गाँव में जाती है देव डोली. यह वर्षों से चली आ रही पहाड़ की प्राचीन परंपरा है. इसके जन-कल्याण से सम्बन्धित अधिमान इसे आदर्श लोक परंपरा का रूप देते हैं. गाँव के हर सदस्य, हर मौ, हर द्वार, हर परिवार की कुशल जाँचती है यह डोली. कहाँ किसे क्या आपदा आ पड़ी? कौन किस विपदा में है? संकट -कष्ट कैसे कटे? कैसे परमेश्वर की कृपा का अनुभव हो? इन सबका आभास कराती यह परिपाटी देव डोली के माध्यम से अपने इष्ट से जुड़ती है. उसकी चुम्बकीय शक्ति के आकर्षण में बांधती है.
(Divara Yatra in Uttarakhand)
देव डोली आशल कुशल पूछेगी. हमारे द्वारे हमारी सुध लेगी. सारा गाँव साथ होगा. इस समूचे आयोजन में देव डोली गाँव के हर घर हर आंगन की परिक्रमा करेगी. उनका इष्ट ही उनका रक्षक है जैसी बात गाँव के हर मवासे, आम जन के मन में है. देवडोली चली आ रही है रीत के साथ अपनी सारी तैयारी के साथ. इसके आगमन से चेहरों में खुशी छा जाती है और आँखों में संतोष का भाव तिरने लगता है. अब देवता से कुछ पा लेने की बारी आई है.
कपाल पर पिठ्या अक्षत लगा है. सिर पर कानों के ऊपर फूलों की पंखुड़ियाँ दिखतीं हैं. हाथ नतमस्तक हो डोली की प्रतीक्षा में जुड़े दिखते हैं और आँखें टिकी हैं पूरे श्रृंगार किए ईष्ट पर जिसके पास उनके प्रश्नों का उत्तर देने की सामर्थ्य है. शक्ति है. रहस्य है. गाँव के बड़े बुजुर्ग समझाते है कि कैसे देवता को प्रतिष्ठित करती इस डोली के चलने से, इसकी गति से प्रश्न विचार होता है. जवाब मिलता है. पूछ होती है.
उत्तराखंड के पहाड़ में घर, कुड़ी, मकान या आवास को डेरा भी कहा जाता है. इसी डेरा या “डयरा” शब्द से आया ‘दयूरा’, ‘देवरा’, ‘दयवारा’ या ‘दिवारा’. घर-घर चली देवता की डोली को देवता की “दिवारा यात्रा” कहा जाता है. दिवारा शब्द का अर्थ ‘घर- घर’ घूमने से है. अतः दिवारा यात्रा वह है जिसमें देवता की डोली गाँव के घर-घर में घूमती है.
जब अनेक पर्व त्योहारों आयोजनों के अवसर पर विभिन्न देवी देवताओं की डोली निकाली जाती है तो ऐसी शोभा यात्रा को दिवारा नहीं कहते. इसी प्रकार जब कोई देव डोली किसी धार्मिक स्थल या तीर्थ स्थान को जाती है तब यह भी दिवारा नहीं है यह तो तीर्थ यात्रा कही जाएगी. अतः दिवारा शब्द से आशय घर घर घूमने से है. स्पष्ट है कि देव यात्रा में दिवारा का अभिप्राय उस स्थिति से है जब देवता की डोली जिसके आसन में देवता के प्रतीक परंपरानुसार प्रतिष्ठित हों घर घर डोले अर्थात भ्रमण करे.
पहाड़ में ऐसी अनेक परंपराऐं जीवित और सुरक्षित हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हुए न केवल लोक के ज्ञान का संकेत देतीं हैं बल्कि इसके साथ ही अपने अतीत की फाम भी रखे हुए हैं. पहाड़ की अनेक पौराणिक गाथाएं हर ग्रामवासी के मन में हैं जो उसने अपने घर के बुजुर्ग से विरासत की तरह पायीं. भले ही उनकी शुरुवात दादी, आमा, माँ, ईजा द्वारा सुनाई गई काथ या कहानी के रूप में हुईं हों या बुबू-बाबू, कका-ताऊ, भैजी-दाज्यू के कंधे, काने में बैठ हुई हों. किसी कौतुक, पर्व त्यौहार मेले ठेले के दर्शन पर कस के हाथ पकड़, अचांचक कुछ देख डर-सहम बचपन से पलती बढ़तीं हैं वह यादें जिनमें सबसे अधिक कौतूहल होता है जात और दिवारा यात्रा में.
अपने नान्तिनों को बच्चों को देवता की ये सब चीजें बताई जातीं दिखाई जातीं. साथ-साथ वह अबूझा रहस्य भी फैलता है जिसमें पौराणिक मिथक भी हैं और तेतींस कोटि देवताओं के आख्यान भी. इनमें पूजा अर्चना के कर्मकांड भी हैं और अवतारी जागर भी. कहीं कालिका माता हैं, कहीं गोल्ल कहीं नरसिंग और कहीं गणमेश्वर द्योताल.
परंपरा से चली आ रही इन गाथाओं में कहीं उन नायकों का वर्णन है जिन्होंने अपनी शक्ति और दृष्टि से लोगों का मन मोहा तो कहीं इनमें जगतजननी के रौद्र और करुणामयी रूप के दर्शन किए. दैनिक पूजा पाठ के वह मंत्र आज भी दोहराये जाते हैं जो पहले कभी रचे गए, वाचिक रूप से याद रहे और ग्रंथों में बसे. मातृ पूजा हो या हवन, जागो हो या जागर, कर्ण की डोली हो या नंदा सुनंदा की जात ये ऐसी ही कुछ परम्पराएं बनीं जो आज भी गाँव घरों और ग्रामीण क़स्बाई व विकसित होते शहरी परिवेश में किसी न किसी रूप में संपन्न होतीं दिख रहीं. उत्तराखंड के पहाड़ों में शूरवीर नायकों की जीवन गाथा को उनके द्वारा लोक कल्याण के लिए किए गए विशिष्ट कामों के वर्णन को भी धार्मिक परंपरा के रूप में संपन्न किया जाता रहा.
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दिवारा की परिपाटी के संकेत बहुत कुछ मौर्य काल में चली उन परम्पराओं में देखे जा सकते हैं जब देवताओं के उत्सव में रथ यात्रा निकाली जाती थी. देव रथ एवं देव डोलियां निकलती थीं. सम्राट अशोक जनता के कल्याण के लिए हर पांच साल बाद अपने राज्य अधिकारियों को निरीक्षण हेतु अपने अपने इलाकों का दौरा करने का आदेश देता था. उसका यह मंतव्य था कि राज्य के विभिन्न भागों की समस्याओं की पड़ताल व भौतिक सत्यापन के लिए जिस प्रकार दौरा किया जाता है उसी तरह धर्मानुशासन के लिए भी इसे किया जाना जरुरी समझा गया . राजा ने सर्व जन कल्याण के अपने प्रयोजन हेतु ‘राजुकों’ की नियुक्ति की तथा वह स्वयं भी सामाजिक उपयोगिता प्राप्त होने के उद्देश्य से देश के विभिन्न भागों में जा कर जनता के सुख दुख जानने का प्रयत्न करता था. ठीक यही भावना दिवारा यात्रा में भी दिखाई देती है.
लोक कल्याण की परिपाटी दीर्घ काल तक लोगों द्वारा अपनायी जा सके जिस पर लोग विश्वास बनाये रखें रीति रिवाजों का पालन कर सकें aजैसे वह कारण थे जिससे इसे धार्मिक स्वरुप दिया गया. राज्य के द्वारा नियुक्त अधिकारी अपने विशाल राज्य के हर खंड में मौके पर जा कर लोगों की हर प्रकार की समस्याओं का निदान करते रहे. निरीक्षण में सामाजिक, प्रशासनिक, न्यायिक व व्यक्तिगत समस्याओं का निदान किया जाता रहा. सभी प्रकार के विवाद सुलझाए जाते रहे जिनमें खेती बाड़ी, चारागाह,उद्योग धंधे,पानी सम्बन्धी समस्याएं भी शामिल होती थीं.विशेषतः कृषकों, शिल्पकारों व अन्य लोगों के बीच फौजदारी, झगडे भी. दिवारा परंपरा में भी जिस प्रकार “मौ -जाच” की जाती है वह सम्राट अशोक की निरीक्षाटन परंपरा से प्रभावित पाई जाती है.
उत्तराखंड के गावों मेँ संपन्न दिवारा यात्रा ऐसी ही एक धार्मिक परंपरा है जिसमें देवता की डोली को गाँव गाँव घुमाया जाता है.दिवारा परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, “मौ-जाच”. अर्थात गाँव के हर घर परिवार की समस्या की जांच.दिवारा यात्रा में देवता सभी परिवारों की मौ – जाच करने हर हर घर तक जाता है. यह केवल जाने की औपचारिकता नहीं है खाली घूम आना नहीं है यह तो मौक़े का निरीक्षण है. हर परिवार की समस्या का मौक़े पर समाधान है.
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दिवारा यात्रा लोक कल्याण की भावना से जुड़ी है. उत्तराखंड में ऐसी अनेक भावनात्मक परिपाटियां प्रचलित हैं जिनसे सामूहिक रूप से लोगों के मन उस विश्वास और आस्था से जुड़ जाते हैं जिसे वह अपने ईष्ट, अपने कुलदेवता, अपने ठाकुर जी, अपने देवी देवता और उनके गणों से पाने के लिए कई आयोजन करते हैं. कर्मकांड संपन्न कराते हैं. यह सब कार्य सामूहिक सहभागिता से ही संभव होते हैं. प्रायः किसी भी आपदा, विपदा, रोग शोक का कारण देवता का रुष्ट हो जाना और इससे जनित प्रकोप माना जाता है. देवता के साथ उसके गण, आण-बाण,असुर, भूत, परी-आंचरी भी कुपित होते हैं इसके निवारण के लिए परंपरानुसार कई उपाय प्रचलित हैं. इन उपायों को संपन्न करने की विधियां हैं. नियम विधान हैं. विधियों को कराने वाले कुशल जानकार हैं जिनकी आजीविका भी इन क्रियाओं के संपन्न होने से चलती है.
प्रायः किसी और बड़े उद्देश्य के लिए भी ऐसे आयोजन धन एवं अनाज इत्यादि के संग्रह का उपाय बनते हैं.अंतिम रूप से इन धार्मिक पूजा विधियों से लोगों के मन में बैठे भय का निराकरण, स्वस्थ व सबल हो जाने की कामना और आपसी सौहार्द व समाज के सभी वर्गों के बीच सौहार्द बनाये रखना होता रहा. दिवारा यात्रा में भी जो अलग अलग किस्म के कार्य हैं उनको गाँव के लोग भले ही वह किसी भी कुल- गोत्र- राठ से हों,मिल जुल कर संपन्न कराते रहे. विशिष्टता के साथ श्रम विभाजन के तौर तरीके परंपरानुसार तय हुए. अलग-अलग अंचलों में इनमें कई विभिन्नताएं भी देखी गईं.
जैसे देव स्तुति के मंत्र, उनके उच्चारण के भाव- स्वर, वाद्य यंत्रों की विविधता, डोली के श्रृंगार के तरीके, नेजा -निजाण -पताका इत्यादि.देव देवियों को प्रतीकात्मक रूप से या बड़ी- छोटी प्रतिमाओं के साथ गाँव में घुमाया जाता है. कब किस गाँव में दिवारा डोली किस पक्ष, तिथि को ले जाई जायगी इसकी गणना पूर्व निर्धारित है.पंचांग देख पैट -अपैट के हिसाब से होती है. पूजे जाने वालों में उस इलाके के बलशाली शूरवीर व उनके संगी साथी भी होते हैं जिन्हें लोग अपनी भावनानुसार याद रखते रहे.
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दिवारा परंपरा का लेखन अनेक जानकारों के द्वारा किया गया है. गाँव के बड़े बुजुर्ग भी इसके धार्मिक स्वरुप और चली आ रही परिपाटी के बारे में बताते हैं. पर यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने नहीं आता कि यह कब और किस काल खंड में शुरू हुईं और इनका क्रमिक विकास किस प्रकार हुआ.
उत्तराखंड में देवता की पूजा और उसे जागृत करने की अन्य परंपरा “जात” है. जात का शाब्दिक अर्थ है जात्रा या यात्रा. अर्थात जात में ईष्ट देवी या देवता को यात्रा कराई जाती है. अब हर इलाके या अंचल में पूजे जाने वाले ईष्ट भी अलग अलग होते हैं इसलिए उनकी स्तुति व आख्यान भी भिन्न हैं. यह भी देखा बताया जाता है कि जात तब निकाली जाती है जब कोई दोष अथवा प्रकोप हो. पर कई देवी-देवताओं की जात नियत समय पर भी निकाली जाती है.जात में भी देव डोली को इलाके में घुमाया जाता है पर यह हर घर नहीं ले जाई जाती. जात का मुख्य उद्देश्य अंचल में प्रचलित देवी-देवता के कोप को दूर करना होता है.
दिवारा यात्रा को संपन्न कराने का समय निश्चित होता है. अगली बार इसे फिर उसी क्रम में नियत समय बाद फिर से संपन्न किया जाता है. प्रायः यह समय अवधि पांच साल, छह साल या बारह साल होती रही है. जिसके बाद पुनः दिवारा यात्रा करवाई जाती है. दिवारा यात्रा कराने से पहले कुछ निश्चित रीतियाँ संपन्न की जाती हैं जिनमें अर्घ्य पूजा विशेष है. इसमें ग्राम में घर -घर भ्रमण कर रही देव डोली का स्वागत किया जाता है. इसके बाद सबसे मुख्य व विशेष तो मौ -जाच है जब गाँव के हर परिवार से उसकी आशल कुशल ली जाती है. यही वह विशेषता है जिसमें गाँव के हर परिवार से संवाद संभव होता है उसकी चिंताएं समस्याएं जानी जातीं हैं.
दिवारा यात्रा को संपन्न कराने का समय, तिथि, पक्ष, पैट, दिन वार इत्यादि सब जानकारों की गणना के द्वारा तय किया जाता है. वह इलाका जहां के गावों में देव डोली जाएगी और इसमें स्थापित देवी -देवता का स्वरुप भी नियत होता है. पूरे कार्यक्रम की रूप रेखा स्पष्ट होती है. दिवारा यात्रा में प्रमुख देवता -देवी के साथ उनके संगी साथी व सहायक भी साथ चलते हैं. देवी -देवता की डोली के साथ ही उनके अन्य सहायक गणों के प्रतीक चिन्ह, नेजा निषाण भी साथ होते हैं. दियारा की डोली के गाँव में आगमन के समय उसके अभिनन्दन – स्वागत की पूरी तैयारी की जाती है. ग्राम वासी गाँव की सीमा पर धूप दीप पुष्प इत्यादि लिए डोली की प्रतीक्षा करते हैं. गाँव के क्षेत्र में प्रवेश कर दिवारा डोली सबसे पहले गाँव के मुख्य देवता, वहाँ के ईष्ट से मिलाने ले जाई जाती है. इसके बाद ही रीत के अनुसार अन्य कर्म कांड संपन्न किए जाते हैं. कभी कभी दिवारा डोली गाँव के इलाके से बाहर भी ले जाई जा सकती है. उदाहरण के लिए गाँव के देवता के बेटी जो किसी दूसरे इलाके वाले गाँव में ब्याही गई हो से भेंट कराने दिवारा की डोली ले जाई जाती है इसे ‘घियाणी’ से भेंट करना कहा जाता है.
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जब गाँव के मुख्य देवता से भेंट करवा दी जाती है तब दिवारा की डोली को मुखिया के चौक में ले जाया जाता है. अब यहाँ सबसे जरुरी पूजा संपन्न करवाई जाती है जिसे अर्घ्य पूजा कहा जाता है. अर्घ्य पूजन में गाँव के समस्त परिवार देवता को फल -फूल, मिठाई -प्रसाद चढ़ाते हैं और धूप- दीप, गूगुल- केदार पत्ती जलाते हैं. देवता को भेंट भी अर्पित की जाती है.अर्घ्य पूजन के बाद गाँव के परिवारों का निरीक्षण किया जाता है जिसे ‘मौ -जाच ‘कहा जाता है.’मौ’ से आशय है परिवार तथा जाच से निरीक्षण करना या जाँचना.स्पस्ट है कि देवता गाँव के हर परिवार कि आशल -कुशल जानता है. हर मौ यानी कि परिवार से उसकी समस्याओं कि जानकारी प्राप्त की जाती है चिंता, रोग, शोक से मुक्ति के उपाय बताये जाते हैं. ग्रामीण जनों व परिवार के आपसी लड़ाई झगड़ों को सुलझाने की सलाह दी जाती है.देवता द्वारा बताये उपाय व निर्णय सर्व मान्य होते हैं.मौ -जाँच के समय परिवार द्वारा दी गई भेंट भी स्वीकारी जाती है. देव दिवारा में जमीन सम्बन्धी मामले भी सुलझाए जाते हैं. हालांकि गाँव की समस्त भूमि का स्वामी देवता ही माना जाता है पर हर गाँव में कुछ खास भूमि देवता की भी होती है जिसे “दयूका” कहा जाता है.अतः देवता दयूका का भी निरीक्षण करते चलता है. अगर डोली उस गाँव में रात को ठहरती है तो मौ -जाँच अगले दिन भी की जाती है. पर अगर रात में किसी दूसरे गाँव में ठहरना हो तो अर्घ्य पूजा के तुरंत बाद ही मौ जाँच शुरू कर दी जाती है.
दिवारा यात्रा धार्मिक रूप से एक आदर्श लोक परंपरा रही है जो यह पक्ष ध्यान में रखती है कि मात्र लोगों की, गाँव के बासिंदों व परिवारों की समस्या जान लेने से ही सामाजिक उपयोगिताओं को अनुकूलतम नहीं किया जा सकता. मुख्य पक्ष तो समस्याओं के समाधान का है. मौके पर ही समस्याओं के निस्तारण का है. सरकार भी अपने कई कार्यक्रमों के द्वारा आम जन तक पहुँच व संपर्क का प्रयास करती है जैसे आपकी सरकार आपके द्वार, जनता दरबार इत्यादि तो वहीं जनता भी सीधे सरकार के सक्षम अधिकारियों के सामने अपने दुखड़े रखती है. परेशान भी होती है कि समस्याएं तो जस की तस बनी हुईं हैं.
दिवारा यात्रा जैसे आयोजन ग्रामीण परिवेश में एक अलग ही आस जगाते हैं. इसके कौतुक की प्रतीक्षा की जाती है. देवता के काम को संपन्न कराने में अपना हर संभव सहभाग देने की भावना होती है. अपने इष्ट, अपने आराध्य, अपने देवता के प्रति कृतज्ञता का बोध होता है. वह शिकायत सुनेगा, समस्या दूर करेगा. यह भाव मन में आते ही उस शक्ति के लिए कृतज्ञता की लहर उठती है जो दरवाजे पर आकर बात सुनेगी. इस तरंग में मन अनगिनत कामनाओं से लबालब भर उठता है. अच्छा महसूस होने लगता है.कुछ पाने की उम्मीद जगती है.सब उसी का दिया है आगे भी देगा सो देवता से माँगा जाता है. उसका आभार प्रकट किया जाता है. यह आस्था और कल्पना ही उस संतुष्टि की ओर ले जाती है जिसके लिए दिवारा यात्रा जैसे आयोजन किए जाते हैं. और यह सिलसिला जारी रहता है.
उत्तराखंड के लोक देवताओं की पूजा पद्धतियों के ऐतिहासिक अवलोकन पर डॉ शिव प्रसाद डबराल,डॉ प्रयाग जोशी,डॉ शिव प्रसाद नैथानी, डॉ डी.डी. शर्मा के सन्दर्भ महत्वपूर्ण हैं. शिवराज सिंह रावत ने उत्तराखंड की जात पर प्रामाणिक सन्दर्भ प्रस्तुत किया है. विक्रम सिंह बर्त्वाल ने गढ़वाल हिमालय में दिवारा देवयात्राओं पर शोध की है. प्रोफ. शंतन सिंह नेगी एवं प्रोफ. शिवचंद सिंह रावत ने उत्तराखंड में दिवारा परंपरा का ऐतिहासिक अध्ययन किया है. प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता में दामोदर धर्मानंद कोसम्बी ने राजाओं द्वारा प्रजा की सुध लेने, लोक कल्याण एवं अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए जनता के घर घर जा किए ऐसे आयोजनों का वर्णन विश्लेषण मीमांसा की है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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