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बात बहुत छोटी-सी है, नाजुक और लचीली, पर मौका पाते ही सिर तान लेती है. कोई काम शुरू करने, सोने या पल-भर को आराम से पहले लगता है, कुछ देर इस प्यारी बात के साथ रहना कितना अच्छा है! वैसे मुझे काम करना, करते रहना और करते-करते उसी में खो जाना प्रिय है. इसी की बात भी मैं लोगों से करता हूं और दूसरों से यही चाहता भी हूं, पर यह सब तभी होता है, जब मेरे चारों ओर लोग होते हैं. ऐसा नहीं कि लोगों में मेरे बीवी-बच्चे शामिल नहीं हैं. कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी भीड़ में खड़ा हूं और असह्य ध्वनियां मेरे कानों के परदे को छेदने लगती हैं. मैं भाग कर अपने कमरे में घुस जाना चाहता हूं, पर उसकी बड़ी-बड़ी, आंसुओं में डूबी हुई आंखें. ‘मैं क्या करूं इनका? देखते हो, अब मुन्नी भी दूध के लिए जिद करती है!’
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
ऐसा नहीं कि बात मेरे मन में गहरे तक नहीं उतरती, मैं तो मुन्नी को स्कूल जाने के लिए एक छोटी मोटर खरीदना चाहता हूं. हल्के, गुलाबी रंग के फ्रॉक में लड़खड़ाती, दौड़ती मुन्नी को देखने की मेरी कैसी विचित्र लालसा है, जो कभी पूरी होती ही नहीं दिखाई देती!
सुबह-सुबह बिस्तर से उठते ही वह जोर-जोर से चीखने लगती है, जब उसकी मांड़े से सूजी आंखें और भी सूजी होती हैं. कई बार मन में डाक्टर की बात उठती है, डर लगता है, कहीं मुन्नी की मां की पतली, लंबी, किश्ती-सी आंखों का पुराना छेद फिर न खुल जाए और सवेरे-सवेरे डूबने-औराने की मर्मान्तक पीड़ा में मुझे लिखना-पढ़ना छोड़ कर सड़क का चक्कर काटना पड़े! मैं चुपचाप एक निश्चय करके कमरे में चला जाता हूं. पहले डाक्टर का इंतजाम कर के ही उससे चर्चा करूंगा. पर फिर वही नन्ही-सी बात!. तुम्हें खोजने लगता हूं, तुम, जो इस कड़ी जमीन की चुभन से पल-भर को उठा कर मुझे एक सुनहले, झिलमिलाते लोक में खींच ले जाती हो. तुम्हारे सीने के बीच, मुलायम, उजले देह-भाग में मुंह डाल कर पल-भर को सांस लेना कितना अच्छा लगता है मुझे! शायद तुम्हें याद होगा. बात मकड़ी के जाले की तरह तनने लगती है, लेकिन घंटों और घंटों आंखें बंद रखने पर भी शिकार कोई नहीं फंसता और मैं बीवियों और मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूं!. आखिर इन दोनों को हरदम शिकायतें क्यों रहती हैं. क्यों इन दोनों के सीने में खारे पानी का इतना विशाल समुद्र फफाया रहता है, मृत्यु की आखिरी कराह की तरह इस समुद्र की लहरें चीख़ती हैं, पर किसी खोखले श्राप की तरह मिथ्या बन कर बिखर जाती हैं.
मैं इन विनाशकारी लहरों को दुनिया को निगल जाते देखने के लिए व्याकुल हो उठता हूं, पर हल्की-सी मुस्कुराहट या वह भी नहीं तो बस मुलायम कलाइयों की पकड़ और उस समय कुछ भी और न सुनने की बात. जाने भी दो!. कमर के नीचे नंगी, खुली. मैं इस असामयिक मृत्यु से बचना चाहता हूं, पर कोई चारा नहीं. मुन्नी की मां के जीने का यही सहारा है और मेरे पास उन मृत्यु की घाटियों के सूनेपन को दूर करने का यही उपाय. वह विश्वास नहीं करती, पर मैं सच कहता हूं कि मुझे इतना बहुत अच्छा लगता है! इसलिए मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियां और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी-सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए!
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
यह प्रश्न उसके साथ नहीं उठते क्या आखिर? क्या उसे बच्चे नहीं हो सकते या उसे दूध पीने वाले बच्चे नहीं होंगे? धीरे-धीरे यह ‘क्यों धुंधलाता है; पानी, सिर्फ़ एक बूंद; स्याही, जाने कैसी फैल कर एक झील, भूरी आंखों की तरह, वह भी सतही, उथली. अछूता, कच्चा, नुकीला फूल, आसमान में उड़ने वाली लरजती पतंग की लंबी पूंछ. किसी बंगले के फटे, पुराने पर्दे. मुल्क में बनी और भूख. वे मित्र जिन्हें नौकरी के लिए पत्र लिखे हैं, जो चाहें तो मैं भी उन्हीं की तरह का लगूं, बेएतबार और ऊंचे दर्जे का नौकरी देने वाला मुलाज़िम. लेकिन वह नौकरी से चढ़ती है, – तुम नौकरी करोगे? फिर तो मोटर, बंगले और सुख की अनेक कोटियां हैं. मेरे लिए जगह कहां होगी? मैं ग़रीब बाप की बेटी हूं.
अजीब बात है, तुम भूख में जी सकती हो, लेकिन वह तो कहती है कि उसके सीने में एक भयंकर ज्वालामुखी दबा पड़ा है, जो कभी भी नहीं भड़केगा, मुन्नी की माँ यह भी जानती है. पर क्यों नहीं भड़केगा, क्यों उसके लावे से मेरा घर आंगन नहीं पट जाएगा? इसलिए न कि मैं लिखूंगा और लिखने से पैसे मिलेंगे और पैसे उसे ठंडा करते रहेंगे. वह यही तो कहती है कि पैसा दिल को ठंडा और शरीर को गर्म रखने की अद्भुत दवा है- ग़रीब दुनिया का सबसे अच्छा इंसान है. ग़रीब लड़की की मोहब्बत दुनिया की सबसे पवित्र निधि!- कभी-कभी वह स्कूल टीचर की तरह बोलती है. आखिर यह सब और है ही क्या?
मुन्नी जब जन्मी थी, तो उसके लिए मैंने एक झूला ख़रीदा था. बहुत सारे कपड़े बने थे और उसे दूध में ग्लूकोज और शहद दी जाती थी. फ्रेंच सीखेगी मेरी बेटी, मैं चाहता हूं, वह पेंटर बने. सिर्फ तीस रूपये तो लगते हैं उसके दूध के. तीस में ऐसा क्या रक्खा है? साल ही भर बाद रुनकू आया तो कितना उत्साह था! कोई बात नहीं, दोनों के लिए एक गाड़ी होगी, दोनों कान्वेंट जाएंगे. लेकिन यह क्या फिज़ूल की बातें हैं, बेओर-छोर की. मैं झटके से उठ बैठता हूं और लिखने की कॉपी के मसौदे कई बार उलट-पुलट कर देखने लगता हूं.
कई अच्छी चीजें लिखे बग़ैर पड़ी रह गयी हैं. पर इसी समय उन्हें उठाया तो नहीं जा सकता. मामूली स्तर पर बात बनाने से मुझे चिढ़ है, लेकिन सहसा मुझे मकड़ी के नन्हें तार की स्मृति फिर हो आती है और मैं बिस्तर छोड़ कर उठ खड़ा होता हूं, कहीं जाला फिर न तनने लगे! मुन्नी की माँ ऐसे ही समय आ जाती है, “कहीं बाहर जा रहे हो क्या?” एक तेज़ भनक दिमाग़ में बज उठती है, पर मैं उस पर तुरंत हाथ रख देता हूं. कोई कड़वी चीज निगलता हूं, “हां, कोई काम है क्या?”
“नहीं तो, ऐसे ही पूछ लिया. अभी तो धूप बहुत तेज़ है, कुछ रुक जाते!”
और वह कह ही क्या सकती है? थकी भी तो है, बेहद. रुनकू ने सारी दोपहरी परेशान किया है. चौका-बरतन, सामान की संभाल-सहेज, कपड़ों की सफ़ाई; अभी तो उसे पिला कर सुलाया है. ब्लाउज़ के बटन खुले ही हैं.
“मुन्नी भी सो रही है क्या?”
“नहीं, सब जग रहे हैं.” वह उगती हुई हंसी को दबाती है, चेहरे पर खून की पतली-सी छलक होती है और फिर क्षण ही भर में सूख कर धीरे-धीरे गाढ़ी होने लगती है. वह दरवाज़ा छोड़ कर कमरे में आती है, “आज मुन्नी की आंखों में बहुत दर्द है. चेहरा सुर्ख़ हो गया है. अभी-अभी तो सिर में तेल डाल कर बहुत देर तक सहलाती रही हूं, तब जा कर सोई है.”
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
वह चारपाई पर बैठ जाती है. मैं पास आ कर कहता हूं, ब्लाउज़ के बटन तो ठीक कर लो, तुम्हें अब ठीक से बाडी पहनना चाहिए.”
वह बटन बंद करते-करते बोलने लगती है, “अब इसके सुख की कल्पना मेरे पास नहीं है, न ही तुम्हारे मन में है और अगर है, तो नहीं होनी चाहिए.”
उसका बदन गर्म होने लगता है. मेरे सीने में एक बंद ज्वालामुखी है, जो कभी नहीं भड़केगा, यह मैं जानती हूं. ऐसी ही बातचीत के धरातल पर वह ज्वालामुखी तक पहुंचती है. और मुझे ऐसी ही मंत्र-सी बातचीत से डर लगता है. मैं ईंधन नहीं डालता और वह उठ खड़ी होती है. कहीं जैसे कोई दर्द रेंग गया हो. मैं चाहता हूं, जाते-जाते उससे कुछ कह कर जाऊं, पर ऐसे समय कुछ कहने का मतलब है, कुछ सुनने की संभावना.
शायद जिस तरह उसे मालूम है कि मैं कहां जाता हूं, उसी तरह मुझे भी मालूम है कि मैं कहीं नहीं जा रहा हूं, पर जा रहा हूं, यह ठीक है.
मेरे घर के सामने एक चौड़ा नाला है और उसके परे कटीली झाड़ी का एक बड़ा सा गुंबद. मैंने कभी इसमें एक खरगोश के जोड़े को घुसते देखा था. वैसे मैं पल भर की पिछली बात को भूल जाता हूं, पर उसे आज भी नहीं भूला. घर से निकलता हूं, तो पल-भर रुक कर उधर जरूर देख लेता हूं. स्कूल से लड़कियों को ढोने वाली गाड़ियां बोलती हैं. तीर की तरह सड़क को चीरती हुई चिड़िया उड़ जाती है, पर वह खरगोश का जोड़ा!
मुन्नी अब तक उठ कर मुझे जरूर ढूंढ़ गई होगी और फिर अपने कमरे में जा कर लौटी होगी. मेरी मेज़ की गर्द-भरी सतह पर अपने हाथ की थाप बनाने के लिए या तो कुर्सी पर चढ़ गई होगी या लुढ़क कर गिरी होगी तो उसकी मां कुर्सी को दो चपत मार कर उसे चुप कराने के बाद समझा रही होगी कि आखिर उसे इस मैच पर रोज़ अपने हाथों के निशान छोड़ने से मिलता क्या है!
“पापा छे कैछे कहूँगी कि मैं तुम्हें खोजती थी?” वह रोज़ कहती है और मैं रोज़ झूठला देता हूं. लेकिन वह मानती नहीं, मेरी उंगली पकड़ कर मेज़ के पास तक खींच ले जाती है. मेरी आंखों में धुंधलके की एक परत छा जाती है.
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
उसकी मां कहती है, “खिड़की कितनी ही बंद रखो, गर्द आ ही कर मानती है.” और मैं… देखता हूं कि मुन्नी की हथेली की थाप बढ़ती ही जा रही है. कभी-कभी इन हाथों की रेखाओं में मनुष्यता का पूरा भविष्य पढ़ा गया है. और कभी आग की बेतरतीब लहरें किसी अनहोनी से वस्तु सत्य के वीरान अंधेरे से दौड़ दौड़ कर मेरे सीने से सटी चली आती हैं. चौकड़ी भरते हिरणों की लंबी कतारें और पीछे लोलुप, अंधा दुष्यंत.
मैं खुद अपने आगे खड़ा हूं, मान्यताओं की सलीब पर टंगा हुआ, लहूलुहान! पत्थर का एक बहुत बड़ा ढेर है और लोग आंखें मूंद कर पत्थर मारते हैं. लोग फूल चढ़ा रहे हैं मान्यताओं पर. आदमी को बार-बार की नोची-छिछड़ी को दांतों से नोच-नोच कर फेंक रहे हैं. लोग नंगी औरत के कोमल शरीर को खुरदुरे जूट के रस्सों से जकड़ कर बांध रहे हैं. सिर्फ़ एक लाचारी का आरोप. आदमी नहीं, टूटा हुआ, पुराना खंडहर, आखिर क्यों? फिर मैं शिकायतों के बारे में सोचता हूं, पर बीवियों और मजदूरों की नहीं, अपनी ही. तुम रुक कर कुछ पूछ नहीं सकती थी, तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि मैं इतनी तेज धूप में कितनी दूर चल कर आया हूं.
तुम्हें पता है, हम कितने दिन पर एक दूसरे को देख रहे हैं. शायद तुम इसीलिए नहीं रुक सकी कि तुम्हारे साथ तुम्हारी सखी थी और उस पर तुम यह जाहिर होने देना नहीं चाहती थी कि तुम मुझे जानती हो! गोल-गोल चक्कर खा कर हवा ऊपर को उड़ गई है और सड़क के किनारे खड़े मौलश्री के पेड़ की तमाम सूखी पत्तियों के पर लग गए हैं. इनके साथ उस कोने की धूल भी है, जहां पार्क में बच्चों के खेलने ने घास को उड़ा दिया है और इस लंबे यूकेलिप्टस की छरहरी शाखें अब भी थरथरा रही हैं.
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
मैं धीरे-धीरे चल रहा हूं. चारों ओर कब्रिस्तान है. सड़क के नीचे, और ऊपर की हवा तक में बातों के टूटे-फूटे अस्थि-पंजर उभर आए हैं. मैं सिर्फ़ चुभन, टीस और प्रताड़ना को चुन-चुन कर अपने तरकश में भरता जाता हूं. एक विकलांग, विक्षिप्त योद्धा की तरह मैं पसीने और गर्द से लथपथ हो रहा हूं. हवा एकदम चुपचाप खड़ी है, मौलसिरी की पत्तियां दम साधे हैं, यूकेलिप्टस की लम्बी शाखें मर गई हैं और बच्चों के पार्क की बेघास की उजली ज़मीन घिसी हुई, निर्जीव हड्डी की तरह चमक रही है. मैं चाहता हूं, हवा फिर गोल-गोल चक्कर खा कर ऊपर उठे और फिर वही साल-भर पुराना सब-कुछ आज घट जाये, मौलसिरी की पत्तियों, यूकेलिप्टस की डालों, पार्क की जमीन और मेरे साथ.
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
मैं थक कर टूक-टूक हो रहा हूं. पल-भर कहीं बैठना चाहता हूं और कुछ देर सब बाहर का ही देखना चाहता हूं, जैसे कोई मकान का दरवाज़ा लगा कर बरामदे में आ जाए. लेकिन अब बहुत देर हो गई है, लौटने में काफ़ी समय लगेगा. लगता है, वह घर से निकल नहीं पायी. क्यों नहीं निकल पायी? उसे निकलना चाहिए था. उसे लोहे की जूतियां पहन कर कांटो को कुचलते हुए आना चाहिए था, लेकिन वह कहती है, “मैं खून से लथपथ होना चाहती हूं, मैं उन सारे दागों को अपने शरीर पर मुखर रखना चाहती हूं, मैं सारे घावों की मवाद और गंदगी को लोगों को दिखाना चाहती हूं! देखो, सत्य यह है, तुम्हारी सच्चाइयों की तस्वीर यह है! तुमने घर को इसलिए स्वर्ग बना रखा है कि तुम्हारी बीवी तुम्हारी कमाई खाती है और एक खरीदे हुए दास से भी बदतर ढंग से तुम्हारी सेवा करती है. तुम्हें अगर यह पता लग जाये कि वह तुम्हें नहीं किसी और को चाहती है, तो तुम हवा में नजर आते हो, क्योंकि तुम्हें अपने से ज्यादा अपने पैसों पर भरोसा है. यही एक पुरानी टकौरी है तुम्हारे पास” एक नन्हा सा ऑक्सीजन बैलून हवा में उड़ता चला जाता है, उसमें तुम बैठी हो. गरदन दर्द करने लगती है देखते-देखते, लेकिन तुम किसी मायाविनी की तरह पीछे से हंसती हुई गोद में बैठ जाती हो, “मुझे प्यार करो, मेरे जाने का समय हो गया, मैं चाहती हूं, इसकी याद बनी रह जाय!” पर मुन्नी का बैलून तो मेरे कमरे की निचली छत ही में अटका रह जाता है. वह पैर पटकने लगती है, “पापा! उतालो इसे! देखो ये छत चुला लही है मेला गुब्बाला, तुम्हीं ने छिखाया है!”
“मैं कैसे पहुंचूं इतनी ऊंचाई तक?”
“अच्छा, मुझे कंधे पल उठाओ!”
“फिर भी तो नहीं पहुंचोगी.”
“कुल्छी पल खले हो जाओ!”
उसकी मां बिगड़ती हुई आती है, “यह क्या तमाशा है! अभी तो आंख ही गयी है, अब हाथ-पाँव भी तोड़ कर बैठेगी?”
मैं चुपचाप खड़ा हूं और वह मुन्नी के उतरने का इंतजार करती है. लेकिन यह तो ऑक्सीजन ही निकल गयी गुब्बारे से! “मुन्नी! मुन्नी!”
“अब जाने भी दो! और हां, कल रात कुछ लिख रहे थे, वे काग़ज़ कहां गये?”
मुन्नी की दवा और दूध… चुपके से मन में कुछ काँपता है- मैं ऐसी ही नन्हीं-नन्हीं बातों को ले कर परेशान होता हूं.
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
उसका स्वर कानों में बज उठता है, “आख़िर इसमें क्या ऐसा रखा है, जो तुम्हें विचलित कर देता है? मैं रुकी नहीं, कुछ कहा नहीं, तो क्या ऐसा आसमान फट पड़ा? मैं पूछती हूं कि मुन्नी के दूध और दवाइयों का क्या हुआ? तुम कुछ लिख कर मुझे देने वाले थे न?”
और इतने ही समय में यह कुछ धीमी-सी हो गयी है. मैं चुप जो रह गया.
“क्या सोच रहे हो? मैंने तो समझा कोई कहानी लिख रहे थे. आज किसी को दे कर कुछ रुपए लाते तो अच्छा था. कल दो रूपये का सामान मंगाया था, आज-भर और चलेगा.”
इस नन्हे-से अवसर से संभल गया हूं, इसलिए बात बनने में देर नहीं लगती, “वह तो पत्र था. तुम्हें गोदावरी ने लिखा था न कि किताबें भिजवा दो, वही प्रकाशक को लिखा कि उसे भेज दें… अरे रुको, देखो, वह क्या है?”
“कहां?”
“रुको तो! अरे, यह तो वही तिल है!”
अंगुलियां काँप जाती हैं. चेहरे पर चुनचुनाहट की तरह कुछ बहुत नन्हा-नन्हा उग आता है, एक अजीब-सी खुशी की लहर-
“हटो भी, खिड़की खुली है!”
… मेरे सीने में एक ज्वालामुखी है, जो कभी नहीं भड़केगा, यह मैं जानती हूं.
…मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियां और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज़ इतनी सी बात के लिए या मुन्नी की आंखों के माड़े की दवा या उसके दूध के लिए!
(Dudh aur Dawa Story by Markandeya)
नई कहानी आन्दोलन के प्रवर्तकों में से एक प्रमुख कहानीकार मार्कण्डेय की चर्चित कहानी ‘दूध और दवा’ पहली बार ब्लॉग से साभार ली गयी है.
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