही रह गयी. इस फौलादी इरादों वाले व्यक्तित्व के जीवन कुछ और पन्ने यहीं पर स्थगित हैं)
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4 Comments
suraj p. singh
शानदार साक्षात्कार!
विकास नैनवाल
आखिर में पढ़कर दुःख हुआ। काफी कुछ रह गया। विनम्र श्रद्धांजलि।
सुशील कुमार जोशी
इस साक्षात्कार को पूरा होना चाहिये था। डा0 शमशेर बिष्ट जैसी शख्सियत हमारे आस पास आज अंगुलियों में गिनी जा सकती हैं। वे मेरे लिये हमेशा एक प्रेरणा श्रोत रहे। उनके चले जाने से एक निर्वात तो पैदा हो ही चुका है। उनकी कमी खलेगी।
सुरेन्द्र अधिकारी
वास्तव में संघर्ष शील व जमीनी जज्बातों से ताल्लुक रखने वाले थे, शमशेर बिष्ट जी व