यह आलेख हमें हमारे पाठक कमलेश जोशी ने भेजा है. कमलेश का एक लेख – सिकुड़ते गॉंव, दरकते घर, ख़बर नहीं, कोई खोज नहीं – हम पहले भी छाप चुके हैं. यदि आप के पास भी ऐसा कुछ बताने को हो तो हमें [email protected] पर मेल में भेज सकते हैं.
विश्व विद्यालयों में चुनावी सरगर्मी तेज़ है. अगले लगभग एक माह तक विश्वविद्यालयों में चुनावी दंगल चलेगा. मुख्य धारा की राजनीति में आने का सूत्रधार विश्वविद्यालय की राजनीति को माना जाता है. मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू की राजनीति को बहुत क़रीब से देखा है और आज जब मैं अपने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय की राजनीति देखता हूँ तो निराशा से ज़्यादा कुछ हाथ नहीं लगता. मुख्य धारा की दो पार्टियों के संगठन एबीवीपी व एनएसयूआई के अलावा कुछ स्वगठित छात्र संगठन जैसे – जय हो, छात्रम, आर्यन, भारतीय विद्यार्थी मोर्चा आदि चुनाव में उतरे हुए हैं. वामपंथी विचारधारा का संगठन आइसा भी चुनावी रेस में है.
वैसे तो लिंगदोह कमेटी की सिफ़ारिशों के हिसाब से विश्व विद्यालय सेशन के 6 से 8 सप्ताह के बीच चुनाव हो जाने चाहिए थे किन्तु काफ़ी जद्दोजहद के बाद सितम्बर की 7 तारीख़ चुनाव के लिए मुक़र्रर की गई है. पिछले एक माह से छात्र संगठनों का प्रचार-प्रसार ज़ोरों पर हैं. प्रचार के नाम पर सिर्फ़ पोस्टर चिपकाना, फ्लैक्स लगाना, नारेबाज़ी करना और हॉस्टल में रात-बेरात जाकर छात्रों से वोट माँगने के अलावा संगठनों के पास विश्व विद्यालय हित के कोई बुनियादी मुद्दे नहीं है. सभी संगठनों में पिछले वर्ष छात्र हित में कराए कार्यों का श्रेय लेने की बस होड़ सी लगी है. किसी भी संगठन का कोई लिखित एजेंडा नहीं है. आइसा ने ज़रूर अपने विगत कार्यों और भविष्य की नीतियों का पर्चा ज़रूर बाँटा लेकिन नीतिगत रूप से वह भी अपर्याप्त ही है.
उम्मीदवारों की बात करें तो किसी भी संगठन ने छात्र संघ की चारों सीटों के लिए अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किये हैं. किसी ने एक पद पर तो किसी ने दो पदों पर उम्मीदवारी ठोकी है. ऐसा प्रतीत होता है जैसे उम्मीदवारी फ़िक्स है और इसे लेकर सभी संगठनों में आपसी सहमति भी है. विश्व विद्यालय के बिरला कैंपस में फिर भी चुनाव की गर्मजोशी देखी जा सकती है लेकिन चौरास कैंपस दिन में सूना सा पड़ा रहता है और रात को 8 बजे के बाद सभी संगठनों के नेता लगातार समय अंतराल में आकर लगभग रात 12 बजे तक हॉस्टल में पहुँच कर छात्रों की नींद व अध्ययन में विघ्न डालते हैं.
चुनाव का असल मक़सद छात्रों और विश्व विद्यालय के मुद्दों को प्रशासन के समक्ष रखना है लेकिन मुद्दों को लेकर राजनीतिक संगठनों में अपरिपक्वता है. असल में प्रचार के दौरान न तो वे मुद्दों की बात करते हैं और न ही समस्याओं की. छात्रों के अहम मुद्दों में पौड़ी को चौरास कैंपस से जोड़ने वाले पुल के बाद रोड का निर्माण, कैंपस व हॉस्टल में वाई-फ़ाई, शोध छात्रों पर पठन-पाठन का अतिरिक्त कार्यभार, अध्यापकों का कक्षाएँ न लेना, बौद्दिक विकास के कार्यक्रमों की सीमितता, पुस्तकालय में पुस्तकों की अनुप्लब्धता, मैस के खाने की गुणवत्ता, कैंपस में आवारा जानवरों का विचरण आदि-आदि हैं किन्तु किसी भी संगठन का चुनावी प्रचार इन सब मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नहीं दिखता. एक संगठन के कुछ छात्र आकर बोले सर अपना आशीर्वाद बना कर रखियेगा और वोट हमें ही दीजियेगा. मैंने पूछा सिर्फ आपको ही क्यों? तो बोले कि हमारे विरुद्ध वामपंथी खड़े हैं और आप तो जानते हैं वामपंथी कितना बड़ा खतरा हैं देश के लिए. मैं मुस्कुराया और मैंने पूछा कभी मार्क्स, लेनिन और माओ को पढ़े हो तो उत्तर था नहीं. वामपंथी विचारधारा के विरोधियों की हालत कैंपस में ऐसी है कि हीरो उनका भगत सिंह है और चेग्वेरा की टी-शर्ट पहन कर घूमते हैं.
संगठनों के निर्वाचित उम्मीदवारों को मैंने अब तक सिर्फ हाथ जोड़े खड़ा पाया है. उनकी तरफ से बोलने के लिए हर संगठन के पास एक-दो लोग हैं किन्तु उम्मीदवार का सिर्फ हाथ जोड़कर खड़े रहना उसकी प्रतीभा पर संशय पैदा करता है. कुल मिलाकर छात्र संगठनों से लेकर विश्व विद्यालय के छात्रों तक राजनीतिक जागरूकता का अभाव है. इस अभाव को दूर करने के लिए हमें पढ़ना होगा और राजनीति के असल मायनों को समझना व छात्रों तक पहुँचाना होगा. तब जाकर विश्व विद्यालय की राजनीति अपने पटल पर आएगी.
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