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देवभूमि उत्तराखण्ड अपने नाम के अनुरूप पग-पग पर देवालयों के लिए विख्यात है. यहां शैव, शाक्त व वैष्णव परम्परा का मिश्रित रूप देखने को मिलता है. जो स्मार्त यानि स्मृतियों के अनुयायी है. भगवान शिव की तपोभूमि होने के बावजूद यहां शिवेतर देवी-देवताओं को भी समान रूप से पूजा जाता है. हर पर्वत शिखर पर देवी का थान तथा हर नदी-घाटी के तट पर शिवालय यहां की संस्कृति का हिस्सा है.
(Devguru Temple Uttarakhand)
इन पौराणिक देवी-देवताओं के साथ ही स्थानीय लोकदेवताओं के प्रति भी लोकमानस की गहरी आस्था है. ग्वेल, भोलानाथ, गंगनाथ, नरसिंग, कलबिष्ट, हरू, सैम, ऐड़ी आदि ऐसे ही लोकदेवता हैं, जिनको देवतुल्य पूजा जाता है. बल्कि यूं कहें कि पौराणिक के देवी-देवताओं से कहीं अधिक नजदीक का रिश्ता यहां के लोकमानस का अपने अपने ईष्ट के रूप में पूज्य लोकदेवता के साथ है. तभी तो हर खुशी में उनको साझीदार बनाया जाता है तथा उनके रूष्ट होने पर अनिष्ट की आशंका होने लगती है. किसी भी रोगादि कष्टों के शमन के लिए अपने ईष्ट अथवा लोकदेवता का पहले स्मरण किया जाता है.
ऐसी मान्यता है कि पौराणिक देवी-देवता तो सदैव कल्याण ही करेंगे लेकिन ईष्ट देव की अवहेलना पर वे कभी भी रूष्ट होकर अनिष्ट कर सकते हैं. उत्तराखण्ड के हर बड़े देवालयों में अन्य देवी-देवताओं के अलावा नवग्रहों को भी स्थान दिया जाता है. अधिकांश मन्दिर परिसरों में नवग्रहों के मन्दिर भी अवश्य ही हुआ करते हैं. लेकिन इन नवग्रहों में से केवल बृहस्पति यानि देवगुरू का अलग से मन्दिर उत्तराखण्ड में संभवतः इकलौता मन्दिर है . इसकी पौराणिकता पर कोई प्रामाणिक साक्ष्य तो नहीं है, लेकिन लोकमान्यता है कि इस मन्दिर की स्थापना का संबंध त्रेतायुग से जुड़ा है, जिस पर आगे चर्चा करेंगे.
नैनीताल जनपद मुख्यालय से पूर्व की ओर लगभग 48 किमी0 की दूरी पर एक स्थान है ओखलकाण्डा. ओखलकाण्डा विकासखण्ड मुख्यालय से यदि आप पूर्वाभिमुख होकर खड़े होते हैं तो ठीक सामने के पर्वत शिखर पर देवगुरू बृहस्पति का मन्दिर है. तथा यहां जाने के लिए ओखलकाण्डा से आगे तुषराड, देवली होते हुए पैदल लगभग 4 किमी0 की कठिन चढ़ाई पार कर पहुंचा जा सकता है. बाहरी लोगों के लिए यहां पहुंचना दुर्गम होने से स्थानीय लोगों के बीच ही इसकी मान्यता अधिक है. देवगुरू के प्रति स्थानीय लोकमानस की इतनी गहरी आस्था है कि हर शुभकार्य के पूर्व देवगुरू को याद कर पूजा अर्चना करना, नई फसल को सबसे पहले देवगुरू को अर्पित करना, दुधारू मवेशियों के ब्याने पर पहला दूध देवगुरू को अर्पित करना उनकी परम्परा का अभिन्न हिस्सा है.
(Devguru Temple Uttarakhand)
कैसा हुई देवगुरू मन्दिर की स्थापना इसे पीछे एक लोकमान्यता प्रचलित है. कहते हैं कि त्रेता युग में एक बार देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के शाप से मुक्ति के लिए किसी अज्ञात स्थान पर चले गये. इन्द्रलोक से देवराज इन्द्र के अचानक गायब होने से सभी देवतागण चिन्तित हो उठे. उन्हें यत्र-तत्र तलाशा गया और उनको खोजने में सफलता न मिलने पर देवतागण अपने गुरू बृहस्पति के पास गये और उनको खोजने की विनती करने लगे. देवताओं के अनुनय-विनय पर देवगुरू बृहस्पति उनकी खोज में मृत्यु लोक पहुंचे और उत्तराखण्ड की इसी पहाड़ी में उन्हें तपस्यारत देवराज इन्द्र मिल गये. देवगुरू ने देवराज इन्द्र को अभयदान देकर इन्द्रलोक भेज दिया और स्वयं क्षेत्र विशेष के शान्त एवं रमणीय वातावरण से प्रभावित होकर स्वयं यहीं तपस्या करने लगे.
इस स्थान की रमणीयता व भव्यता का इसी आधार पर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इसके एक तरफ दूसरे पर्वत शिखर पर देवीधुरा में मां बाराही का मन्दिर तथा दूसरी ओर के पर्वत शिखर पर पूर्णागिरि का मन्दिर है तथा इस पहाडी की पीछे ही पवित्र रीठा साहिब का गुरूद्वारा है. देवगुरू बृहस्पति की तपस्यास्थली होने के कारण यह स्थान लोगों की धार्मिक आस्था का केन्द्र बन गया.
इस मन्दिर के प्रति लोकास्था इतनी गहरी है कि यहां जो भी मन्नत मांगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है. विशेष रूप से निःसंतान लोग सन्तानप्राप्ति के लिए यहां मन्नतें मांगा करते हैं और बताते हैं कि यहां उनकी विनती अवश्य सुनी जाती है. यह एक ऐसा मन्दिर है जहां केवल और केवल देवगुरू बृहस्पति ही पूजे जाते हैं तथा मन्दिर के ऊपर किसी प्रकार का आच्छादन नहीं है. खुले आकाश के नीचे देवगुरू को स्थापित किया गया है.
(Devguru Temple Uttarakhand)
देवगुरू मन्दिर की एक खास बात ये भी है कि यहां न केवल महिलाओं को पूजा-अर्चना का अधिकार से वंचित किया गया है, बल्कि उनका मन्दिर में प्रवेश भी पूर्णतया वर्जित है. इस तरह की बातें दूसरे कई विख्यात मन्दिरों के बारे में भी सुनने को मिलती हैं, जिनमें महिलाओं का प्रवेश निषेध है. बल्कि कुछ मन्दिरों में तो माननीय न्यायालय को तक इस परम्परा को समाप्त करने के लिए दखल करना पड़ा लेकिन लोकमान्यता की जड़ों को कानून के बल पर उखाड़ने की कोशिश भी कभी कभी नाकाम साबित होती है.
देश के दूसरे मन्दिरों में कहीं-कहीं 15 से 50 वर्ष तक की महिलाओं के प्रवेश की वर्जना है, जिसका तर्क समझा जा सकता है लेकिन इस मन्दिर में उम्र का बन्धन न होकर सभी उम्र की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. इसके पीछे एक किंवदन्ती प्रचलित है. बताते हैं कि पहले इस मन्दिर की पुजारिन महिला ही थी. एक बार पुजारिन महिला देवगुरू बृहस्पति के लिए दिन के भोग में खीर बना रही थी. अचानक मौसम ने करवट ली मौसम की प्रतिकूलता देखते हुए मन्दिर से जल्दी लौटने की गरज से उस पुजारिन ने जल्दी से खीर बनाकर गरम-गरम खीर पिण्डी के ऊपर परोस दी. गरम खीर से पिण्डी टूटकर दो हिस्सों में बंट गई और देवगुरू बृहस्पति ने कुपित होकर मन्दिर में न आने का श्राप दिया ,यह प्रतिबन्ध बदस्तूर आज भी जारी है.
देवगुरू बृहस्पति के द्वारपाल लोकदेवता ऐड़ी को माना जाता है, जो एक आखेटक प्रवृत्ति के माने जाते हैं और शिकार करने वन-वन भटकते रहते हैं. देवगुरू बृहस्पति व ऐड़ी देवता में कई मामलों में एकरूपता भी पायी जाती है. जिस तरह देवगुरू का मन्दिर पर्वत शिखर पर है, उसी तरह ऐड़ी का मन्दिर भी पर्वत शिखरों पर ही हुआ करते हैं. देवगुरू का शस्त्र धनुष-बाण है तो ऐड़ी का शस्त्र भी धनुष बाण ही है, बल्कि ब्यानधुरा के ऐड़ी मन्दिर में तो धनुष-बाण चढ़ाने की भी परम्परा है.
देवगुरू का मन्दिर जिस प्रकार बगैर आच्छादन खुले आसमान के नीचे होता है, ऐड़ी मन्दिर में भी मन्दिर के ऊपर छत की परम्परा नहीं हैं और ऐड़ी देवता खुले आसमान के नीचे ही विराजमान होते हैं. देवगुरू के मन्दिर की तरह ऐड़ी मन्दिर में भी पूजा-अर्चना पुरूषों द्वारा ही की जाती है. गाय-भैंस के दूध को सर्वप्रथम यहीं चढ़ाने की व सन्तति प्राप्ति की मनोकामना पूर्ति के उद्देश्य से भी दोनों की अर्चना की परम्परा समान है. इसलिए स्वाभाविक है कि कभी इस तरफ भी सोच जाती है कि कहीं देवगुरू बृहस्पति को ही उत्तराखण्ड में ऐड़ी की मान्यता दे दी गयी हो अथवा ऐड़ी देवता को ही स्थान विशेष के लोगों ने देवगुरू मान लिया हो.
(Devguru Temple Uttarakhand)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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