दलितों की बारात पहाड़ में पहले बिना डोला-पालकी की चलती थी और दूर से ही पहचानी जाती थी. किन्तु टिहरी-गढ़वाल जिले की ग्यारह गाँव पट्टी में ढुंग गाँव के दीपचन्द शाह ने अपनी शादी में डोला-पालकी ले जाने का निश्चय किया था. तब वे राजकीय प्रताप इण्टर कॉलेज, टिहरी में दसवीं कक्षा के छात्र थे और ठक्कर बापा छात्रावास में रहते थे. उन्हें अंदेशा था कि सवर्ण उनकी बारात में घपला कर सकते हैं. सो, उन्होंने प्रशासन से माँग की थी कि उन्हें कानूनी सुरक्षा उपलब्ध करवायी जाये.
(Deepchand Shah Marriage)
अतः 13 जनवरी 1959 को दीपचन्द शाह जब सज-धज कर अपनी बारात के साथ घोड़े पर बैठ कर ग्राम ढुंग से चले, तो प्रशासन ने उनकी सुरक्षा के लिए क्षेत्रीय पटवारी नरेन्द्र दत्त गैरोला को भेज दिया. शाम को लगभग छह किलोमीटर पैदल चलने के बाद जब उनकी बारात हिंदाव पटटी के राणा गाँव में पहुँची, तो सवर्णो के कान खड़े हो गये. वे बारात को लेकर तरह-तरह की चर्चाएँ करने लगे. संयोग से उस दिन पंगराणा, लैणी, मुड़िया गाँव, महरगाँव, लस्या एवं बांगर पटिटयों से आठ बारातें आयी हुई थीं. उनके मेहमानों ने चर्चाओं को नमक मिर्च लगाकर खूब गरम कर दिया और लोगों को उकसाया कि दलित लोग अब सवर्णो की बराबरी करने लग गये हैं. उनकी बातों से हिंदाव पट्टी के बंद समाज में खदबदाहट होने लगी. बहुतों को लगा कि जैसे साक्षात कलियुग आ गया हो. अतः घर-घर में बैठ कर वे सभाएँ करने लगे तथा बारात में विघ्न डालने की योजनाएँ बनाने लगे.
मगर दीपचन्द के बारातियों को उनके इरादों का पता तब चला, जब 14 फरवरी, 1959 की सुबह चार बजे अंथवाल गाँव का पण्डित अमर चंद पूजा-पाठ के लिए नहीं पहुँचा. उसकी इंतजारी में फेरों का लग्न तो टल गया, परन्तु बाद में एक अध्यापक लक्ष्मी प्रसाद द्वारा यह कार्यक्रम नागराजा के मन्दिर में सम्पन्न कराया गया. उसके बाद बारातियों ने भोजन किया और साढ़े दस बजे मंतू शाह के घर पर ढोल-नगाड़ों के शब्द गूंजने लगे. उन्होंने लाल खोल का डोला दुल्हन के लिए सजा कर पहले ही तैयार कर रखा था. थोड़ी देर में एक व्यक्ति 15 वर्षीय फूलदेई को गोदी में उठाकर लाया एवं डोले पर बैठा दिया. उसके भाइयों ने डोला उठाया और करीब डेढ़ सौ लोगों की बारात चल पड़ी. दूल्हा भी घोड़े पर बैठ कर चल दिया.
लेकिन बारात मंतू शाह के घर से थोड़ी दूर पहुँची थी कि सीटियों की आवाज आने लगी. लोगों ने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो पंगराणा, महरगाँव, पंडौखली, पलियाल गाँव आदि से हजारों लोग मारो, काटो, पकड़ो की आवाज करते हुए लाठी-डंडे लेकर भागते दिखाई दिये. देखते ही देखते घडियाल धार से पलियाल गाँव तक रास्ते व खेत लोगों से भर गये. सो, बारात पलियाल गाँव के रास्ते में ही रुक गयी. लाठी-डंडों से लैस उग्र भीड़ को देख कर पटवारी नरेन्द्र गैरोला के मुँह पर जैसे धारा-144 चिपक गयी, परन्तु दीपचन्द के साथ आये ठक्कर बापा छात्रवास के विद्यार्थी अनंतराम, मुरलीधर एवं मुकंद राम आगे आये और उन्होंने भीड़ को बारात से थोड़ा दूर रोक दिया. इनमें से अनंत राम अधिक चतुर था. वह बारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था. उसने भीड़ को बातों में उलझा दिया और बारात पर हमला नहीं करने दिया. उसका कहना था कि उनका कुछ नहीं बिगाड़ रहे हैं. अपने वर्ग का लड़की से शादी कर रहे हैं और अपने ही डोले में बैठा कर उसे ले जा रहे हैं. इसमें उनका क्या है?
मगर उन्मत्त भीड़ तर्कों से कहाँ मानने वाली थी? उनमें से पंगराणा के मालगुजार चन्द्र सिंह आगे आये और कहने लगे- पहले डोला-पालकी देवताओं की होती थी. फिर हम लोग डोला-पालकी में बैठ कर शादी करने लगे. अब हरिजन लोग भी अगर डोला-पालकी की शादी करने लगेंगे, तो उनमें और हममें क्या फर्क रह जायेगा? उन पर तो केवल हम सवर्ण लोग ही जा सकते हैं. यदि तुमने जाने की कोशिश की, तो सारे हरिजन मारे जाओगे.
बहुत देर तक पलियाल गाँव के रास्ते पर बारात बैठी रह गयी. आस-पास गाँवों के लोग खड़े थे. विभिन्न गाँवों में आयी हुई बारातें अपनी-अपनी वधूओं को लेकर वापस चली गयी थी और उनके साथ चार-चार, पाँच-पाँच बाराती भी चले गये थे. शेष इस बारात को रोकने के लिए यहीं डट गये थे. इसलिए यहाँ भीड़ बढ़ गयी थी ओर बाहरी लोगों के सहयोग से अधिक उत्साहित हो रही थी. इसी दौरान पलियाल गाँव में बडियार का रहने वाला हीरा मोची जूते बेचने के लिए आया हुआ था. उसने बारातियों से कहा कि आगे-आगे वह जायेगा और पीछे-पीछे वे लोग आएँ, देखते हैं, कितनों को वे मारते हैं. उसकी बात सुन कर बारातियों में जोश भर आया और वे जाने के लिए ढोल-नगाड़े बजाने लगे.
(Deepchand Shah Marriage)
प्रस्थान का बाजा सुनते ही सवर्णों ने जलाऊ लकड़ियों की ढेरों से एक-एक लकड़ी हाथ में उठा ली और हमला करने के लिए रास्ते पर आ खड़े हो गये. उनकी आँखों में उतरे खून को अनंत राम ने भाँप लिया था. सो उसने बारात को आगे जाने से फिर रोक दिया और दोनों पक्षों के बीच नये सिरे से वार्तालाप छेड़ दिया.
इस तरह शाम हो चली किन्तु सवर्ण रास्ते से ही हटने का नाम नहीं ले रहे थे. अंततः सबने निश्चय किया कि रात यहीं पर बितायी जाये. लेकिन जनवरी का महीना था और ठण्ड पूरे जोर पर थी. तिस पर पंगराणा करीब 200 मीटर की ऊँचाई पर था. इसलिए बारातियों ने बोरे, त्रिपाल, दरियाँ आदि मंगाकर तम्बू बना दिया तथा घास-फूस से छप्पर भी तैयार कर दिया. फिर आस-पास के दलित परिवारों से थोड़ा-बहुत ओढ़न-बिछावन ला कर रात काटने का इंतजाम किया. साथ ही आग जलाने के लिए लकड़ियों का प्रबन्ध भी कर दिया. इसके बाद राशन-पानी एवं बर्तन ला कर खाने-पीने का जुगाड़ किया गया. यहीं पर पटवारी ने सवर्णों द्वारा बारात रोके जाने की रिपोर्ट तैयार की और उसके साथ चार-पाँच लोगों को परगनाधिकारी के पास कीर्तिनगर भेज दिया. चूँकि तब गढ़वाल में मोटर सड़कें ऋषिकेश से उत्तरकाशी एवं ऋषिकेश से श्रीनगर-पौड़ी तक ही बन पायी थी, इसलिए हिंदाव पट्टी के इस दूरस्थ क्षेत्र से कीर्तिनगर पहुँचने के लिए पैदल चलने के अलावा और कोई उपाय नहीं था.
लगभग 50 किलोमीटर की दूरी उन्होंने दिन-रात चलकर तय की. इधर बारातियों ने पूरी रात चर्चाओं एवं कानूनी गुणा-भाग में काटी. सवर्ण भी ज्यादातर पलियाल गाँव में देव सिंह रतूड़ी के घर पर जम गये तथा कुछ अन्य घरों में रहे, ताकि ढोल-नगाड़ा बजाते ही वे लाठी-डंडे लेकर वारदात के लिए मौके पर खड़े हो सके.
उधर ढुंग गाँव में बारात के लिए भोजन तैयार था और उसके आने की प्रतीक्षा हो रही थी. देर रात वहाँ एक संदेशवाहक पहुँचा कि सवर्णों ने आज बारात रोक दी है, अब वह कल ही पहुंचेगी. इस समाचार को सुनकर गुमान शाह के घर का उत्सव सन्नाट में बदल गया. बारात रुकने की तो उन्हें परवाह नहीं थी, पर उन्हें भय था कि कहीं मार-काट न हो जाये ओर कुछ लोग मर न जायें. सो, वे अपने देवी-देवताओं से बारात को सकुशल लौटाने की मनौतियाँ करने लगा. उनके लिए पकाया हुआ भोजन उसे मिट्टी में दबाना पड़ा.
दूसरे दिन भी सवर्णों ने व्यवस्थित होकर पलियाल गाँव में अपने-अपने मोर्चे सम्भाल लिये थे. वे-दो-दो, ढाई-ढाई सौ के समूह में देव सिंह जाट के घर, पलियाल गाँव, टापर, घंडियाल धार, नागराजा धार, पंडौखली आदि जगहों पर बैठ गये तथा बारात उठने की प्रतीक्षा करने लगे. बारातियों ने भी छप्परों में भोजन बनाया और फिर खा पी कर 11 बजे तक चलने के लिए ढोल-नगाड़े बजाने लगे, तो सवर्णों ने अलग-अलग मोर्चे से सीटियाँ बजानी शुरु कर दी तथा बारात के रास्ते में खड़े हो गये. फिर वही पिछले दिन वाली बहस शुरू हो गयी. पूरा दिन इसी तरह गुजर गया और रात पुनः पलियाल गाँव के रास्ते में बितानी पड़ी. उधर गुमान शाह को खबर भेजी गयी कि बारात आज भी नहीं लौटेगी. दूसरी तरफ सवर्णों ने भी पण्डित अमर चंद की अध्यक्षता में सभा की एवं संकल्प लिया कि वे डोला-पालकी के साथ बारात नहीं जाने देंगे.
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इसके बाद तो दोनों पक्षों का हर दिन एक जैसा गुजरने लगा. बारात के लोग सुबह उठ कर अपने लिए भोजन इत्यादि बनाते और खाने-पीने के बाद ढोल-नगाड़े, बाजे-गाजे बजा कर चलने की तैयारी करते, तो सवर्ण लाठी-डंडे ले कर मोर्चे पर खड़े हो जाते तथा प्रतिदिन अध्यक्ष बदल-बदल कर सभाएँ करते. 17 जनवरी 1959 को उन्होंने लैणी गाँव के शेर सिंह रावत को अपनी सभा का अध्यक्ष बनाया. उनकी समझ में बारातियों के तर्क आने लग गये थे. उन्होंने सभा से कहा- “न तो वे तुम्हारी लड़की ले जा रहे हैं और न उत्सव मना रहे हैं. तुम लोग आपत्ति उस चीज पर करो, जो तुम्हारी हो. अब हिन्दुस्तान आजाद हो गया है. सबको बराबर अधिकार है. तुमने तीन-चार दिन उनकी बारात रोक दी है अब उन्हें जाने दो. लेकिन तब तक चन्द्र सिंह, देव सिंह, गोपी आदि ने कहा कि उनका बहुमत है और बहुमत से ही सरकार चलती है, कानून बनते हैं. ज्यादा लोग जो बात कहेंगे, वही सरकार को करनी पड़ेगी.” अतः शेर सिंह रावत की बात भीड़ के शोर में खो गयी. . इतने में कीर्तिनगर से पाँच पुलिस वाले पहुँच गये. उन्होंने सवर्ण नेताओं से बात की तथा बारात को जाने देने का आग्रह किया. लेकिन उन्होंने कहा कि यहाँ पुलिस ही नहीं, फौज भी आ जाये तो भी वह डोला-पालकी के साथ बारात को नहीं जाने देंगे. इसके बाद पुलिस वालों ने अपनी रिपोर्ट तैयार की और कुछ लोगों को फिर कीर्तिनगर भेज दिया. दूसरी तरफ सवर्णों की संख्या बढ़ती जा रही थी और वे हाथों में लाल व काले झण्डे लेकर जुलूस निकालने लगे. साथ ही ‘डोमो का नाश हो, सवर्णो की जय हो’ जैसे नारे लगाते तथा पहाड़ की ऊँची-ऊँची चोटियों से इकहरा शंख बजाते, जो अक्सर शवयात्रा के दौरान बजाया जाता है. इसके बाद 20 जनवरी, 1959 को 11 पुलिस वाले फिर पंगराणा पहुँच गये, किन्तु सवर्ण लोग टस से मस नहीं हुए और उन्होंने बारात को नहीं जाने देने का संकल्प दोहराया. उधर ढुंग के गुमान शाह का परिवार बारात की इंतजार करता रहा और कीर्तिनगर का प्रशासन जड़ हो कर बैठा रहा. आखिर धरने के नौवें दिन 50 पुलिस कर्मियों का एक बड़ा जत्था पंगराणा पहुँच गया, परन्तु सवर्णों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी.
24 जनवरी, 1959 को ग्यारह गाँव पट्टी के पुरवाल गाँव में सेठ जगत राम की माँ का वार्षिक श्राद्ध था. उसमें दूर-दूर के गाँव से लोग भात खाने के लिए पधारे थे. पंगराणा में भीड़ का नेतृत्व कर रहे ग्राम चांजी के चन्द्र सिंह रावत को ग्यारह गाँव के सवर्णों को अपने पक्ष में करने का यह उपयुक्त अवसर जान पड़ा. उन्होंने पूरी पट्टी के लोगों को एक साझा पत्र लिखा कि उनके यहाँ की बारात कई दिनों से पलियाल गाँव में रुकी पड़ी है, वे उसे लेने के लिए पहुँच जायें. यों बारात रुकने की चर्चा पूरे ग्यारह गाँव-हिंदाव में थी. रावत का पत्र श्राद्ध में सामूहिक रूप से पढ़ा गया और भोजन करने के उपरान्त करीब एक हजार लोग कई जोड़े ढोल-नगाड़े ले कर बारात लेने के लिए हिंदाव की तरफ चल पड़े. दूर से ही ढोल-नगाड़ों व रणसिंघों की आवाज सुन कर धरने पर बैठे बाराती चौंक गये. उन्होंने सोचा की ग्यारह गाँव के सवर्ण भी यहाँ के सवर्णों की सहायता के लिए आ रहे हैं. सो, पुलिस वालों ने वर-वधू की सुरक्षा के लिए एक विशेष घेरा बना दिया तथा ग्यारह गाँव की जनता को लगभग 300 मीटर दूर ही रोक दिया. उन्हें कहा गया कि वे दो-दो व्यक्ति करके बारातियों से बात कर सकते हैं. लेकिन उस दिन दीपचन्द के बड़े भाई भरपूर सिंह व श्वसुर मंतू शाह परगनाधिकारी के पास कीर्तिनगर गये हुए थे, तो बात करने के लिए वर-वधू के अलावा कोई सक्षम व्यक्ति यहाँ मौजूद नहीं था. बहरहाल, सबसे पहले ढुंग गाँव के भोपाल सिंह और इन्द्र सिंह मालगुजार (सयाणा) बात करने के लिए पहुंचे.
भोपाल ने आते ही दीपचन्द से पूछा-बेटा, तुमको यहाँ किसने और क्यों रोक रखा है? अगर तुम पंगराणा के एक-एक पत्थर को भी अपने साथ ले जाना चाहते हो, तो मेरे साथ इतनी जनता है कि मैं सब ले चलूँगा.
(Deepchand Shah Marriage)
दीपचंद ने उत्तर दिया- “चाचा जी, हमारी बारात जिस ढंग से डोला-पालकी के साथ सज-धज कर यहाँ आयी हैं, उसी ढंग से हम वापस जाना चाहते हैं. लेकिन यहाँ के लोग कहते हैं कि वे हरिजनों की डोला-पालकी वाली बारात नहीं जाने देंगे. इसलिए उन्होंने हमें यहाँ रोक रखा है. यदि आप लोग हमें डोला-पालकी के साथ ले जा सकते हैं, तो हम जाने को तैयार हैं.
मगर उन्होंने जवाब दिया-‘हम डोला-पालकी के अलावा सब-कुछ ले जाने को तैयार हैं.” इस पर दीपचन्द ने कहा- यहाँ न तो बड़े भाई हैं, न श्वसुर हैं. वे कीर्तिनगर गए हुए हैं. वहाँ से अभी और पुलिस आने वाली है. अगर आप लोग डोला-पालकी ले जा सकते हो, तो ठीक है. वरना हम तभी आयेंगे, जब सारा सामान आयेगा.’
इसके बाद मातबर सिंह लुठियागी बात करने के लिए आये. उन्होंने भी डोला-पालकी ले जाने में असमर्थता व्यक्त की, तो दीपचन्द ने भी जाने से इनकार कर दिया. फिर किसी ने कहा कि वर-वधू को जबरदस्ती कंधे परे उठा कर ले चलो, तो दुल्हन फुलदेई तुरन्त डोले कर बैठ गयी. आखिर ग्यारह गांव के लोग अपने ढोल-नगाड़ों के साथ खाली हाथ वापस चले गये. वस्तुतः वे लोग भी सवर्ण थे और दलितों के वर-वधू को डोला-पालकी में बैठा कर ले जाने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी. असल में वे हिंदाव पट्टी के सवर्णों की मदद करने आये थे. बाद में दीपचद का तर्क उनकी समझ में आने लगा, परन्तु उन्होंने साफ मना कर दिया. इन्द्र सिंह मालगुजार के साथ तो हाथापाई भी कर डाली.
अब बारात का धरना ज्यों-ज्यों लम्बा चलने लगा, त्यों-त्यों राशन-पानी की किल्लत भी होने लगी. पहले तो मंतू शाह ने अपने घर का सारा राशन बारातियों को खिला दिया, पर बाद में जब कमी पड़ने लगी, तो दीपचन्द शाह की दो बहनों के घर से राशन आने लगा. वे भी पंगराणा में ब्याही गयी थीं, लेकिन 100 लोगों की बारात तथा लगभग इतने ही पुलिस वालों को सुबह-शाम खाना खिलाना कोई मजाक नहीं था. वह भी तब, जब आस-पास के सवर्ण दुकानदारों ने उन्हें राशन देना बन्द कर दिया था. तब मंतू शाह ने घनसाली से दो बार बारह-बारह खच्चरों से राशन मँगवाया. वे सोने का काम करते थे, इसलिए सवर्णों से अधिक धन-सम्पत्ति रखते थे और वक्त-बेवक्त लोगों को रुपया उधार पर भी देते थे. अगर दूसरे क्षेत्रों की बारातें इस क्षेत्र में नहीं आयी होती, तो शायद पंगराणा एवं उस आस-पास के गाँवों के लोग मंतू की बेटी का डोला नहीं रोकते. वे तो उन पर समय-समय पर कुछ न कुछ एहसान करते रहते थे. दीपचन्द के पिता गुमान शाह भी सोने-चाँदी का काम करते थे और ढुंग गाँव में ऐसी ही हैसियत रखते थे.
बहरहाल, 26 जनवरी, 1959 को भरपूर सिंह, मंतू शाह और अन्य लोक कीर्तिनगर से लौटे, तो 10 पुलिस वालों को साथ लाये. लेकिन दो सप्ताह बाद भी बारात के आगे बढ़ने के आसार नहीं दिखाई दिये. इतने में मौसम खराब हो गया और रिमझिम करके बरसने लगा. अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण जल्द ही पंगराणा, पुलियाल गाँव, घंडियाल धार, लैणी, मुडिया गाँव, बडियार आदि सारे गाँव बर्फ से ढक गये. इस स्थिति में छप्परों में तो दूर, घरों में रहना भी दूभर हो गया. मगर सभी बाराती आग के सहारे छप्परों में डटे रहे. इसके अगले दिन आसमान साफ हुआ, तो दोनों पक्षों में चहल-पहल शुरू हो गयी, परन्तु अपने-अपने मोर्चों से हटने को कोई तैयार नहीं था.
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पन्द्रहवें दिन सवर्णों ने जोत सिंह मियाँ को अपनी सभा का अध्यक्ष बनाया. उसने कहा कि अगर वर-वधू में से किसी एक को मार दिया जाये, तो फिर बिना डोला-पालकी के सब अपने आप भागते हैं. इतनी भीड़ में से वे किसको पकड़ेंगे? इस योजना का पता चलते ही बारातियों ने वर-वधू की सुरक्षा का विशेष इंतजाम कर दिया तथा पुलिस को भी उनकी सुरक्षा में लगा दिया. लेकिन संयोग देखिये कि दो दिन बाद नौलचामी पट्टी से खबर आयी कि मियाँ की पत्नी को किसी ने जखन्याली में रास्ते पर मार कर फेंका हुआ है. इससे सवर्णों में हड़कम्प मच गया और मियाँ मोर्चा छोड़ तुरन्त जखन्याली चला गया. उसके बाद करीब 200 लोग वहाँ चले गये. अतः धरना-स्थल पर सवर्णो का दबाव थोड़ कम हो गया. किन्तु प्रकृति भी जैसे बारातियों की परीक्षा लेने पर उतारू थी. सतरहवें दिन दोबारा मौसम खराब हो गया तथा बारिश के बाद फिर बर्फ गिरने लगी. लोग छप्परों में दुबक गये.
पहली फरवरी, सन् 1959 को धरना स्थल पर खबर पहुँची कि कीर्तिनगर के परगनाधिकारी, तहसीलदार तथा बड़ी संख्या में पुलिस दल कठूड़ में पहुँच गये हैं. इस खबर से बारातियों का उत्साह बढ़ गया लेकिन चांजी के चन्द्र सिंह रावत ने तहसीलदार को जा बताया कि कल बगर गाँव में एक व्यक्ति का वार्षिक श्राद्ध है. उसमें हिंदाव पट्टी के ज्यादातर लोग मौजूद रहेंगे, अतः वहाँ जाकर लागों से बात की जा सकती है कि बारात कैसे आगे बढ़े. तहसीलदार दिगंबर दत्त थपलियाल ने उसकी बात मान ली और 2 फरवरी को पुलिस बल के साथ बगर गाँव चले गये. थपलियाल ने समझा-बुझा कर और थोड़ा प्रशासनिक रौब दिखा कर लोगों को इस बात के लिए राजी कर लिया कि कल पलिया गाँव से बारात डोला-पालकी के साथ प्रस्थान करेगी, पर आम रास्ते से नहीं जायेगी. इसके बाद वे पलियाल गाँव पहुँचे और भरपूर शाह से मिल कर बोले कि कल सुबह 10 बजे तैयार रहना, बारात जायेगी. यह कह कर वे रात को कठूड़ अपने कैंप में चले गये.
3 फरवरी, सन् 1959 को तहसीलदार थपलियाल भारी पुलिस बंदोबस्त के साथ सुबह पलियाल गाँव पहुँचे. उन्होंने दूल्हे के भाई भरपूर शाह से लिख का माँगा कि जिस रास्ते ले जायेंगे, वह उन्हें मंजूर होगा. इसके बाद ढोल-नगाड़े एवं रणसिंघे बज उठे. लेकिन सवर्ण लोग मोर्चे पर नहीं दिखाई दिये. करीब 200 लोग देव सिंह रतूड़ी के घर पर इकट्ठा होकर शोकमग्न नजर आ रहे थे. दुल्हन को डोले में बैठा कर चार लोगों ने उसे उठाया और दूल्हे को घोड़े पर बैठा कर बारात चल दी. साथ ही दूल्हे-दुल्हन के अगल-बगल हो कर तहसीलदार, कानूनगो एवं पुलिस बल चलने लगे. यद्यपि दुल्हन को डोले पर देखकर सवर्णों के सिर झुके हुए थे, किन्तु उन्हें हल्का-सा संतोष था कि बारात आम रास्ते को छोड़कर शंखनाथ होते हुए अंथवाल गाँव के नीचे की ऊबड़-खाबड़ पगडंडी से जा रही है. फिर भी लोगों ने सीटियाँ बजायीं तथा उनकी औरतों ने डोले पर छीना-झपटी की, परन्तु पुलिस बल के कारण वे ज्यादा नुकसान पहुँचाने में सफल नहीं हो सकी. पंगराणा के चन्द्र सिंह मालगुजार की पत्नी पर तो देवता आ गया, जिससे वह जोर-जोर से किलकारियाँ मरने लगी. आगे-आगे बारात जा रही थी, तो पीछे-पीछे औरतों का जुलूस चल रहा था.
जब बारात बहुत आगे निकल गयीं तो पीछे से सारे लोग उमड़ आये. वे सेटियाँ बजाते, पत्थर फेंकते एवं गालियाँ बकते थे. अंथवाल गाँव के नीचे चांजी के चन्द्र सिंह रावत ने दूल्हे के मामा हीरा सिंह तथा दलित नेता जगुदास के साथ मारपीट कर दी. बीच-बचाव करते समय किसी ने घोड़ा पुश्ते (बिटा) से नीचे गिरा दिया, पर वह बच गया. फिर भी बारात आगे बढ़ती रही. इसके बाद रवासा सेरा में कुछ लोगों ने रास्ता रोक दिया कि बारात सड़क से नहीं, बाहर ही बाहर पगडंडी से जायेगी. बारात जब आगे नहीं बढ़ सकी, तो दुल्हन फूलदेई को गुस्सा आ गया, उसने तहसीलदार और पुलिस दरोगा को फटकारते हुए कहा-“जैसा ये लोग कह रहे हैं, वैसा ही आप लोग कर रहे हैं. अगर आप लोगों में हिम्मत नहीं है, तो क्यों उठाया था हमें वहाँ से? हटाओ इन्हें रास्ते से ! यदि आप लोगों से नहीं हटते, तो मैं इन्हें हटाती हूँ.”
यह सुनकर तहसीलदार ने हवाई फायर का आदेश दिया, लेकिन तब तक कानूनगो जीत सिंह कठैत आये और एक-एक करके उन्होंने सभी उत्पातियों को धक्के मार-मार कर रास्ते से हटा दिया. फिर बारात यहाँ से आगे बढ़ी, तो चरी गधेरे में बकरी के ऊन का दौंखा (एक विशेष प्रकार का पहाड़ी वस्त्र) पहने एक बुढ़ा आदमी कहीं से आया और रास्ते में लम्बा लेट कर कहने लगा- मैं यहीं पर मर जाऊँगा, पर बारात नहीं जाने दूँगा.’ उसे भी खींच कर कठैत ने झाड़ी में फेंक दिया. इसके बाद बारात मोलखंडा की चढाई पर पहुँची, तो थोड़ा रुक गयी. इतने में किसी ने डोले का खोल फाड़ दिया. यहाँ से बारात पुरवाल गाँव में आयी, तो वहाँ के लोगों ने रास्ता रोक दिया. उनसे बातचीत करके तहसीलदार ने बारात मुख्य रास्ते पर निकाल दी, परन्तु डोला गाँव के बाहर से घुमा कर रास्ते पर लाया गया.
(Deepchand Shah Marriage)
करीब 10 हजार लोग हिंदाव पट्टी से बारात के पीछे-पीछे भौण की धार तक आये और वहाँ पर खड़े होकर ग्यारह गाँव के लोगों को जोर-जोर से आवाज देने लगे कि इस बारात को रोको, यह डोला ले कर आ रही है. फिर उन्होंने धू-धू करके इकहरा शंख बजाया. उनकी आवाजें सुन कर ढुंग के भूप सिंह बिंधवाण, धन सिंह बुढेरा, श्यामा सिंह कैंतुरा आदि कुछ लोग मजेठी सेरा से छलाँगें मार-मार कर भौड़ियों की बाड़ी तक बारात रोकने के लिए दौड़े, परन्तु साथ में सशस्त्र पुलिस बल देख कर उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. फिर वे आगे नहीं गये. इक्कीसवें दिन शाम को जब बारात गुमान शाह के घर पहुंची तो उन्होंने विजय का शंख बजाया तथा अपने देवी-देवताओं का स्मरण किया. वस्तुतः यह विवाह नहीं, एक आन्दोलन था. इसमें विघ्न डालने पर करीब 700 लोगों पर मुकदमा चला, परन्तु उन्हें मात्र तीन-तीन सौ रुपये जुर्माना लेकर छोड़ दिया गया. मगर सबसे बड़ी बात यह हुई कि इस विवाह के बाद ग्यारह गाँव-हिंदाव में कोई सवर्ण डोला-पालकी देख कर दलितों की बारात रोकने की हिम्मत नहीं जुटा सका. हाँ, बहुत दिनों तक यहाँ के लोगों की जुबान पर गीत तैरता रहा- “भुजेलौं की बड़ी, फूलदेई का डोला पर कवारोली पडी-फलदेई के डोला पर काँव-काँव मच गयी.” इस तरह दीपचन्द शाह और फूलदेई ने सचमुच एक इतिहास रचा. दलित चेतना के आन्दोलन में उनकी बारात को हमेशा याद किया जायेगा.
(Deepchand Shah Marriage)
–कुंवर प्रसून
कुंवर प्रसून का यह लेख युगवाणी के अप्रैल 2002 के अंक से साभार लिया गया है.
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3 Comments
Tripan Bhandari
सामाजिक रूढियों की बहुत ही रोचक ऐतिहासिक जानकारी ।
देवेन्द्र
आश्चर्य विस्मय से भरी दास्तान। ईश्वर के द्वारा बनाए हुए सब मनुष्य समान हैं, क्यूं नहीं समझ पा रहे आज भी हम। कभी धर्म की कभी जाति की कभी रंग की कभी क्षेत्रियता की यह लड़ाई आज भी समाप्त नहीं हो पा रही।
श्रियम
एक बात तो कहनी पड़ेगी की जिसने सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार कर सारा संघर्ष किया, इस पूरे संघर्ष के Protagonist ( मुख्य किरदार) जिन्होंने पूरे मुल्क से लोहा लिया , अंत में एसडीएम ने कहा की भरपूर सिंह ये सब तुम्हारी वजह से हुआ है अब हम तुम्हें गोली मार देंगे , फिर भरपूर सिंह ने अपनी छाती आगे करके कहा ” मारो मुझे गोली, मैं नहीं डरता मारने से पर मेरे भाई की बारात डोली के साथ ले जाऊंगा , इनका समर्पण देखकर सारी गोलियां नीचे झुकी और सभी ने कहा की ” अब इस बारात को मत रोको ”
ऐसा आई हमने आज तक कोई नही देखा।
यदि आज वह एसडीएम जीवित होते तो सबको पता चलता की भरपूर सिंह कौन थे।