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पिछली कड़ी – दारमा घाटी में घरों के बीच का रास्ता स्वप्नलोक जैसा लगा
सरिता ने बताया कि, “बारह वर्ष की इस बार की शिव पूजा में गांव में सारे घर मेहमानों से अटे हैं. वैसे आप लोगों के रहने की व्यवस्था पंचायत घर में है.” पुश्तैनी घर जिसमें न जाने कितनी यादें बसी थीं, उसके टूट जाने का दर्द सरिता के चेहरे में साफ झलक रहा था.
(Darma Village Travelogue Keshav Bhatt)
सरिता की बातों से हमारे चहरे के भावों को सरिता की मॉं समझ गई थी बोली, “बेटा! यह सब तो यहां होने ही वाला ठैरा. पहले हम सभी गांव-घरों में रहते थे तो मकान भी रहने वालों के साथ चहकते रहता था. जाड़ों के बाद जब यहां आना होता था तो दो-एक दिन तो मकान की हालत ठीक करने में ही बीत जाते थे. अब तो सालों तक गांव आना भी नहीं हो पाता है. इस बार की बारह साल की बड़ी शिव पूजा में मैंने गांव में जाने का पक्का मन बना लिया तो बेटे-बेटियों ने तिदांग से एक घोड़ा करवा दिया. बेटा! अब बूढ़ी हो गई हूं और घुटने भी जबाब देने लगे हैं. पहुंच ही गई किसी तरह से अपनी थाती में सिर नवाने. पुराने मकान ने जाना ही था. वर्षों से उसकी सुध नहीं ली. मुझमें जब तक ताकत रही मैंने किया, अब बच्चे जो कुछ करते हैं. इन्हें भी कहां फुरसत मिलने वाली हुई. हिमालय की गोद में यह सब तो होने ही वाला हुआ.”
आंगन में से बच्चे, जवान, बूढ़ों का आना-जाना लगा था. कुछेक बुजुर्ग हमें कौतुहल से ध्यान से देख पहचानने की कोशिश करते तो सरिता की मॉं उन्हें मुस्कुराते हुए कहती, मेहमान हैं. इस पर वह भी हमें आर्शीवाद दे मुस्कुराते हुए चले जाते.
“सरिता चलें फिर पंचायत घर को. देख आते हैं वहां भी.” हरदा ने कहा तो सरिता ने तुरंत हमें गांव की गलियों को पार कराते हुए पंचायत घर में पहुंचा दिया. पंचायत घर नया बना था, जिसके निर्माण के लिए गांव वालों ने सामूहिक रूप से मदद की थी. पंचायत घर अंदर से हॉलनुमा था. कुछेक लोग रजिस्टर खोले हर बारह वर्ष में होने वाली शिव पूजा के खर्चे का हिसाब लिख-समझ रहे थे. एक कोने में बिस्तरों का साफ-सुथरा ढेर पड़ा दिखा. सरिता हमें वहां छोड़ शिव पूजा की तैयारियों के लिए चली गई. थोड़ा आराम कर लेते हैं कहते हुए हरदा और मैं कोने में रखे गद्दों को बिछा उसमें पसर गए. बाहर मौसम खराब होने लगा था तो जल्दी ही कमरे में लोगों का जमावड़ा होने लगा. हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा स्थानीय रं भाषा में चल रही बातें हॉल में गूंजने लगीं तो हम उठकर बैठ गए. हॉल में ज्यादातर लोग जड़ी-बूटी मिश्रित च्यक्ति की मस्ती में मस्त थे. हों भी क्यों नहीं. इतने सालों बाद आज वे सब अपनी जन्मभूमि में मिल जो रहे ठैरे. उन्हें अपना बचपन याद जो आने लगा था.
यह सब देख मुझे दारमा घाटी के नागलिंग गांव के मित्र व बड़े भाई करन सिंह नागन्याल की बातें याद हो उठी जो अकसर नागलिंग गांव के ऊपर की ब्यासी घाटी का जिक्र करते हुए कहते रहते हैं, “मन करता है कि एक लंबी छुट्टी लेकर भेड़-बकरियों के अनवालों के साथ लंबे वक्त तक बुग्यालों में ही पसरा जाया जाए. यहां का ब्यासी बुग्याल हजारों जड़ी-बूटियों समेत नाना किसम के फूलों को अपनी गोद में समेटे बहुत ही ज्यादा मखमली हैं. यहां बुग्याल के सामने के उच्च हिमालयी पहाड़ में ऊँ पर्वत की तरह ही बर्फ बिखरी रहती है. एक बार फिर से मैं अपना बचपन अपने गांव-घाटियों में गुजारना चाहता हूं. देखें कब हो पाता है.”
बाहर बारिश तेज होने लगी थी. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में शाम को बारिश होना आम बात है. अपने आराम को गद्दों में छोड़कर हम दोनों बाहर बरामदे में आ गए. घंटेभर तक मूसलाधार बरसने के बाद जब बारिश थमी तो सरिता के भाई ने हमें अपने साथ चलने को कहा. पंचायत घर के आंगन को पारकर वह हमें नीचे की ओर ले गए जहां एक शिलाखंड को दिखाते हुए उन्होंने बताया, “शिव जब अपने गणों के साथ इस गांव में पधारे थे तब सीपू गांव के प्रवेश द्वार पर उनके चरण चिन्ह बन गए. यहां गांव वाले शिव च्यू नामक देव की पूजा करते हैं. यह पूजा तिब्बती और हिन्दू प्रथा से की जाती है और इस पूजा में किसी भी प्रकार की बलि नहीं होती है.” उन्होंने गांव के ऊपर के पीछे पर्वत शृंखलाओं की ओर इशारा करते हुए बताया, “सौ साल पहले महादेव शिव की पूजा परंपरागत ढंग से महादेव की गुफा में ही जाकर की जाती थी. बाद में कई श्रद्धालु वहां तक नहीं पहुंच पाते थे तो पुजारी और लोगों ने महादेव की गुफा से मिट्टी और शिवलिंग लाकर गांव में उसी दिशा पर एक मंदिर बना उन्हें स्थापित कर दिया. तब से हर साल छोटी पूजा और बारह वर्ष में बड़ी पूजा के अवसर पर गांव वासी शिव महोत्सव पूजा करते आ रहे हैं.”
(Darma Village Travelogue Keshav Bhatt)
शिलाखंड को ध्यान से देखा तो उसमें एक पग के होने का आभास हुआ. गांव के ऊपर पेड़ों के झुरमुट के बीच उस मंदिर को देखने की सहमति हम दोनों में बनी. गांव की गलियों से होते हुए हम सरिता के घर के आंगन में पहुंचे, वहां सरिता हमें मिल गई. वह समझ गई कि पंचायत घर में शांति न होने की वजह से हम कुछ परेशान हैं. “दद्दू आप लोग वह आगे मंदिर है वहां घूम आइये. आगे जाना चाहते हैं तो दाहिनी ओर ऊपर एक बहुत खूबसूरत ताल है, वहां भी जा सकते हैं. उससे आगे नहीं जाना है आपको. गांव में पूजा के वक्त गांव की सीमा से बाहर जाना मना होता है.” मुस्कुराते हुए सरिता ने हमें कहा. उसे आश्वस्तकर हम दोनों चल पड़े.
गांव की सीमा पर लगा हुआ एक नया भव्य मंदिर दिखा. “ओ भट्टजी! यहां आओ” की आवाज सुनकर मैंने चौंकते हुए मंदिर के आहते की ओर देखा तो पुराने परिचित डॉ. रतन सिंह सिपाल दिखे. डॉ. सिपाल कई सालों तक बागेश्वर जिला अस्पताल में बतौर सर्जन अपनी सेवाएं देने के बाद अब देहरादून में रहते हैं. डॉ. सिपाल बहुत ही आत्मीयता से गले मिले. उन्होंने गांव के बड़े-बुजुर्गों से मुखातिब हो बताया, “ये भट्टजी हैं बागेश्वर वाले. अकसर ये हिमालय में ही विचरते रहते हैं.”
डॉ. सिपाल ने चाय के लिए आवाज लगाई तो एक युवा वहां बैठे सभी के लिए चाय ले आया. मंदिर में चाय पीने के बाद हम आगे पुराने मुख्य मंदिर की ओर चल पड़े. वहां मंदिर में शिव की नई मूर्ति की स्थापना की गई थी. बताया गया कि इस भारी भरकम मूर्ति को तिदांग से भक्तगणों की टोली कंधों में रखकर रास्ते में बिना विश्राम किए सीपू गांव के मंदिर तक लाई. “शिवजी को यदि रास्ते में कहीं नीचे जमीन में रख दिया जाता तो फिर वह वहीं विराजमान हो जाते. उन्हें डोली में बारी-बारी से कंधे बदलकर लाये.” गांव के बड़े-बुजुर्गों के तर्क हुए.
मंदिर के आगे मखमली घास में हम दोनों पसर से गए. आसमान में फिर से छोटे-छोटे बच्चेनुमा बादलों की आँख-मिचौली चलने लगी. “स्स्स्स्सी… स्स्स्स्स्स्सी” सीटी की आवाज कानों में गूंजी तो एक पल के लिए लगा जैसे हम ट्रेनिंग कोर्स में आए हों.
(Darma Village Travelogue Keshav Bhatt)
उत्सुकता से नीचे की ओर झांका तो डॉ. सिपाल गले में डोरी डाली सीटी को बजाते हुए चैलेंजर माइक से सभी को खाना खाने के लिए बोल रहे हैं. वापस गलियों को नापते हुए गांव में एक किनारे में पहुंचे तो हरे रंग का एक बड़ा सा टेंट दिखा. यह व्यवस्था तिब्बत सीमा के प्रहरी आईटीबीपी की ओर से की गई थी. टेंट इतना बड़ा था कि उसमें एक साथ पचास लोग समा सकते थे.
उच्च हिमालयी गांवों में दोपहर के बाद बारिश भी अपने होने का एहसास कराती रहती है और गांव में बारह साल बाद बड़ी शिव पूजा के चलते आईटीबीपी ने भी इस बात को ध्यान में रख अपना सहयोग करना फर्ज समझा. वैसे भी हिमालय के निर्जन स्थान में कभी-कभार इस तरह के आयोजनों से आईटीबीपी के जवानों को अपने जिंदा होने का भान होने वाला हुआ. वरना बॉर्डर की ड्यूटी और घर की जिम्मेदारी के बोझ के साथ ही दिन-रात बार्डर में कंधे में रकसेक और बंदूक ही उनके अपने हुए, जिसके साथ ही अकेले में वे अपने आप से गपियाने वाले हुए.
टेंट के भीतर पालथी मार बैठे तो तुरंत ही थाल में भोजन परोस दिया गया. भोजन का पहला कौर मुह में डाला तो उसका स्वाद जायकेदार था. हिमालय की गोद में बसे लोग जब दिल से इतने मीठे होते हैं तो भोजन भी मीठा ही होगा न.
बाहर बारिश की रिमझिम झड़ी लगने लगी थी. भोजन करने के बाद हम गांव की गलियों को पारकर पंचायत घर की ओर चल पड़े. गलियों से गुजरते हुए देखा कि गांव में बने मकान बड़ी सुंदर कारीगिरी के साथ बनाए गए हैं. ज्यादातर मकान दोमंजिले हैं. मकान का निर्माण स्थानीय पत्थर, लकड़ी व घास फूस से किया गया है. कुछ मकान तीन मंजिले भी दिखे. बरामदे से जुड़े निचली मंजिल का उपयोग पहले के समय में भेड़-बकरियों, कृषि व अन्य उपकरणों के रख-रखाव के लिए किया जाता होगा. गांव में हर मकान के सामने छोटा-बड़ा आँगन और उसके किनारे पर शौचालय दिखा. पहले इन आंगन का उपयोग खलिहान आदि के लिए किया जाता रहा होगा. मकानों की निचली मंजिल में नीचे दो दरवाजों के साथ ही दोमंजिले के लिए एक मुख्य दरवाजा दिखा. छोटी खिड़कियों के साथ ही एक रोशनदान हर मकान में बना दिखा.
एक बड़े से घर के आंगन में देखा कि दोमंजिले घर की पाथर वाली छत को हटाकर फाइबर में तब्दील कर दिया गया है ताकि बर्फबारी में घर को नुकसान कम हो. घर काफी सुंदर लग रहा था. तभी उस घर की खिड़की से आवाज आई, “भट्टजी! यहां अंदर आओ न.” डॉ. सीपाल ने आवाज लगाई तो हम दोनों उनके दोमंजिले की सीढ़ीयों को नापते हुए अंदर हो लिए. अंदर के एक कमरे की चाख में बने चूल्हे के पास हम भी पालथी मारकर बैठ गए. चूल्हें में चढ़ी चाय खौल रही थी. व्हिस्की की बोतल और गिलास सामने रख डॉ. साहब ने आत्मीयता से नजरें मिलाईं तो मैंने गांव की बहुमूल्य ‘ज्यां’ चाय को तब्बजो दी. मक्खन वाली नमकीन चाय जिसे ज्यां कहते हैं हमारे हाथ में मिली तो उसके स्वाद में हम डूब गए. डॉ. साहब अपने परिजनों के साथ इस महोत्सव में शामिल होने आए थे. बातचीत में पता चला कि गांव में हर परिवार को महोत्सव की कुछ न कुछ जिम्मेदारी सौंपी गई है और इसके देखरेख का जिम्मा बकायदा वो खुद संभाले हुए हैं. चाय पीने के बाद डॉ. साहब से गांव में घूमने की बात कह हम वहां से बाहर निकल गए.
(Darma Village Travelogue Keshav Bhatt)
सांझ को बारिश थमी तो मौसम में ठंडक आ गई. धीरे-धीरे कोहरे ने समूची घाटी को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया. “दद्दा आप लोग टेंट में रहना चाहोगे, पंचायत घर में शोर बहुत हो रहा है. घर में भी जगह कम पड़ गई है. मेहमान भी खूब आ गए इस बार.” सरिता ने पूछा तो लेसर यांग्ती में कोहरे की अठखेलियों से मेरा ध्यान हट गया. टेंट की बात सकूनदायी थी तो तुरंत ही हमने इस बात पर हामी भर दी.
गांव के खेतों में लगे कुछ टेंटों में सरिता ने खोजबीन करनी शुरू कर दी कि कौन सा टेंट खाली है. सभी में सामान दिखा तो वह हमें गांव के दूसरे छोर की ओर ले चली. वहां एक टेंट खाली मिला तो पंचायत घर से हमने मिलकार कंबल-बिस्तर लाकर उसमें हम दोनों ने अपना कब्जा जमा लिया. रात गुजारने की व्यवस्था हो जाने के बाद सरिता समेत हमने राहत की सांस ली.
दिन में खाना खूब खाया था तो रात में भूख नहीं लग रही थी. इस पर हरदा और मैंने पेट को आराम देने का मन बना लिया. अंधेरा घिरा तो सोलर लाइट से गांव जगमगाने लगा था. अचानक हरदा टेंट से बाहर निकलते हुए बोले, “इतनी दूर हिमालय की गोद में आए हैं. ज्यां का स्वाद तो ले लिया लेकिन यहां घर-घर में बनने वाली मीठी दवा का स्वाद नहीं लिया तो क्या किया. मैं आता हूं दवा को लेकर अभी.” यह कहकर वह चल दिए. बीसेक मिनट बाद हाथों में हल्दी के रंग जैसी रंगी जड़ी बूटी से बनी एक बोतल च्यक्ति लेकर वह टेंट में आ गए.
गिलास में भरकर हरदा ने जब चुस्कियां ली तो मैंने भी बिस्तर छोड़ बेशर्म हो अपना गिलास सामने कर दिया. घर की बनी जड़ी-बूटी मिश्रित च्यक्ति स्वादिष्ट लगी. पूरा गांव जब झूम रहा था तो हम क्यों पीछे रहते! बोतल को खत्म करने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा. बाहर नए मंदिर में पूजा शुरू हो गई थी. इस पर हरदा मंदिर की ओर पूजा देखने चले गए. आधे घंटे बाद जब वह वापस आए तो बोले, “जागर चल रहा है. दारमा और तिब्बत का मिलाजुला अदभुत जागर देखने को मिला.”
(Darma Village Travelogue Keshav Bhatt)
ठंड बढ़ती जा रही थी. हमने टेंट की चैन बंद कर कंबलों को आपस में एककर एकाकार हो गपशप में लग गए. नींद आने को ही थी कि अचानक टेंट खोल किसी ने मोबाइल की रोशनी अंदर डाली और परेशान सा बुदबुदाया, “हमारे टेंट में तो कोई घुस गए. ये हमारा वाला था.”
जारी…
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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