पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं
भटियाखान के इस तप्पड़ से आगे छिपला की ओर जाते जूता चप्पल सब उतर जाता है. सारी चढ़ाई नंगे पाँव. यहां ढाल वाले चपटे से छोटे छोटे मैदान हैं. जैसे-जैसे ऊपर की ओर कदम बढ़ते हैं आगे जाने वाले रस्ते संकरे हो जाते हैं. घंटा भर चलते-चलते ये संकरी सी गली खतम होती है और दर्रा लग जाता है.
(Danu devta Nanda Devi Mrigesh Pande)
चढ़ाई चढ़ते हवा ठंडी होती जा रही है. उसमें आस-पास की उगी घास की खुशबू है. मादक महक है. श्वास के भीतर लेते ही ठंडी सी लहर गले तक महसूस होती है. सांस लेने में कुछ ज्यादा कोशिश भी करनी पड़ रही है. कुण्डल दा बरसों पहले यहां आ चुके हैं. तब उनकी लड़कियां ही लड़कियां थीं. छिपला से विनती की थी कि वंश बढ़ाने एक पुत्र दे दे. दुबारा आएंगे भेटने. आज यह खुशी उनके चेहरे में साफ देखी जा रही है.
रेंजर साब और भगवती बाबू सबसे आगे हैं संकरू के साथ. दीप सोबन और कुण्डल दा के साथ मैं सबसे पीछे. कैमरे के लेंस से इन वादियों को छोटा बड़ा कर देखना और देखते रहना. चलो- चलो की कोई जल्दबाजी नहीं.
कुण्डल दा बता रहे कि, ” ये दवाई वाली जगह हुई. कितनी जड़ी बूटी. इनको छू कर हवा सांस में घुस आती है. आपको ऐसा नहीं लग रहा कि सीधे बर्माण्ड में घुस रही”.
“लम्बी सांस ले फेफड़े तक ले जाने में तो पसीना छूट रहा कुण्डल दा.बीच बीच में मुँह से खींचनी पड़ रही”. दीप हाँफ्ते हूए बोला.
“सांस-आंस साब दयाप्ता की मर्जी ठहरी. अपने हाथ कुछ नहीं”.
“हूँ sss”.
“यहां तो अमल पानी भी याद नहीं रहता. खाल्ली ठेरा वो हर बखत खाप में कुछ डाले रखना. बस सैबो. तीस खूब लगने वाली ठेरी. अब्बी कोस भर में मिलेगा सोत. अब है भी जने कि नहीं. अहा!पिछली बेर तो ओख कर घूंट घूंट खूब पिया. सारा बदन बटेल हो गया लगा. मुख बिटाव को जरा मिश्री टुकुड़ ले लो.बिलैमिठे ले लो. अब आगे थोड़ी चढ़ाई हुई पटाण हो जाने वाली हुई. रात तक चलते, देखना कैसी पथरीण पड़ती है”. संकरू भी हांफने लगा था.
चढ़ते -चढ़ते दर्रे का शिखर दिखने लगा है. जैसे जैसे ऊपर चढ़ रहे पूरा परिवेश ही बदल रहा है. आँखों के सामने धीरे धीरे दूध से नहाए विशाल हिम शिखर के प्रस्तर हौले-हौले खुल रहे हैं. इस सफेद दूधिया रंग में भी बड़ी विविधता है. कहीं गुलाबीपन है बहुत हल्का सा तो कहीं नींबू के रंग सी हल्की झांई. कई हल्के रंग जो उजली सफ़ेद आभा के भीतर से झाँक रहे, झिलमिला रहे. देर तक देखो तो सफेदी आँखों में चमक रही. ज्यादा देर देखने पर चकाचोंध कर रहे. गले में मफलर है जो नाक तक लिपटा है. नाक से निकली भाप चश्मे के शीशे को धुंधला कर दे रही है. रुमाल से चश्मा साफ करने को जैसे ही फोटोक्रोम लेंस हटता है सामने के हिम शिखर से पड़ी चमक से आंखे चुँधिया जाती हैं. दर्रे के ऊपरी शिखर में मंदिर है जो दानू देबता का मंदिर कहलाता है. ऊपर कफकर हैं, पत्थर की ऐसी दुर्गम चट्टानें जहाँ चढ़ पाना सम्भव नहीं.
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यहां कोई ईमारत नहीं, भवन नहीं, गर्भ गृह नहीं जो आदमी ने अपनी धन सम्पदा पूंजी से निर्मित कर दिया हो. यहां तो दर्रे के इस शिखर का टीला ही वह विशाल प्रांगण रच डालता है जिसकी परिधि में पसरा हिमालय इसका छत्र है.दानू देवता के इस टीले में प्रतीकात्मक रूप से रखी कुछ साधारण सी मूर्तियां हैं. लोहे का त्रिशूल है. कुछ दिये हैं. कुछ काली सफेद चीर बँधी हैं. पुराना सा ध्वज लहरा रहा है.
कुण्डल ने बताया कि आगे छिपला केदार जाते हूए देबता का प्रथम पूजन इसी स्थान पर किया जाता है. यह बताते वो निशोर पाणि मुद्रा में आ गया, मतलब हाथ जोड़ कुछ मांगने लगा. फिर बोला, “अब घंटे भर पटै बिसूण जरुरी हुई बदन के वास्ते. आगे तो हांट-भांट हिलेंगे “.
लाल सफेद और काले वस्त्र के कत्तर और रंग बिरंगे धागे इसी स्थल में हाथ-हाथ भर लम्बी घास पर और नजदीक की शिला और पत्थरों पर गांठ मार बांध दिए जाते हैं. संकरू एक शिला के आगे पेट के बल लेट अपने सर के आगे हाथ जोड़ पणाण हो गया है. चश्मा टोपी और मफलर उतार मैं भी बैठ गया हूँ. ऊनी टोपी उतारते ही ठंडी लहर का झोंका. ऐसा लगता है कि खाल चिर जाएगी.रेंजर साब आँखे मूंद ध्यान मग्न बैठे हैं. उन्होंने अपना टोप पहना हुआ है. मैं भी फिर से टोपी सिर पर छोप ही लेता हूँ. भगवती बाबू शिव चालीसा का पाठ कर रहे हैं. उसी पर अपना ध्यान टिका दे रहा हूँ. बगल में दीप और सोबन आ कर बैठ गए हैं. संकरू की भेड़ बकरियों का रेवड़ नीचे घास के मैदान में चरता दिखाई दे रहा है. हमारे साथ आए उसके दोनों कुत्ते उस रेवड़ के दो अलग कुत्तों के साथ एक टीले पर बैठे दिख रहे हैं. ब्वाजबोकण वाले चनरू, झपुवा हरिया और बलुवा वहीं पास में घाम में पसर गए हैं. बगल में एक पत्थर की टेक लिए दीप की सांस की आवाज तेज होती सुनाई दे रही. ये भी पूरा हठयोगी है. मुझे भी अपने को बाँधने की कोशिश करनी चाहिए. तभी परमहंस योगानंद की श्वास क्रिया “होंग-स्वः” का स्मरण हो उठता है. सांस खींचता हूँ ऐसे कि नाभि पर जोर पड़े और ऐसा करते हूए “होंss” का उच्चारण करना है जितना समय सांस फेफड़े में भरी उतनी ही देर रोके रखनी है और छोड़ते हूए भी इतना ही समय लगना है और बोलना है “स्वःss”. आँखे भी मूंद लेनी हैं. बस यही चक्र कई बार करते जाना है. कुछ देर तक ठंड की परवाह किये बिना यह क्रिया करता रहा. जब लगा कि कोई कन्धा झिझोड़ उठा रहा है तो देखा कुण्डल है. उसने मुझे बताया कि पीठ की टेक लगा सो गए हो,आधेक घंटे से. बड़ी देर तक तो समझ ही नहीं आ रहा कि हूँ कहाँ. हाथ के पंजे तो इस पखाण पर बैठे बाइ पड़े से हो गए हैं.
“आओ सर, यहां आओ. चाय पी लो”. सोबन की आवाज थी. इस टीले से हट थोड़ा कोने में उसने चूल्हा जला कितली में चाय ख़ौला दी थी. “लाकड़ बटोर लाछण कर सामजुगत से बना ही दी मैंने. सलै भी पाड़ी नहीं जा रही थी हो”.
“कितनी मुश्किल पहाड़ी बोलता है तू? ऊपर से मेरी तो खोपड़ी ही सुन्न लग रही. कुछ समझ में नहीं आ रहा”.
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अरे गुरूजी! मैंने कहा कि लकड़ी बटोर उनकी टहनी तोड़ इधर उधर से बटोर आग जलाई. माचिस भी नहीं जल रही थी. यहां की हौ पाणी ऐसी ही हुई. अब देखो वो उप्पर हिमाव में बरफ से सब सफेद तो वो धार से धीरे-धीरे हौल चढ़ रहा, स्यत की चादर बढ़ रही.
अरे. तुरंत ही मैंने कैमरे से उस अद्भुत दृश्य को क्लिक किया.
“देखा, मणकस हुई तो कैसे हाथ चले. अभी तक मनसुप से ल्यो ठंडा हो रहा था.”
“अब ल्यो क्या हुआ ये”?
“खून ठहरा सर”.
“तेरी नज़र बड़ी तेज है क्या फ्रेम दिखाया तूने बरफ और कोहरे का”.
“सोबत का असर हुआ सर”.
“अरेss ये भेड़ बकरियां उधर नीचे कहाँ ले जा रहे होंगे. जाना तो ऊपर को है”.
“ना. भेड़ बकरी नहीं ले जाते यहां से ऊपर. चमड़े की चीज जूता यहां से आगे कुछ नहीं”.
चाय की खुशबू से सब आ जुटे. रेंजर साब और संकरू की कुछ बातचीत चल रही थी. नीचे को जाती बकरियों के झुण्ड के बीच से ऊपर हमारी तरफ आते दो जन दिखाई दिए. पास आए तो पहचाना. अरे ये तो उमेद है.
अरे उमेद. पहुँच ही गया तू.
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एक दिन लेट हो गया. ये एनसीसी के सी सर्टिफिकेट वाला कैंप था. वो एन सी सी का कमांडिंग ऑफिसर तो डिस्चार्ज कर ही नहीं रहा था. बड़ा कड़क है वो मद्रासी पर जब एस पी सिंह साब ने देबता के यहां जाने की बात की तब तुरंत रिलीव किया. अपनी भेट भी दी कि चढ़ा देना. यहां तक आते चार दिन लग गए वो तो नीचे संकरू का आदमी मिल गया ये ही लाया, ले चाय पी पहले.
अब रेंजर साब ने बताया कि बस थोड़ा आगे ही आज रात कटने का टेंट लगाना है. उसके आगे कल तो फिर बहुत जाना है. आते ही उमेद अपने बैग से कपड़े की दो तीन थैलियां निकलता है.
बड़ा मुश्किल हो गया था सर आना. एन सी सी के कड़क मद्रासी ने कैंप पूरा होने के बाद भी डिस्चार्ज नहीं किया. फिर सिंह साब ने केदार पुराण शुरू किया. छिपला की महिमा समझाई. साफ कहा कि जिसके लिए वहाँ पहुंचने का आर्डर होगा तो उसके लिए हर अटक-बटक छू हो जाती है. मद्रासी अफसर हुआ वेंकटेश्वर का भगत, खड़ा सफेद चन्दन लगाने वाला रोज. जब भी चुप हो समझ लो जाप कर रहा. दूसरे, हमारे बाबू हूए जब तक फौज में हूए तो हर महिने मनी आर्डर भेज दिया बस और उनकी कोई खोज खबर नहीं. बस डाक का वही पता हुआ वाला. अब पेंसन पर घर आ गये हैं तो घर भी मिलिट्री की बैरक हो गई. अपना इतना घूम, फिर देश देख आए मैंने छिपला की बात की जाने की तो दस दोष गिना दिए मेरे. कोर्स में इतना लोथ निकलता है उतना कैसे चढ़ेगा. ये पांव में छाले दिख रहे. दुबला भी दिख रहा. सर वो तो ईजा हुई मुझे समझने वाली. बोली ये जायेगा और जरूर जायेगा. तुम्हारे भरोसे बैठेगा तो तुम ध्वज मंदिर भी न चढ़ाओगे. कितनी बार बोली, कोटगाड़ी जाना है. आगे भद्रकाली जाना है. मेरे मायके के दयाप्त हूए वहाँ की भेट न चढ़ी कई साल से.
“अब चार धाम चलेंगे. पता है तुझे रोडवेज में गरम हवा वाली बस चलती है अब टनकपुर से. आगे हरिद्वार से विश्वनाथ की नई बस. ऊपर हर जगह अपने लोग. आराम से चलेगा उम्मेद”.
“अब बड़ी उम्मेद की फिकर हो रही. तुम क्या जानो इसे. दिन में बीस घंटे काम की आदत है इसे. मेरा पांव टूटा तो दो मील गोद में उठा भड़कटिया वाले मिलिट्री अस्पताल ले गया ये. दो भैंस तीन गाय खानपिन सब इसने संभाला. ये तो जायेगा जरूर. ये देखो इत्ते चार किलो आटे के खजूरे बना दिए मैंने घर के घी में”. ले बेटा सब कपड़े की थैली में धर दिए” कह ईजा आर्डर कर गई.
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फिर बाजार गया तो गाँधी चौक भूरे मियां मिल गया. उसने इतना बड़ा झोला खजूर दे दिया. जब आप लोग चले तो वह आज़ादपुर गया था माल लाने. असलम तो गया जामिया वहाँ डॉ हसनैन ने उसका एडमिसन करा दिया. लो सर खजूरे चख लो. हां थोड़ी चाय बंडल चीनी और दूध पाउडर रख दिया बाबू ने. तीन बार तो मेरा रुखसेक चैक कर दिया. बोले बीस सेर से ज्यादा नहीं उठता दस हजार फिट से ऊपर. एक बरंडी की बोतल भी रख दी, स्वेटर में लपेट कर. पनामा का डंडा भी.आप लोगो के लिए”.
“ये तो बहार कर दी रे. उधर देखो. कुण्डल दा और सोबन ने तम्बू भी तान दिए”. दीप बोला और कागज की थैली से खजूरे निकाल मेरे हाथ में भी रख बोला,”ईजा ही हुई न असल जानने वाली. हर हरकत पहचानने वाली. जानते सब बाबू भी हूए पर उनकी अपनी अलग दुनिया हुई. वो भी लेह-लद्दाख चढ़ आए कम सुनने की हवा भी घुसा लाए एक कान में. बोले वो रेगिस्तान जैसे पहाड़ में ऐसी हवा चलती है कि मानो उड़ा देगी. अब मैं हुआ भी इतना लम्बा. अरे बड़ा खतरा भी कर देता है पहाड़”.
निरीक्षण करते रेंजर साब भी आ बैठे. शाम बस ढलने ही वाली थी.
“वो देखो. जरा इधर आओ”.
वह सामने का शिखर नन्दा देवी फिर नन्दा घुँटी, नन्दा कोट.
दो सौ एम एम का लेंस और निकन का शटर बहुत सोच ग्यारह अपर्चर व एक बटा तीस की स्पीड. हाथ जाम और सांस रोक मैंने उनकी बात के साथ खींच डाले.
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वह मेकतोली और उधर देखिये पंवाली द्वार. उनके हाथ का इशारा थोड़ा सरका.
क्लिक.. क्लिक.
सारे शिखर इतने पास हैं कि तुरंत इन्हें नोट करना पड़ेगा. नहीं तो सब भूल जाऊंगा.
अब वो नीचे की ओर देखिये वो बिखरा हुआ है मुंसियारी, खलिया टॉप और कालामुनि की चोटियां.
अब तो अंधेरा छाने लगा है. मुँह से भाप निकलने लगी है हवा छोड़ते समय. अचानक ऐसी शीत लहर आई है कि नाख से सांस लेते नथुने जमते महसूस हो रहे हैं. कैमरे के लेंस पर भी हौले की धुंध की परत है. पोलेराइजिंग फ़िल्टर का चक्का घुमाने तक सब धुंधला जा रहा है.
सभी टेंट की ओर बढ़ रहे हैं. बड़े से पत्थर के ऊपर लकड़ियाँ जमा कर संकरू ने आग सुलगा दी है. उसका धुंवा हमसे टकरा रहा है. अजीब सी मादक खुशबू दे रहा है. संकरू बताता है थुनेर की सूखी लकड़ी और पत्ती बटोरी हैं.आग के गिर्द इस ठंड से बचने सब आ रहे फिर रात के भोजन की तैयारी में लग जा रहे.संकरू कह रहा यहां तो दाल गलने में भी दुगना- तिगुना टाइम लगता है. कुण्डल आटा गूंथ चुका है. रेंजर साब कह रहे कि आज रोटी वह बनाएंगे.
“खै ल्यूंल पै तुमर हाथोक टिक्कड़” भगवती बाबू समर्थन कर रहे.
“टिक्कड़ ने महाराज, फुलुक खाला”.
कुण्डल ने उनका गिलास बना हाथ में थमा दिया है. उनकी भी आदत है उंगली डाल दो एक बूंदे अर्पित करने की. पहला घूंट भर कड़वा सा मुँह बना कहते हैं, “यार हो कुण्डल, लाषण पिसी हाथेल बणे दी तुमल. यो कस कोकटेल भै हो.अब यो हाथ ध्वे लिया पै”.
“अssरे!”
डायरी में कुछ लिखने की चेष्टा करना व्यर्थ है. एक तो हाथ नहीं चल रहे ऊपर से बॉल पैन जाम. कित्ता झटक दिया. डायरी वापस पॉलीथिन में डाल बैग में डाल देता हूँ.
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वाकई रेंजर साब फुल्के बनाने में बड़े कुशल. रोटी गरमा गरम खिलाओ सबको बारी बारी. मेरी और दीप की बारी सबसे पहले आई. कितना गदोड़ के स्लीपिंग बैग में घुसे तो चैन आया.उमेद और सोबन बड़ी देर तक गाते रहेबाकी ने भाग लगाया:
कब कुंजा गोलल वे, हरिला कुंजा,
कब कुंजा फूलल वे, हरिला कुंजा,
नंदा मेरी वे, हरिला कुंजा,
चैता मैना गोलाल वे, हरिला कुंजा,
रंगीलो वैशाख फूलो, हरिला कुंजा,
नंदा मेरी वे, हरिला कुंजा,
को देवा चाढोलों आब, हरिला कुंजा,
नंदा देवी चाढोंलो वे हरिला कुंजा,
थाती को थत्याल चढो, हरिला कुंजा,
भूमी को भूम्याल चढो, हरिला कुंजा
को देव पैरोंल आब, हरिला कुंजा,
खोलि को गणेश चढो, हरिला कुंजा,
मोरि को नरेण पैरौ, हरिला कुंजा,
स्वरग इनर चढ़ो, हरिला कुंजा
वे सुन लो sss
हरिला ss कुंsजाss
कब आँख लगी पता ही न चला. अगली सुबह नींद टूटी तो मौसम बिल्कुल साफ था. रेंजर साब ने सुबह की पहली चाय पीते ही कह दिया कि बस घंटे भर में भरपेट नाश्ता खा चल पड़ेंगे. आगे दर्रे की चढ़ाई है. उनके सख्त लहजे का असर हुआ. टेंट समेट दुबारा चाय के साथ नाश्ता खा सब तैयार थे ठीक आठ बजे.
वाकई दर्रा बहुत विकट होता है. हर अगले कदम के साथ चढ़ाई भी आध पौन फुट बढ़ती है. अगला कदम बढ़ाते रस्ते के दाएं -बायें गहरी खाई है. दोनों तरफ की खाई पर ध्यान लगा दो तो चक्कर सा महसूस होता है. उमेद मेरे से पूछता भी है,सर!रिंगाई तो नहीं आ रही. ना, नाss! कह में आगे बढ़ रहा हूँ पर बहुत संभल कर.जरुरत भर का भार है. कभी गर्दन पर और असज आने पर कंधे से लटके कैमरा से भी वजन महसूस हो रहा है.रस्ते की चौड़ाई बस बहुत ज्यादा हुआ एक फिट तो कहीं सिर्फ एक कदम टिकाने की जगह. यह ध्यान देना पड़ रहा है कि बस पांव के नीचे जमीन हो. बहुत ज्यादा ध्यान नीचे की धरती पर नहीं लगाना है क्योंकि उसके दोनों ओर खाई है.. नीचे ऊपर देखने के साथ आगे का कदम. अब तो ऊपर चढ़ते चश्मे के लेंस पर हिम कण भी चिपक रहे हैं. हाथ का इशारा कर रुकता हूँ ठीक पीछे सोबन है.
सबसे आगे उमेद और रेंजर साब हैं. टटोल टटोल कर आगे बढ़ने वाली गति. पहाड़ में दर्रे को पार करना कितना असहज होता है इसका एहसास हो रहा है. ऐसे ही दर्रे पार कर शौका व्यापारी तिब्बत तक जा व्यापार करते थे. अब समझ आ रहा कि यह कितने जीवट भरा काम रहा होगा. हर कदम आगे बढ़ने में ज्यादा ताकत लगती हो और बदन ढीला पड़े पर रुकना तो है नहीं बस चलते जाना है. यहां समझ में आता है,’चैरेवेति-चैरेवेति’ का कथन. अब तो इस ठंड के साथ अपनी सांस गरम होती महसूस हो रही है. सर में दबाव और दिल की धड़कन साफ सुनाई दे रही है.
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सिर पूरी तरह ढका है जो टोपी मैंने पहन रखी है वह खूब गरम है जिसके भीतर कपड़े का मुलायम सा अस्तर लगा है उससे कान भी ढका है और गला भी. ठंड भरी हवा के थपेड़े ऐसे विकट हैं कि कान बजा दे रहे हैं. अब मैं समझ रहा हूँ कि भगवती बाबू क्यों कान में रुई डाले चले थे और सोते समय कान में कडुए तेल की कुछ बूंद डाल एक करवट में लेटते थे. बचपन में ईजा भी मेरे कान में गुनगुना तेल टपका देती थी. आमा के पास तो उंगली भर लम्बा लोहे का एक कनखजुरा भी था. जब गांव जाते और जड़बिला से सिलटूना और फिर आगे मझेड़ा और धनियाकोट तक आमा के साथ जाना होता तब पहाड़ी रस्ते पर चलती वह कुछ न कुछ बताती रहती. वहां कई जगह उसके खेत थे जो साझे पर दिए जाते और वह अपने साजियों से मिलभेंट करने में हमें भी ले चलती. तभी उसकी कही बात मुझे याद आ रही है, “भली के हिटिये हां नतिया! पहाड़क बाट असजिल हुनी पै भ्योल में हिटण हुँ त सीप चें”.
अब ये सीप खुद चलते चलते कैसे बन रहा है मुझे समझ आ रहा है. अब हम सब के बीच की दूरियां भी चार-पांच कदम आगे पीछे की हैं. आगे उमेद के कदम देख मेरे कदम बढ़ रहे. पीछे कुण्डल दा हैं. बीच-बीच में उनकी आवाज सुनाई देती है,’हिटो-हिटो’. स्फूर्ति जागती है उस बीहड़ से एकांत में जहाँ एक ही लय में हम चले जा रहे हैं. यह लय जरा भी टूटी तो कदम लड़खड़ा जायेंगे और नीचे तो बस…
आगे फिर खड़ी चढ़ाई लग गई है. कदम आगे उठता है तो पांव का सारा जोर तलुए और ऐड़ी पर पड़ रहा है. कमर झुक रही और गर्दन पर भार जैसा महसूस हो रहा. अब दर्रे के बाईं तरफ चलना है जिस ओर की पथरीली सी पहाड़ी पर खुरदरी घास उगी है. इसी के सहारे आगे चढ़ना है तो पांव भी इसी पर टिकाने हैं. बायें हाथ से इस खुरदरी घास को पकड़ते इसी के सहारे संतुलन साध आगे बढ़ना है. पहाड़ी का ढाल सत्तर डिग्री से ज्यादा मालूम पड़ता है. रास्ता कहीं दिखता नहीं वह तो आगे के किसी धार को देख अंदाजे से बनता है. आगे रेंजर साब और उमेद हैं. जहां हम पांव रख रहे हैं वहां भी कंटीली सी घास और ठूँठ हैं. शुक्र है कि हाथ में दस्ताना पहना है वरना उस धारदार घास को मुट्ठी में जकड़ आगे बढ़ने की कोशिशों में हाथ छिल जाते. चलना बिलकुल तिरछा-तिरछा है. अब न तो संकरी सी इस रिज के ऊबड़-खाबड़ धरातल पर ध्यान देना है और न ही बहुत तीखे हो चले उस ढाल पर, जिसमें कदम आगे बढ़ रहे. ऊपर वाले की बनाई इस धरती पर ऊपर स्वर्ग और नीचे पाताल वाली बात का एहसास यहां हो रहा है.
संयोग ही है कि अभी मौसम अच्छा है. रेंजर साब ने कह दिया था कि बस हौला न लगे उसमें तो चलना ही नामुमकिन है. बर्फ़ीली वाष्प हुई वो उससे गुजरो तो वह अपनी परत चेहरे पर, बदन के किसी भी खुले हिस्से पर जमा दे.
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इस खड़ी चढ़ाई में मुझे कैमरे के साथ यारी करने की बिल्कुल मनाही है. कुछ दृश्य तो ऐसे हैं कि मन रह रह कर मचल रहा. कुण्डल दा ने उमेद और सोबन को चलते ही यह कह हड़का दिया कि आगे कोई बकर -बकर नहीं, सौंठ हो के चलना है. यहां ज्यादा बात करना, आवाज लगाना, धाल देना मना हुआ. ये मैया का इलाका हुआ. जानता है यहीं डेरा हुआ आंचरी-चांचरी का, दुध परी का. यहीं बसे शिव के आण-बाण. बस जितने ऊपर जाओ वहां गणमेश्वर विराजे और नीचे धौली-काली उस पर राज हुआ दयोताल का. जरा भी खटराग हुआ कि उनका कोप लगे. बस नन्दा मैया का ध्यान लगे जो बसती है दूध से नहाये उन पहाड़ों में. उसी पर चित्त लगे. वहीं हुआ छिपला केदार.
पहाड़ के ऐसे दुर्गम भूगोल में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं. बस चलते चले जाने पर ही सारी इन्द्रियों को टिकाये रखना है. साफ एहसास हो रहा कि कल्पना से परे कुछ ऐसी ताकत कोई शक्ति तो है इस हिम नगरी में जिसने हर पल हर सांस की गणत कर रखी.
इस लम्बी रिज की खड़ी दीवार अब पार हो गई. आगे मैदान पसरा दिखाई दे रहा है. इसमें कुछ टीले से हैं, बोल्डर जो जगह जगह पसरे हैं अनगिनत इन पाषाण खंडो के बीच की जगह में सूखे हूए खाल -ताल दिखते हैं. पांव के नीचे सब ऊबड़-खाबड़ पथरीला. इन काले भूरे पाषाणों से भरे रस्ते से गुजरते पैर के तलवों में लगातार कुछ चुभने-बुड़ने से दर्द हो गया है. टीस उभरती है किरच किरच मांसपेशियों में. पत्थर पाषाण बोल्डर के इस हर आकार के जमघट को ”मोरेन’ कहते हैं. रेंजर साहब बता रहे कि स्थानीय निवासी इसे ‘घाँघल’ कहते हैं. इन घांघलों से भरे इलाके में हम आ पहुंचे हैं. खूब थके असंतुलित से. तभी रेंजर साब की हांफती आवाज सुनाई देती है, “वो देखिये नन्दा माता. यहीं हुआ आगे नन्दा देवी का वास. उसका मंदिर”. रेंजर साब का हाथ पश्चिम दिशा की ओर है.
नन्दा देवी की ओर दृष्टि उठते ही सिहरन सी होती है. पीठ सीधी करने की कोशिश में हड्डियों की कड़कड़ाहट साफ महसूस हो रही है. हवा तो इतनी ठंडी है कि नाक पर चढ़े मफलर को भी भेद गले तक को बर्फीला कर दे रही है. पीठ पर लदा सामान सब उतार दिया है. बदन खूब हल्का हो गया है पर एक जगह कुछ देर खड़ा रहना मुश्किल हो रहा है. मैं तो घुटनों के बल वही बैठ जाता हूं. अब मैं एक शिखर के बिल्कुल ऊपर हूं जहाँ से आगे और ऊँचे शिखर ही शिखर हैं एक दूसरे की परतों में समाये.
(Danu devta Nanda Devi Mrigesh Pande)
रेंजर साब मुँह में लपेटा मफलर ढीला कर अपना हाथ बायें से दाएं घुमा बताते हैं कि कि ये हिस्सा पंचचूली का एक भाग है. इससे हट इसके परे वह है विस्तृत राजरम्भा.
चारों और यहां पथरीला सा माहौल है. सब ओर घांघल. घांघलों की बस्ती है यह जिसमें बहुत सादगी से स्थापित हो गया है नन्दा देवी का दरबार.सब बैठ गये हैं. शीत हवा की लहरों से पूरे बदन में रह रह कर कंपन हो रहा है. यहां चढ़े ध्वज और निसान कभी तेज फहराते हैं तो कभी स्थिर हो जाते दिखते हैं.रैंजर साब की आवाज सुनाई देती है, “देखो, माँ का आंचल लहरा रहा है”.
अभी आज और आगे तक बढ़ जाना है. रैंजर साब के इशारे पर सब उनके पीछे चल पड़े हैं. कैसी अनोखी धरती है विविधता से भरी. अभी कदमों के नीचे पथरीली जमीन थी, घांघलों की बसासत थी तो अब घास दिखने लगी है और अब तो इस घास के बीच से झाँकते छोटे छोटे पुष्प. हवा में भी मादक सी खुशबू बिखरी हुई है. ऐसा लग रहा है कि जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं सांस और साफ हो जा रही है.
रैंजर साहिब घास और छोटे फूलों के बीच अब अचानक रूक गये और बोले, “यहां आइये, देखिये. ये, ब्रह्म कमल”.
“अरे”! मैं भी उस नव पल्लवित ब्रह्म कमल को निहारने झुक गया.
“अब यहां से आगे खूब ब्रह्म कमल मिलेंगे, दिखते हैं जैसे कागज के फूल हों पर बड़ी सुवास भरी है इनमें. इसकी पंखुड़ियों की लोच देखो कितनी मुलायम है, मुड़ भी जाए रेख नहीं पड़ेगी”.
(Danu devta Nanda Devi Mrigesh Pande)
आगे बढ़ना जारी है. आगे चलते हूए कई मोड़ों से राजरम्भा और पंचचूली की चोटियों के कुछ भिन्न से फलक दिखाई देते हैं. आगे चढ़ाई बढ़ती जा रही है.अब रह रह कर सांस फूलने लगी है. थोड़ी थोड़ी देर में गला खुश्क हो जा रहा है. भला हो कुण्डल दा का जो मेरीऔर दीप की बड़ी पानी की बोतल में गरम पानी भर देते हैं . खाना पीना बनाने के बाद पानी गरम कर हिसाब से कुछ बोतलों में चुड़कन और कुछोँ में गुनगुना पानी भर देना उनकी आदत है. रेंजर साब की बोतल में गुनगुना पानी रहता है ताकि उनका तुड़का सही मेल का बने.
रेंजर साब भी खूब खुश.
“यहां रूक लेते हैं सैबो!अब चाय पानी का टेम हो गया क्यों हो रेंजर साब”. कुण्डल दा रुके और मेरी पीठ से रुखसेक निकाल अब सुस्ता लो कह अपनी मोटी वास्केट की जेब से एक पुड़िया पुड़ पुड़ा धागे वाली बांस मिश्री मेरे हाथ में रख दी. दीप ने भी अपने हाथ आगे कर दिए.
“चाय तो पीनी ही है वो भी लोटा भर , ठीक कहा यार. यहां लकड़ -वकड़ भी हैं खूब झट्ट जलते हैं ये. थोड़ा आंग भी सिकेगा हो, चलो हो..” रेंजर साब तुरंत लकड़ी बीनने में लग गये.
“अरे आप भेटो, ये आ रहे हमारे ज्वान. लौंडे मोंडे हुए सार पात नहीं हुई तो थक जा रहे जल्दी”कुण्डल दा ने सोबन और उमेद की ओर इशारा किया जो धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ रहे थे.
(Danu devta Nanda Devi Mrigesh Pande)
“क्या हो रे उमेद, होश ढिल हैमर्यान. तभे कून मरयूँछि तुथें कि झन भस्का ऊ चाउमीन मोमो. अरे साब क्या बताऊँशाम बाजार जाते जी आई सी रोड में सीपाल के ठेले में इसका खदुआ पना देख रखा है मैंने. मेरे से भी कहा इसने कि बड़े स्वाद हो रहे दा मीट वाले मोमो. एक प्लेट में छः मोमो लाल खुस्याणी वाली चटनी के साथ में खा तो गया पर उसके बाद ऐसी डकार ऐसा अफारा कि वापस फरक गया हो घर को. पांडे गांव में शेर दा के यहां से सिगरेट खरीदते उसे बताया कि मोमो खिला दिए उमेद ने तो उसने बताया ये साला तो खाने से पहले दम लगाता है फिर खूब सूतता है. यही क्यों देखो इसकी खड़बुद्धि सुबे दौड़ लगाएगा ग्राउंड में खेल के लिए फिट दिखेगा.तब जो दूसरे दिन मैंने हड़काया सबके सामने कि इसके जैसे गांव से आए लौंडे भी थोड़ी अकल ठिकाने करें. अब सैब! हमारि तो उमर कट गई जोर इन लौंडों से ज्यादा है. क्यों! बस घर का खाया टेम से. टेम से सो गये सुबे चार बजे उठ नहा धो लिए नौले जा के. वो महादेव का नौला गरम पानी आता है उसमें गजब लीला हुई. अब ये लौंडे घर की दूध दन्याली छोड़ खाने वाले ठेरे चाउमीन. उससे बढ़ेगा स्टैमिना? उस पर लगाई दम.
“ये उमेदिया तो बिरादर हुआ मेरा. अगली सुबे आया ये जब ग्राउंड में सैबो तो स्पोर्ट्स वाले लल्लन सर से कर दी शिकात मैंने कि ये साला उमेदिया दम लगा खूब खाने लगा है मोमो सोमो. लगाओ इसकी सुताई, क्यो रे उमेद, कैसी झाड़ पड़ी?”
हाँफ्ता उमेद बड़ी कोशिश से बोला, “आपु ले कका, खाल्ली *धुरमान कर गये हो उस दिन. लल्लन सर बहुत ही नाराज हो गये बोले फुटबाल टीम से बाहर कर देंगे, सेंटर हाफ की कमी है कोई. पर किया थोड़ी खाली भड़भडुआ हुए वो भी”
“ये बड़ा चालाक बुद्धि है स्यार जैसा”. अब कुण्डल बोला.
“लल्लन सर के आगे -पीछे रहेगा हर बखत. ऊपर से धीरेन्द्र चौहान दा की बंदूक वाली महू जी वाली दुकान पै भी रोज हाजिरी बजाएगा. टॉप के पुराने प्लेयर हुए वो एक्सपर्ट भी सेलेक्शन के लिए तो वही आने वाले हुए. दूसरा एन सी सी के एस पी सिंह साब की भक्ति की इसने तो सी सर्टिफिकेट तक क्लीयर कर दिया. हो कुछ भी खिलाड़ी तो टॉप का हुआ. और खदुआ पक्का. अब यहीं कुंडल दा ने सब चना खजुरा हमारे किट में रिज़र्व रखा है ये तो दो दिन में भसम कर जाए . सर ये गलती से चूहे की काली मैंगनी खा गया होगा, उसी से लगता है भसम रोग “.
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“कुण्डल दा के बाद अब तू भी शुरू हो गया मेरी खींचने. ये खाल्ली…”. उमेद ने बात पूरी भी न की थी कि सोबन ने हमसे पूछा,”अच्छा, आप बताओ सर. ऐसा खिलाड़ी जो मैच के बाद उप्रेती कैंटीन में ग्यारा बंद मक्खन खा जाय और इतने ही ग्लास दूध स्वेर जाए वो क्या ठेरा? अब उस मैच में इसने चार गोल मारे, अल्मोड़ा की टीम बुरी तरह हारी. पर इतना माल दाबना. ओ हो! हद्द ही नहीं हुई? हमने रोका भी, कहा अब बस कर, रात भर सारे हॉस्टल के कमोड भरेगा क्या तो खुशी से बोला देखा आज कैसा हराया साले सोर्याली कह चिढ़ा रहे थे मैंने भी भुस भर दी. फिर हर प्लेयर के नाम एक बन मखन और दूध. उप्रेती कैंटीन वाले भी मैच देख बौरी गये थे. मेरी पीठ ठोक बोले खा जितना खाता है. सो मैं भी सूतता गया”. उमेद बड़ी मासूमियत से बोला.
तो एक रिज़र्व खिलाड़ी भी तो हुआ? उसके नाम का भी खा लेता “. दीप ने चुटकी ली.
“सर, दुकान में बन ही निमड़ी गये थे “.
पीठ से पिट्ठू उतार हँसता हुआ उमेद बोला. उसकी बात सुन सब मुस्का उठे.
“लो हो कुण्डल, चाय की कितली चढ़ाओ तो ये थोड़ी पत्ती डालना”. अपने पिट्ठू की बाहरी जेब से कपड़े में लिपटी कई छोटी-छोटी पूंतुरियां याने कि गांठ मार कर लपेटी थैलियां उन्होने निकाली और एक की गांठ खोल गिन कर चार पत्ती वहाँ खड़े सोबन के हाथ में रख दीं.
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“क्या जो है ये”? कुण्डल उन्हें सूंघने लगा. पर कुछ चिता न पाया.
मैंने उस थैली में बड़े करीने से लिखा पढ़ लिया.”पत्थर लोंग, ये हर पुटली में बड़ा सुंदर लिखा किसने है”? मैंने पूछा.
मेरी बेटी ने. हाई स्कूल में है. उसे खूब जड़ी बूटी का ज्ञान करा दिया है मैंने. उसका अब शौक हो गया है. जब भी जंगल से लौटता हूं तो मेरे झोले टटोल पूछती है, क्या लाए माल ताल. सोचता हूं वनस्पति विज्ञान में एम एस सी कराऊंगा उसे. फिर डी एस बी नैनीताल में अपने सखा हैं, बहुत छोटे हैं मेरे से पर बड़े रिसर्चर और बॉटनी के प्रवक्ता डॉ वाई एस पांगती, उनके अंडर रिसर्च कराऊंगा. फिर वो भी पढ़ाएगी और खूब काम करेगी यहां के इलाके की दुर्लभ जड़ी बूटियों पर”.
“यो त बताओ य के छू. मेर बुती त नि पछाणि जैरै. खसबू त छू जोरदार “. कुण्डल दा ने पूछा.
“ये पत्थर लोंग हुई, सुगन्धित. ये पथरी तोड़ देती है हिसाब से लेने पर. अभी देखना कुण्डल ने डाल दी है कितली में, जो चाय पियोगे इसकी तो बस ताकत जैसी. खूब धरका के पिशाब भी लाती है. यूरिया सब बाहर. और ये दूसरी पुटली देखो हां इसमें लिखा है चिरायता. ये उमेद जब ज्यादा खा ले और पेट गड़बड़ाए तो चिरायता खिला दो बस चौथाई चम्मच. खूब कड़वी तिक्त हुई ये. इसे चेचक, ददूरे निकलने में देने का चलन हुआ अब शहरों में किसे मालूम. पेट के रोग, बुखार और पीलिया के लिए इस पुटली में है वन ककड़ी का धूसा. ऐसे ही बुखार, कफ, मरोड़ और पित्त के लिए अतीस हुआ, इस थैली में इसके कंद का पाउडर बना के रख दिया है मेरी बेटी ने, पर अतीस बड़ा सोच समझ अल्प मात्रा में देते हैं, विष हुआ यह”.
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अपनी पुटलियाँ रेंजर साब समेटने लगे तो दीप बोला, अब सबके बारे में बताओ दाज्यू. कौन जाने क्या हमारे काम की हो.
चाय पी बड़ी ताजगी आई.
रेंजर साब ने बताया कि अब जहाँ हम चल रहे हैं वहाँ जरा सी असावधानी में फिसलने का जोखिम है. बस क्या कहते हैं उसे
“रड़ी जाना हुआ हो…”उमेद बोला.
सही बताया. इसलिए ये रास्ते बहार के.. चलना संभल संभल के.रेंजर साहिब सहमत थे.
“अपने जूते और अगले कदम के नीचे पड़ने वाली जमीन पर फोकस करेंगे, क्यों”? दीप दार्शनिक मुद्रा में बोला और फिर मुस्का दिया.
ज्यादा नीचे की ओर भी नहीं देखना है. नीचे कहीं खाई कहीं भ्योल देख मन डरने लगता है. पहले पहले तो जब में आया था चक्कर आने जैसा होने लगा.
रिंगाई हुई, कुण्डल बोला. कुछ दूर फिर सब चुप चाप चलते रहे . एक कोना आया जहाँ रूक रेंजर साब ने बताया,”वो आगे बाईं तरफ आगे जाना है अब हमें. वो ऊपर ऊँची चोटी दिख रही है न, वो नाजुरी कोट कहलाती है.
नाजुरी कोट. देखा उस ओर, काफी चढ़ाई थी. दूर तीन तरफ से घिरी पर्वत श्रेणियाँ. उनके बीच बादलों की धूप छाँव. ठंड तो है ही जब बादल ढक ले सूर्य को तो लगे कुछ अकड़ने सा लगा है बदन जिस पर कपड़े पर्याप्त हैं. मेरे व दीप के पास तो फर वाली जैकेट भी है जो हमें अपने आई टी बी पी के मित्र चौहान जी के सौजन्यसे मिली थी और साथ में गोलकुण्डा की गोल सी ब्रांडी की बाटली जिसके संयमित प्रयोग और गुनगुने जल के साथ प्रयोग की अनुशंसा भी. ऐसे कूड़क हुए बदन में कुछ तो गर्मी आएगी ये मैं सोच ही रहा था कि बादल छंट गये और अब प्रखर सूरज का ताप. भीतर की नमी अब वाष्प बना उड़ा देगी ये गर्मी.
चढ़ाई का लम्बा सिलसिला खतम हुआ. अब उतार था. उतार पर पांव सावधानी से आगे बढ़ाने पर ध्यान दिया तभी बर्फ़ीली हवा का एक तेज झोंका मुँह पर ऐसा चुभा कि में तो सहम गया. सर पर टोपी है. गला जैकेट के कॉलर से ढका उस पर मुलायम पशम जैसा मफलर भी आँखों में चश्मा अब जो हिस्सा चेहरे पर खुला रह गया उसे तो ये सर्द हवा चीँथ देगी.. जैसे जैसे उतर उस भ्योल के निचले हिस्से की ओर बढ़े हवा का वेग और ज्यादा चुभा. हवा बदन से टकराने के साथ बदन हिला भी रही थी. मुझे लगा कि ये मेरी उतरने की असावधानी है पर नहीं खड़े-खड़े भी हवा का जोर लगा.वो भी जोरदार. सारी हेकड़ी निकल गयी. अब? देखा आगे पहुँच गये रेंजर साब बिलकुल नट बन नीचे को उतर रहे हैं.नीचे को देख चलना जहां हरा भरा खड्ड दिख रहा था नुकीले शीर्ष वाले छोटे कद के पेड़ों से आवृत. फिर हाथ के सहारे संतुलन बनाना ये बाजीगरी कैसे होगी अब?चलो यह कोशिश भी सही.
हवा की रफ्तार नीचे उतरते और बढ़ जा रही है. उसके थपेड़े रह रह कर टकरा रहे हैं. कानों पर टोपी ढकी है उस पर जब वायु का वेग टक्कर मारता है तो ऐसा लगता है जैसे कोई ढक्कन टकराये और फिर छिटक जाए.
उमेद मेरे ठीक आगे है. कुछ आगे बढ़ वह रूक कर जोर से कहता है, “सर! इस तप्पड़ को,”खया बयाल” कहते हैं जिसका मतलब हुआ, “हवा खाओ”.
बिल्कुल सही नाम रखा है. मैंने कहा. लगा मेरी आवाज हवा कहीं और बहा ले गई.
खया बयाल पहुंच गए. यहां हवाओं का जोर है.
(Danu devta Nanda Devi Mrigesh Pande)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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