रोटी में पधान रहा गेहूं और मडुए को गरीब का पेट भर सकने की हैसियत मिली. रोज मड़ुआ खा बिछेंन हो गई तो बोल भी फूट पडे, ‘मड़ुआ रोट में नी खानी, ग्युंक पिसु ओल.’ इनके आपसी मेल से लेसुआ रवाट बना. जौ, मक्का, मदिरा बीच बीच में स्वाद बदलने के लिए खाये गए. (Types of flour In Uttarakhand)
रोटी सबसे भली, खरीफ में गेहूं की ही चली. लकड़ी की आग में तवे पर रोटी सिकी तो चूल्हे के क्वेलों से निकली गरम राख में फुलाई गई. आटे की लोई हाथ में ही पाथ रोटी पलथन लगा तैयार हो जाती हालांकि हर किसी के हाथ में ऐसा जस नहीं, तो चकला बेलन भी चलता.
चूल्हे की आग खचोरने के साथ लोहे की फुँकनी से फू-फू कर सुलगाई जाती. गरम रोटी फटाफट हाथ से ही पलटाई जातीं, फुलाई जातीं. चिमटे का भी काम पड़ता तो संङे सी भी गरम तवा उतारने में काम आती.
गेहूं के आटे की लोई में उर्द या उड़द पीस, हींग, मिरच नमक, लोंग मिला बेडुआ रोटी हाथ से ही बना ली जाती जो खास मौकों पे खायी जाती. इसके अलावा पूड़ी, कचौड़ी, लगड़, लेसु रोटी, छोलि रोटी व रोट बनते.
आटे में गुड़ का पाग और घी डाल सख्त गूंथा जाता फिर धीमी आंच पर मोटी पूरी की शकल में तला जाता. पूजा के परसाद में रोट मुख्य होता. ऐसे ही मिश्रण से गणेश जी के लिए मोदक गोल गोल बनते. कम से कम इग्यारह.
मकर संक्रांति पर खजूरे व मिश्रण को अलग अलग आकार दे ढाल, तलवार, डमरू, पुलेंणी बनती. आटे को घी में भून गुड़ डाल हलुआ भी बनता. झुरमुरि, पुरचंटी, चीले, गुड़पापडी, सै भी तैयार होते. गेहूं से पिशु ज्यादा बनता, मैदा, सूजी कम ही चलन में रहती.
ग्युं भी दो रंगों वाला ठहरा. पहला, खूब मुलायम और सुफेद तो दूसरा, काठी व लाल. इन्हें सफ़ेद नोयि और लाल नोयि के नाम से भी जाना जाता. सफ़ेद रंग के गेहूं को ज्यादातर बोया जाता.
दौलतखानी भी खूब स्वाद देता. दौलतिया मुक्तेश्वर से इसकी शुरुवात हुई. गंगोली का धणी ग्युं, धनिये के बीजों सा छोटा, पिसाई के बाद खूब मुलायम स्वाद की रोटी बनती. यहीं से पिस्सू ग्युं भी चला जिसमें खूब चोकर होता.
औरतों के बालों की लटी की तरह लाल रंग की बाली वाली किस्म ठांग ग्युं, तो झूस वाला झुसि ग्युं कहलाता. ऐसे ही जौ के जैसे झूस वाले उदा ग्युं की हरी बलियो को आग में भून इसके कुरमुरे दाने खाये जाते. अधपकी बालियों के दानों को भून भान कर ‘उम’ बनाये जाते.
पहले जौ की रोटी भी खायी जाती, खूब ताकत देती पर बनाने में मेहनत और सीप मांगती. जौ भून कर सत्तू भी बनता. धीरे-धीरे चलन कम हुआ ठैरा. फिर भी थोड़ा बहुत हर जगह बोया गया. पूजा पाठ, कर्मकांड और श्राद्ध कर्म में जौ थोड़ा ही सही पर खूब काम आता रहा.
जौ भी दो तरह का होता. पहला सुकिका या ओन जिसमें झूस होते. मडुए के साथ पीस इसकी रोटी खूब सुवाद बनती. दूसरी किस्म बिना झूस वाला ठांग जौ. साथ ही खरीफ में तिमासा, चौमासा और छैमासी में भुट्टे उगते, ताजे भुट्टे लकड़ी की आग में भून खाये जाते. सूखा कर इनका आटा बनता, जिससे रोटी भी बनती, जौला और हलुआ भी. एक लम्बा पतला पौंधे वाला भुट्टा मुरलिया कहलाता था. ज्यादातर संकर नस्ल ही बो दी जाती.
मडुवा भी तेमासा छमासा होता. कई किस्म का जिनका स्वाद और रंग भी थोड़ा बहुत फरक फरक वाला होता. लाल दानों वाला ‘लाल मडु’ और सफ़ेद दानों वाला ‘दुध मडु ‘कहलाता. जिसकी बालियाँ अधखुली टोकरी जैसी होती उसे ‘टोकरिया’ कहते.
दूसरा होता नंगचुनिया जिसकी बाल झुकी रहती और इतना नाजुक कि नाखून से टूट जाये. जिसकी बाली बंद मुट्ठी जैसी होतीं वह पुटक्या कहलाता. ऐसे ही मुट्ठीनुमा की एक किस्म भुवखेतिया कहलाती. झाकरी जैसी बिखरी बाल वाले को झांकरिया कहते.
जल्दी पकने वाली किस्म लूमरयाव और देर से पकने वाली धुन्याव कहलाती. इनके अलावा गरौ पुटकी, गनौली और द्विति भी अलग अलग जगहों में बोई जातीं. मडुए की रोटी हाथ से ही थोड़ी मोटी पाथ कर बनाई जाती. इसके आटे को पीसने में कुछ पेड़ों की छाल और पौंधों की जड़ें मिला दी जातीं, जिनमें एक छाल बीसी होती, जिससे रोटी मुलायम बनती और टूटती भी नहीं.
खरीफ में कई और मोटे अनाज भी बोये जाते. इनमें बाजुर या बाजरा, मादिर या झिंगुर या झिंगोरा तथा कौणी, चीना और ज्वार मुख्य हैं. ज्वार बाजरे की रोटी बनती है जबकि चीना व कौणी का भात बनता.
ददुरे निकलने में कौणी का गीला भात देना फायदेमंद माना गया. मोटे अनाजों में चुआ और उगल भी होते रहे. चुए, चौलाई या चू के बीजों को भूनने से ये फूल जाते हैं जिनमें गुड़ का पाग मिला कर लड्डू बनते हैं. पत्तियों की सब्जी बनती है. उगल के आटे को फराल में छोली रोटी, पुवा व पकोड़ी बना खाया जाता है. Types of flour In Uttarakhand
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें