बात तब की है जब हम हाईस्कूल पास कर चुके थे. हमारे कुछ सीनियर मित्र भी थे जो इण्टर में पढते थे और कुछ आईटीआई कर रहे थे. हम लोग शाम को भाटीगांव के मैदान और नौलिंग मैदान में क्रिकेट खेलते थे. उस समय धन का अभाव था या जिनके पास पैसा था भी तो वो भी अपने बच्चों को अनाप-सनाप पैसा नहीं दिया करते थे. धारणा थी कि बच्चे पैसों से बिगड़ जाते हैं. तब आज की तरह दिखावा भी न था. पैसे वाले भी साधारण जीवन यापन में विश्वास करते थे.
(Cricket Childhood Memoir)
हम जो लड़के गांव से काण्डा पढने जाते थे बस का किराया बचा लेते. तब टिकट एक रूपये का था. हम कन्डक्टर को पचास पैसे देते. बिजयपुर से लगभग चालीस पचास लड़के काण्डा जाने वाले हो जाते तो कन्डक्टर साहब के लगभग बीस-पच्चीस रुपये बन जाते सो वो भी चुपचाप ले लेते थे. तब यह रकम ठीक ठाक थी. टिकट नहीं बनाते थे वो लोग.
हमें घर से टिकट का जो दो रुपया मिलता उससे एक रुपया बच जाता. पचास पैसे से हम इंटरवल में कुछ चने-आलू, चाय-बन खा लेते और पचास पैसे जो हमारी बचत थी उससे हम क्रिकेट के लिए आपस में मिलाते थे. स्टंप तो हम लकड़ी काटकर बना लेते. पैड, ग्लब्ज, हैलमेट वगैरह तो हमारा सपना था. हमारा सोचना यह था कि ये तो इण्टरनेशनल में होते हैं. यह सोच इसलिए भी विकसित हुई होगी कि तब ये सब खरीदने को पैसे ही न थे. हम तो बाँल और बैट ही खरीद पाते थे जितने पैसे हम जमा कर पाते थे.
(Cricket Childhood Memoir)
शुरू में कार्क की बॉल और बाद में सिलाई वाली लैदर की बॉल खरीदते पर समस्या ये थी कि पहाड़ के मैदान एक तो छोटे ऊपर से उन पर जगह-जगह पत्थर तो बॉल जल्दी फट जाती थी. बाकी कसर झाड़ियाँ पूरी कर देती. बॉल खोती बहुत थी. बल्ला भी हल्की क्वालिटी का ही खरीद पाते थे इसलिए उसका जीवन भी ज्यादा न होता. मतलब खेल के लिए पैसा समस्या बना रहता.
एक दिन हमने तय किया कि कुछ सामाजिक काम किया जाय मसलन गांव की सफाई, रास्तों की मरम्मत, रास्ते से काटेंदार झाड़ियां काटना वगैरह. इसके लिए नवयुवक मंगल दल का गठन किया जाय. हमने सुना था इन दलों को सरकार पैसा देती है. उससे खेल का सामान आएगा. बस बना दिया दल. नाम रखा- काग्रेस नवयुवक मंगल दल. तब राजीव गांधी की सरकार थी. किसी ने सुझाया कि कल को कांग्रेस की सरकार न रही तो दूसरी सरकार हमें पैसे नहीं देगी. नाम से काग्रेस हट गया.
अब पैसा कैसे आएगा क्या करना होता है पता नहीं था. पैसा तो नहीं आया पर हमारा स्वच्छ गांव अभियान चल पड़ा. हमने रास्तों के गड्ढे भर दिये, खडंजे में पत्थर जहां उखड़े वो सही कर दिये. कहीं रास्ता चौड़ा कर दिया. सफाई के दौरान हमने पाया कि लोग यहां वहां मल त्यागते हैं. अब इस पर अभियान चलाया. पहले जाकर नारे लगाये- बाट् में हगना बन्द करो, ग्वेटन जाना बन्द करो. तब शौचालय तो थे नहीं हमने लोगों को प्रेरित किया कि गधेरे में जायें. हमने खुद जाकर मिट्टी डाली सफाई करी. जब कुछ लोग नहीं माने तो पहाड़ी स्टाइल में गाली मैक भी की. नतीजा रास्ते साफ सुथरे हो गये. हमने गांव से पुस्तकें जमा कर एक पुस्तकालय भी खोला. ये पुस्तकालय मैदान चले गये एक परिवार के गोठ में बना. तब हम किसी की ब्याह शादी में जाकर काम निबटाना भी करते चाहे निमन्त्रण हो या नहीं. हमने तय किया कि काम करके वापस आ जाऐगे खाना नहीं खायेंगे अगर निमन्त्रण न हुवा पर काम जरूर करेंगे.
इन कामों पर कुछ बड़े भी साथ आये. बाद में पता चलने पर कि खेल के लिए पैसा चाहिये इनको. लोगों ने कहा कि हर घर से पांच रुपये चन्दा लो. चूकि हम गांव को साफ सुथरा कर चुके थे तो लोगों ने खुश होकर पांच रुपया प्रति परिवार दिया. कुछ लोगों ने दस रुपये भी दिये. तब हमारे पास खेल के लिए पर्याप्त फंड था पर सोचा क्या पता सरकार भी दे. हमने पोस्ट आफिस में खाता भी खोला. कुछ रुपयों का खेल का सामान लिया कुछ पोस्ट आफिस में रखे.
सरकार से तो कुछ नहीं मिल पाया पर हमारे प्रयासों से गांव स्वच्छ जरूर हो गया. वो तो उस समय शौचालय जैसी चीज वहां नहीं थी वरना हमारा गांव तब ही शौचमुक्त हो जाता. हालाकि कुछ वर्षों के बाद एक एनजीओ के सहयोग से हमारा गांव खुले में शौच से लगभग नब्बे प्रतिशत मुक्त हो चुका था.
(Cricket Childhood Memoir)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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