लंबी सधी हुयी ऊँगलियों के बीच चाईनीज इंक पेन से सादे सफेद पर्चे में मरीज को समझता और समझाता एक चेहरा. लंबी सी नाक और बालों में उतना ही तेल लगा हुआ, जिससे कि वो अपनी जगह में बने रहें. लम्बे खिचे शांत से दिखने वाले चेहरे में उतने ही संयमित भाव जितने से मरीज को समझ आ जाये कि उसे हुआ क्या है और उसे अब करना क्या है?
(Dr. Pathak in Pithoragarh)
पिथौरागढ़ में रहते हुये, बीमार पड़ जाने पर हमारे पास दो ही सहारे होते थे – एक डा. खर्कवाल जो अभी भी समाज को अपनी सेवाएं दे रहे हैं दूसरे डा. नवीन चन्द्र पाठक जो अब हमारे साथ नहीं हैं. तबियत बिगड़ने पर स्कूल से छुट्टी तो जरूर मिल जाती थी पर खाने और खेलने को लेकर जो परहेज करना पड़ता था, उससे बचने के लिए ठीक होना जरूरी होता था. हमको ठीक करने की दवा होती थी, इनमें से किसी एक डॉक्टर के पास.
शहर के ये दो डाक्टर अपने में वर्षों का अनुभव समेटे हुये थे. डा. पाठक के बारे में एक बात मशहूर थी कि उनकी दवाई हल्की होती है. वह अपने मरीजों को आधुनिक एलोपैथी और होम्योपैथी दवा मिला कर देते हैं जिससे मरीज जल्दी ठीक हो जाते हैं और इसका कोई पार्श्व प्रभाव भी नहीं पड़ता. यह बात मैंने इतनी बार सुनी थी कि मेरे जहन में घर कर गयी और शायद इसी कारण जब कभी मुझे किसी और डॉक्टर के पास जाना पड़ता तो मेरी तबियत कभी ठीक नहीं हो पाती थी. इसे सायकोसोमेटिक (मनोदैहिक) प्रभाव कहते हैं .
पाठक जी का अपने ठंडे हाथों से छूना, अपनी इंक पेन से छोटे-छोटे चित्र बना कर बीमारी को समझाना, सफेद पूडियाओं में मीठा पाऊडर और गोलियां दे देना ही काफी था, किसी भी बिमारी को भगाने के लिए. उनके क्लिनिक में स्थानीय लोगों के साथ साथ नेपालियों की भी भीड़ लगी रहती थी शायद इसलिए भी कि अक्सर जरूरतमंदों को सैम्पल के लिए आई दवायें मुफ्त में बांट दी जाती.
डॉ. पाठक के यहां इस बात का ख़ास ख्याल रखा जाता कि मरीज कितनी दूर से आया है और वह दोबारा आ पायेगा या नहीं. वो बहुत धीमी आवाज में पर्ची पर लिखे मरीज का नंबर पुकारते. अपने नंबर के समय अगर कोई मरीज गैरहाजिर रहे और बाद में अपनी पर्ची ऊपर सरकाने की कोशिश करे तो उनकी तिरछी भौंहों के भाव यह समझाने के लिए काफी हुआ करते थे कि और लोग बेवक़ूफ़ नहीं हैं जो सुबह से रुके हुए हैं, अपने नंबर पर क्यों नहीं आये? अगर कोई बच्चा रोने लगता तो उसकी माँ की शामत समझिये लेकिन जब उस बच्चे को देखने का नंबर आता तो बच्चे से ज्यादा प्यारा चेहरा डा. पाठक का बन जाता.
(Dr. Pathak in Pithoragarh)
यह बात लिखते-लिखते मुझे हँसी सी आ रही है कि कैसे जब कोई उनको डाक्टरी सिखाने की कोशिश करता या बार-बार किसी और डाक्टर के हिसाब से बात करता तो वह झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाते और झिड़ककर बोलते– तो, वहीं जाओ, यहां क्यों आये हो? फिर कुछ मिनटों का विराम और फिर से शांत-सहज सी आवाज में मरीज को समझाते और उसकी मदद करते. ऐसे थे हमारे डा. साहब.
सिमलगैर में हिमालया बेकरी के ठीक नीचे जहाँ उनका पुराना क्लिनिक होता था, उसे वह वहां से हटा चिम्सियानौले के पास अपने घर के बगल में ले आये. अखरोट के पेड़ की छाँव के तले उनका नया क्लिनिक दिखने में नारायण आश्रम के वास्तु की नकल सा दिखता है. डॉ. पाठक को बोनसाई बनाने का बहुत शौक था और स्थानीय पौधों की शायद ही कोई ऐसी प्रजाति रही हो जो उन्होंने उस अहाते में न लगायी हो. साथ ही दो कुत्ते, जिनमें से एक के अगले पाँव में कुछ दिक्कत थी पर उसे कभी सड़क पर आवारा नहीं छोड़ा गया. इस नयी जगह में नम्बर लगाने के लिए फोन की सुविधा तो जरूर जुड़ गयी लेकिन मरीज यहाँ भी कम नहीं हुए. ऊपर से पिछले दिन वालों का नंबर पहले आता था. शहर के लोगों का उन पर इस कदर विश्वास था कि कई बार नंबर न आने के बावजूद लोग अगले दिन का इन्तजार करने को तैयार रहते थे.
क्लिनिक के बाद, शाम के समय ठीक एड़ी तक पहुँचती कम मोहरी की पैंट पहने डॉ. पाठक अक्सर ही चंडाक की सड़कों में चहलकदमी करते हुये दिखायी पड़ जाते थे. अपने काम के प्रति इतनी शिद्दत और लोगों के प्रति इतना सेवाभाव रखने के बावजूद वह एक साधारण व्यक्ति बने रहे. वह एक डाक्टर जरूर थे पर उन्हें उम्दा किस्म के शास्त्रीय संगीत के साथ खूब सिगरेट पीना खूब भाता था. सिगरेट पीने की अपनी व्यक्तिगत आदत के साथ वह अति सामान्य और आनंदित थे, जिसे उन्होंने एक दिन एक झटके में छोड़ भी दिया हालांकि 50 की उम्र के बाद रह-रह कर उनकी तबीयत खराब होने लगी, जिसका असर पूरे शहर पर पड़ा और फिर एक दिन वह अपनी प्यारी सोर घाटी और यहाँ के लोगों को छोड़ चले गए. उन्हें बच्चों की शिक्षा की फ़िक्र थी इसी के चलते उन्होंने शहर में अपनी पत्नी के संग मिलकर सोर वैली पब्लिक स्कूल की भी शुरुवात की, जो आज भी अपनी सेवाएं दे रहा है.
आज डॉ. पाठक हमारे साथ नहीं हैं पर जब तक वह पिथौरागढ़ के साथ थे उन्होंने बिना किसी शोरशराबे के शहर के लोगों की सेवा की. डा. खर्कवाल हों या डा. पाठक, दोनों ने ही जिस तरह से पिथौरागढ़ के समाज की सेवा की है वह कई सरकारी और वर्ल्ड बैंक से प्रायोजित करोड़ों के प्रोजेक्ट भी नहीं कर सकते. डा. खर्कवाल ने अब जा कर पर्ची लगाने के लिए एक छोटी सी फीस लेनी शुरू की है. आज के समय में उनके काम करने के तरीके को देख लगता है जैसे अपने सहकर्मी और दोस्त के बचे हुए काम को पूरा कर रहे हों. पता नहीं, किस चीज ने इन दोनों को इस किस्म का इंसान और ऐसा डाक्टर बनाया होगा. अगर यह बात पता चल जाये तो उसे हर तरह के पाठ्यक्रम का प्रथम और अन्तिम अध्याय बनाया जाना चाहिए.
(Dr. Pathak in Pithoragarh)
पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं. वर्तमान में मनु फ्रीलान्स कंसलटेंट – कन्सेर्वेसन एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम्स, स्पीकर कम मेंटर के रूप में विश्व की के विभिन्न पर्यावरण संस्थाओं से जुड़े हैं.
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2 Comments
Richa pant
डॉ पाठक के विषय में इतना बारीकी से किया गया चित्रण बेहद सटीक और nostalgic feel कराने वाला है। उनका चाइनीज पेन से लिखना सचमुच अद्भुत था। उनको देख हमने भी चाइनीज पेन से लिखना शुरू किया।
एक बात जो शायद इस लेख में रह गई, वो उनके क्लिनिक में पर्ची लगाने और दावा देने का कार्य करने वाले मोहन भैय्या और शायद दिनेश भैय्या थे। वो दोनो इस क्लिनिक के लिए बेहद अहम थे।।।। और विडंबना भी देखिए, डॉ साहब से पहले ही ये दोनो भी संसार छोड़ गए।
मो ० नाज़िम अंसारी
1990 में रीढ़ की समस्या शुरू हुई ,पिथौरागढ़ के उस समय के हड्डीरोग विशेषज्ञ ने जो दवाइयां लिखी उनमें नींद की दवा मुख्य थी। उद्देश्य था जब मरीज सो जाएगा तो दर्द महसूस नहीं करेगा। अल्मोड़ा डॉक्टर पांडे ने कहा कमर कमज़ोर हो गई है नंदादेवी मार्ग में कपड़े वाले कर्नाटक जी हैं वह दातुली (दराँती ) की मूठ से झाड़ कर ठीक देंगे। झड़वाया कोई फ़ायदा नहीं हुआ। रानीखेत एस एन श्रीवास्तव को दिखाया जिन्होंने मेरे x-ray को अपने अन्य साथी डाक्टरों की रिसर्च का सामान बनाया। बेस अस्पताल अल्मोड़ा होते हुए बरेली डाक्टरों को दिखाया सभी ने तुरंत ऑपरेशन कराने को कहा। नैनीताल के डा जी पी साह ने दिल्ली के डॉक्टर के लिए चिट्ठी लिख दी मरीज भेज रहा हूँ ऑपरेशन के लिए ठीक-ठीक पैसे लेना। ये सब घटित हुआ 1990 से 1994 के बीच तब एक दिन पिथौरागढ़ वाली मौसी ने कहा नवीन को एक बार दिखा ले मैं पहले नहीं समझा बाद में पता चला कि वे डॉक्टर पाठक को नवीन कहती हैं जिन्हे मैं पहले से जानता था और अपने बच्चों को उन्हें ही दिखता था। दर्जन भर डाक्टरों द्वारा ग़ुमराह किए जाने के बाद 1995 में डॉक्टर पाठक साहब को दिखाया उन्होंने अपने पर्चे में योग के पांच आसन लिख दिए -पवनमुक्तासन,भुजंगासन,शलभासन,अर्द्धमर्तस्येन्द्र आसन और धनुरासन। मैं ने पूछा कि इन आसनों को कैसे सीख पाऊंगा तो उन्होंने बहुत सस्ता और सरल उपाय बताया –योग की दस-पंद्रह रूपये में कोई भी किताब ख़रीद लो और प्रैक्टिस करो-उनकी इस सलाह से तब से आज तक जीवित हूँ। मैं ने फिर पूछा “सर,क्या लखनऊ दिखा लाऊँ तो नाराज़ होते हुए बोले मुझसे क्यों पूछ रहे हो ? आज जब उनके बारे यह पोस्ट देखी तो अपनी आप-बीती और मुझ पर उनके इस अहसान के बारे में लिखने का अवसर मिला। वे एक आदर्श और सच्चे चिकित्सक थे allopathy के side effects से परिचित थे अपने मरीज को किसी भी चिकित्सा प्रणाली से ठीक करना ही उनका ध्येय था। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। ऐसी महान हस्ती को सादर विनम्र श्रद्धांजलि।