वह लड़का, मेरा दोस्त, आज उम्र के 75 वें पायदान पर कदम रख रहा है. Deven Mewari Remembers Student Days of Batrohi
वह 1962 का वर्ष था जब मैं ओखलकांडा से ददा के साथ आगे पढ़ने के लिए नैनीताल पहुंचा था. बी.एससी. में मेरा एडमिशन कराने के बाद ददा लौट गए. मैं कुछ लड़कों के साथ पहले कुछ महीने रोहिला लॉज में रहा, फिर अपने क्लास फैलो नवीन भट्ट के साथ रॉक हाउस में चला गया. हमारी सब कुछ सीखने की चाहत आसमान छूना चाहती थी. शुरूआत एन.सी.सी. और ताल में तैराकी से की. मैं हिंदी में कहानियां लिखने लगा और नवीन जमकर अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने लगा. इस बीच कालेज की कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी को पुरस्कार मिल गया. Deven Mewari Remembers Student Days of Batrohi
एक दिन एन.सी.सी. की परेड में जम कर लेफ्ट, राइट, लेफ्ट! लेफ्ट, राइट, लेफ्ट! की कवायद करने के बाद उस्ताद के ‘परेड विश्राम’ कॉसन पर हमने विश्राम की मुद्रा बनाई. तभी पीछे से किसी कैडेट ने बांह पर टहोका देकर पूछा, “तुम देवेन एकाकी हो?”
मैंने कहा, “हां”
“मैं लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ हूं. कहानियां लिखता हूं. परेड के बाद मिलना, बात करेंगे.”
“ठीक है,” मैंने कहा.
परेड के बाद मेरी ही तरह भारी मिलिटरी बूट और खाकी यूनीफार्म पहने उस कैडेट से मैं मिला. दोनों ने काफी देर बातचीत की. मैंने उसे बताया कि मैं गांव से आया हूं. उसने कहा, वह भी सालम पट्टी के एक गांव से ही आया है. उसने उस बातचीत में यह भी बताया कि उसे प्रेमचंद और शैलेश मटियानी जी की कहानियां बहुत अच्छी लगती हैं. और, यह भी कि उसे तो जीवन में केवल लेखक बनना है. एन.सी.सी. में तो वह खाली यों ही आ गया है. जल्दी छोड़ देगा. उन दिनों एन.सी.सी. अनिवार्य नहीं थी और अनुशासन बहुत कड़ा था. उस दिन उसने जाते समय कहा, “मिलते रहना. कहानियों और किताबों पर खूब बातें करते रहेंगे.”
नैनीताल शहर में नवीन के अलावा मैं किसी और को नहीं जानता था. इसलिए कहानी लिखने वाले इस नए लड़के से मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई. बाद में हम मिलते रहे और धीरे-धीरे गहरी दोस्ती हो गई. हम कहानियों पर चर्चा करते, कहानियां लिखते, एक-दूसरे को सुनाते, उन पर बेबाकी से अपनी राय देते, कमियां बताते. धर्मयुग, सारिका, कहानी और ज्ञानोदय जैसी पत्रिकाओं को नियमित रूप से पढ़ते और उन में छपी कहानियों पर खूब चर्चा करते. Deven Mewari Remembers Student Days of Batrohi
एक दिन मैंने उससे पूछा, “तुमने बटरोही उपनाम कैसे रखा? इसका अर्थ क्या है?”
“इसका कोई अर्थ नहीं है, इसीलिए मैंने यह नाम रखा है. किसी और का यह नाम है ही नहीं. असल में मुझे बटोही शब्द अच्छा लगता है लेकिन उसमें तीन शब्द हैं. मैंने उसे चार शब्द का ‘बटरोही’ बना दिया. यह मेरा ही बनाया हुआ मेरा नाम है.” मैं सुनकर चकित हुआ. साथ ही यह भी सोचा कि मैंने भी तो अपना उपनाम इसी तरह रखा है. अकेले घूमने और पेड़ों के नीचे अकेली बैंच पर एकांत में बैठे रहने का शौक था. इसलिए देवेन एकाकी बन गया. मेरा वह दोस्त मुझे देवेन कहने लगा.
रचनात्मक रूचि वाले कुछ और छात्र हमने दोस्त बनाए. फिर सोचा, अपने डीएसबी कालेज में छात्रों की रचनात्मक गतिविधियों के लिए एक नया मंच होना चाहिए. वे कुछ अलग होंगे, बल्कि सिरफिरे, इसलिए हमने साथियों के साथ मिलकर ‘क्रैक्स’ एसोसिएशन बनाने का निश्चय किया. उसमें सईद, वीरेन डंगवाल, मिताली गांगुली, रमेश थपलियाल, सुबोध दुबे, पुष्पेश पंत, लायल, श्याम टंडन, ओम प्रकाश को भी जोड़ा. हमारे प्रिंसिपल और भौतिक विज्ञानी डा. डी.डी. पंत हमारे इस विचार से खुश हुए और उन्होंने क्रैक्स को क्रैंक्स जैसे बेहतर शब्द में बदल दिया. इस तरह कालेज में ‘क्रैंक्स’ एसोशिएशन की शुरूआत हो गई. इस एसोसिएशन की ओर से बटरोही और हम सभी ने मिलकर कई रचनात्मक गतिविधियों को अंजाम दिया.
धीरे-धीरे हम दोनों की कहानियां हिंदी की अग्रणी पत्रिकाओं में छपने लगीं. बटरोही की कहानियां धर्मयुग, ज्ञानोदय और माध्यम में और मेरी कहानियां माध्यम, कहानी और उत्कर्ष में छप रही थीं. बटरोही की एक कहानी ‘बुरूंश का फूल’ ‘माध्यम’ में छपी. उसकी परिणति से मैं सहमत नहीं हुआ तो मैंने ‘दाड़िम का फूल’ कहानी लिखी. वह भी ‘माध्यम’ में प्रकाशित हुई. तब हममें लेखन की ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती रहती थी. दोस्ती पर उसकी कोई आंच नहीं आती थी. Deven Mewari Remembers Student Days of Batrohi
बाद में मैं एम.एससी. और वह एम.ए. करके नैनीताल से चले गए. मैं पूसा इंस्ट्टियूट, दिल्ली में नौकरी करने और वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी करने. दो-तीन वर्ष बाद मेरे गांव कालाआगर में मेरी शादी हुई. उसे मैंने शादी का कार्ड भेजा था. जब बारात दूर दूसरे पहाड़ से पैदल मेरे गांव को लौट रही थी तो खन्स्यू में गौला नदी के किनारे अपने उस दोस्त को देख कर मैं चकित रह गया. वह नैनीताल से खालगड़ा (ओखलकांडा) तक बस से और उसके बाद लोगों से रास्ता पूछते-पाछते, चीड़ वनों को अकेला पार करके, पूरा पहाड़ उतर कर वहां तक पहुंच गया था. बारात के साथ वह मेरे घर पहुंचा. वहां एक दिन रुकने के बाद हमारे गांव के पहाड़ से उतर कर, ओखलकांडा के पहाड़ की विकट चढ़ाई चढ़ने के बाद कहीं से बस पकड़ कर नैनीताल को लौट गया. दो-तीन साल बाद नैनीताल में उसका विवाह हुआ. जिस लड़की की छवि उसने मन में संजो रखी थी, उसी से विवाह संपन्न हुआ. विवाह में शैलेश मटियानी जी के साथ-साथ हम तमाम दोस्त शामिल हुए.
फिर नौकरी की ज़द्दोजहद और पारिवारिक जिम्मेदारियों में डूबने के बावजूद हम गाहे-बगाहे मिलते रहे. उसने अपने भरपूर रचनात्मक काम के साथ-साथ शैक्षिक ऊंचाइयां हासिल कीं. मैं वाया कृषि अनुसंधान और कृषि पत्रिका संपादन, पब्लिक रिलेशंस की दुनिया में प्रवेश कर गया. लेकिन, हम दोनों को फ़ख्र है कि जो कलम साठ साल पहले हाथ में पकड़ी थी, वह लगातार चलती रही और आज भी चल रही है. Deven Mewari Remembers Student Days of Batrohi
आज बटर (वैसे तो हम सभी दोस्त उसे अपना मुखिया मानते रहे, लेकिन मन मचलने पर मैं कभी-कभी उसे बटर भी कह देता) का 75 वां जन्मदिन यानी हीरक जयंती का दिन है. जीवन का एक महत्वपूर्ण दिन. दोस्त, आने वाले वर्षों में भी तुम्हारी रचनात्मक ऊर्जा लगातार बढ़ती रहे और तुम साहित्य के नए परचम फहराते रहो. जीवेम शरदः शतम्!
लॉक डाउन के दिनों में सुल्ताना डाकू और जिम कॉर्बेट की धरती पर बने अपने फार्म हाउस में
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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