“दद्दा हमारे गांव में महादेव शिव की पूजा है. यह पूजा हर बारह साल में होती है. इस बार आप जरूर आना हां हमारे गांव.” यह कहते हुए सरिता सिपाल ने मुझे शिव महोत्सव का निमंत्रण पत्र दिया तो एक पल के लिए मेरा मन दारमा घाटी में चला गया. वर्ष 2007 में अपने साथियों के साथ मैं व्यास घाटी से सिनला पास होते हुए दारमा घाटी को पैदल नाप आया था. दारमा घाटी में अंतिम गांव सीपू की खुशमिजाज सरिता सिपाल ने एक लंबा अर्सा बागेश्वर में पुलिस महकमे में बिताया अब वर्तमान में वे अल्मोड़ा में हैं.
(Darma TravelogueKeshav Bhatt)
दारमा की बात जब मैंने मित्र हरीश जोशी से की तो वह दो दिन बाद ही मय गाड़ी के बागेश्वर पहुंच गए. बागेश्वर के हरीशदा दिल्ली में रेलवे के एकाउंट विभाग में हैं और पिछले कई वर्षों से वह रेलवे में ट्रैकिंग-माउंटेनियरिंग का सेक्शन संभाल रहे हैं. उन्हें ट्रैकिंग का ऐसा जुनून है कि उनकी गाड़ी भी उनके साथ-साथ हिमालय की तलहटी तक जाने वाली कच्ची-पक्की सड़कों में डेढ़ लाख किलोमीटर से ज्यादा चल चुकी है. अकसर हिमालय की पदयात्राओं से उनकी वापसी के इंतजार में वह गाड़ी भी सड़क किनारे चुपचाप खड़ी रहती है.
खुशदिल और जरूरतमंदों की मदद को हरपल तैयार रहने वाले हरीशदा के परिजन भी अब इस बात को कबूल कर चुके हैं कि, “इनके खून में तो हर हमेशा ट्रैकिंग की कमी रहती है. घर में तो इनके पांव टिक ही नहीं पाते हैं.”
दारमा के अंतिम गांव सीपू में शिव महोत्सव में जाने के लिए हम दो ही थे. बागेश्वर से धारचूला तक के लिए हमारे साथ रिटायर्ड अध्यापक दिगम्बर सिंह परिहार भी हो लिए. उन्हें अपने समधी के घर शादी में जाना था. 20 जून 2022 की सुबह हम तीनों धारचूला के लिए निकले. आज बरसात थमी थी. इस बीच बारिश ने पहाड़ों में काफी तांडव मचा रखा था. बचपन में ‘सतझड़’ भी देखे. तब सात दिनों तक लगातार रिमझिम बारिश होती थी. तब आज की तरह कहीं आने-जाने में भय नहीं रहता था. पहले जब सड़कें बनती थीं तो उनके लिए पहाड़ों से रास्ता देने के लिए पहाड़ की पूजा के बाद ही घन-संबल से धीरे-धीरे रास्ता काटा जाता था. कटान में यदि चट्टान आती थी तो उन चट्टानों को तोड़ने के लिए उसके नीचे आग जला दी जाती थी. आग की गर्मी से कुछेक घंटों में ही चट्टान चटक जाती थी तब उसे आराम से तोड़ा जा सकने वाला हुआ. विस्फोटकों का इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था ताकि पहाड़ों में दूर तक दरारें न पड़ें. लेकिन विज्ञान की तरक्की के बाद जब से जेसीबी आई तब से पहाड़ों का सर्वनाश होने लगा है. अब हल्की बारिश में ही पहाड़ दरकने लग जाते हैं.
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कांडा, चौकोड़ी पार कर उड्यारी बैंड पहुंचे तो हरीशदा ने कार थल वाली रोड में एक ढाबे के किनारे लगा तीन चाय के लिए बोल दिया. नाश्ते के नाम पर ढाबे वाला अलसाया सा लगा तो बीते रोज के बचे ठंडे समोसों को गर्म चाय में डूबो उन्हें भी गर्म मान गले से नीचे धकेल लिए. थल की बाजार पार करने के बाद डीडीहाट होते हुए सवा एक बजे धारचूला पहुंचे.
पहली बार ब्यास-दारमा का जब 2007 में ट्रैक किया था, तब का धारचूला अब बहुत बदला-बदला सा लगा. धारचूला पहले सीमांत में रहने वालों का पांच-एक महीनों के लिए पड़ाव हुआ करता था. अब तो धारचूला बलुवाकोट से ही एकाकार सा हो गया है. धारचूला के बीच बाजार में गांधीजी अपनी लाठी के साथ पहले भी खड़े थे, आज भी वहीं विराजमान हैं. पार्किंग के नाम पर सड़क के बीचों-बीच गाड़िया खड़ी कर दी जाती हैं. शहर भर में बजबजाती गंदगी से उठती बदबू के बीच दो पाया नाम के इंसानों ने भी अब जीना सीख ही लिया है.
चाचा चौधरी जैसी मूंछें धरे परिहार मासाब को उनके समधी के गांव जाने वाली जीप मिल गई तो हड़बड़ाहट में उन्होंने अपनी पोटली में से एक थैली निकालते हुए कहा, “घर से मेथी के पराठे लाया था लेकिन खाने की याद ही नहीं रही.” जीप में सवार होकर वह फुर्र हो लिए. गर्ब्यांग गांव के मित्र कृष्णा गर्ब्यांल को फोन किया तो वह झटपट अपनी बाइक में पहुंच गए. कृष्णा अमर उजाला में लंबे समय तक बतौर पत्रकार रहे और जन मुद्दों को बड़ी साफगोई से उठाते रहे. बाद में उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी और राजनीति में कूदकर वहीं से जन मुद्दों को उठाना उचित समझा. सरल स्वभाव के कृष्णा की सभी से मीठी जान पहचान हुई. गाड़ी पार्क करने की हमारी चिंता का निराकरण करते हुए उन्होंने तुरंत ब्लाक ऑफिस में इसकी व्यवस्था करवा दी. (Darma Travelogue Keshav Bhatt)
अचानक गांधी चौक के पास एक जीप के पीछे दुग्तु-दातु लिखा दिखा तो मैं उसकी ओर भागा. “दातु जाना है?” के सवाल पर जीप चालक ने बताया कि गाड़ी तो बुक है. हां आप लोग किराये से कुछ बढ़ाकर देंगे तो बुक कराने वाले को भी कुछ राहत मिल जाएगी.” न करने का तो सवाल ही नहीं था.
अकसर दारमा घाटी के लिए जीपें सुबह नौ बजे तक सवारियों को लादकर फुर्र हो जाती हैं. गनीमत थी कि इस वक्त दांतू गांव के लिए जीप मिल रही है. रकसेक जीप में लादकर मैं भी पीछे की सीट पर मय हरीशदा के पसर गया. जीप की डिक्की की ओर नजर गई तो उसमें राशन और सब्जियों के कट्टे मुस्कराते प्रतीत हुए. गांधी चौक से जीप आगे निकली और बाईपास में किनारे जाकर खड़ी हो गई. ड्राईवर के फोन करने के अंदाज से अनुमान लगाया कि शायद कोई और भी दारमा घाटी की ओर जाने वाले हैं. कुछेक देर में एक शख्स भी हमारे साथ जीप में हो लिए. ये दर गांव के संदीप दरियाल थे.
दर गांव में संदीप की सरकारी राशन की दुकान है और वह सरकारी राशन लेने धारचूला आया था. हांलाकि जीप वाला उसका पुराना परिचित था. जीप ने फिर से फर्राटे भरना शुरू कर दिया. तवाघाट से बांई ओर दारमा की ओर जीप मुड़ गई और घंटेभर बाद बाद खेत नामक जगह पर बंग्याल होटल के पास रुक गई. ड्राइवर दीपू ने मोमो की फरमाइश रास्ते में फोन से कर दी थी. वो तीनों जन होटल में समा लिए. धारचूला से लाई विदेशी शराब के साथ मोमो को उदर में धकेलने के बाद वे सभी फिर से जीप में सवार हो लिए. जीप आगे दर गांव के कच्चे रास्ते को नापने लगी.
साथी हरीशदा हमेशा अजनबियों से बात करने में चूकते नहीं. साथ में बैठे संदीप की उन्होंने जीवन कुंडली के बावत पूछा तो संदीप भी आत्मीय हो गया. इस दरम्यान आगे बैठे दुग्तु गांव के गितेश दुग्ताल और जीप की स्टेयरिंग संभाले ड्राईवर दीपू दुग्ताल भी गपशप में रस लेने लगे. अपनी रौ में संदीप बताते चला गया कि, “यहां के पहाड़ बहुत कच्चे हैं. सड़क तो बन गई लेकिन यहां के धंसते पहाड़ की वजह से कब बंद हो जाय मालूम ही नहीं. मशीनें भी लगी रहती हैं लेकिन धरती ही कमजोर हुई तो कोई क्या कर सकने वाला हुआ.”
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अपने भविष्य को लेकर संदीप बहुत डरा हुआ लगा. दर गांव पहुंचे तो जीप सड़क के किनारे रुक गई. संदीप की दुकान आ गई थी तो जीप की डिक्की से उसने सरकारी राशन उतारकर शटर वाली अपनी दुकान के अंदर धकेल लिया. जीप फिर आगे को बढ़ चली. नीचे दर का हाल देख लगा कि संदीप सही कह रहा था. पहाड़ों में बसे गांवों को सड़क से जोड़ने का काम तब शुरू हुआ जब गांवों से पलायन हो गया. अब ये सड़कें भी बन रही हैं वे भी पहाड़ की संरचना को समझे बगैर मशीनों द्वारा खोद दी जा रही हैं.
(…जारी)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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