न जाने नक्षत्रों में है कौन!
हां, कौन जाने अंतरिक्ष में जगमगाते असंख्य नक्षत्रों के किस अनजाने लोक में न जाने कौन है? किसे पता? यही किसे पता कि विशाल ब्रह्मांड में नक्षत्र यानी तारे आखिर कितने हैं? और, वह भी कि ब्रह्मांड की हमारी आकाशगंगा की तरह तारों से भरी गैलैक्सियां यानी मंदाकिनियां कितनी हैं? और यह ब्रह्मांड क्या है? कहां तक फैला है यह? कौन जानता है… (Cosmic Puzzle and Us)
यह तो आज भी कोई नहीं जानता है और न आज से 5000 साल पहले कोई जानता था. तभी तो हमारे वैदिक युग का एक ऋषि ऋग्वेद में पूछता है, “सृष्टि किससे उत्पन्न हुई, किसलिए हुई, इसे कौन जानता है?” ऋग्वेद का ही एक और ऋषि पूछता है, “यह सब जानने वाला यदि कोई है तो यहां आकर बताए!” (इह ब्रवीतु, य उ तच्चिकेतत्) (Cosmic Puzzle and Us)
ब्रह्मांड के बारे में हमें हमारे अग्रज गुणाकर मुले कुछ इसी तरह समझा गए हैं. लेकिन, हमें तो स्याह रातों में तारों भरा आकाश सम्मोहित कर देता है. जुगनुओं से जगमगाते असंख्य तारे हमारे कवि को इसी सम्मोहन में यह कहने के लिए प्रेरित करते हैं- “न जाने नक्षत्रों से कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन!” (सुमित्रानंदन पंत)
हम तो सिर्फ आकाश को जानते थे. चमकते तारों को देखते थे और अमीर खुसरो की पहेली बूझ कर खुश होते थे- “एक थाल मोती भरा, सबके सिर पर औंधा धरा.” लेकिन, ये वैज्ञानिक तो आकाश की भी परिभाषाएं करने लगे. कहते हैं कि पृथ्वी के ऊपर आकाश है. आकाश से पहले पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल है. धरती से 100 किलोमीटर ऊपर जाकर हवा विरल हो जाती है और अंतरिक्ष शुरू हो जाता है. अंतरिक्ष? यानी, निर्वात. तो, वहां क्या है? वहीं तो हैं वे असंख्य सितारे, वे नक्षत्र और उन नक्षत्रों के अनजाने लोक.
लेकिन, धरती से ऊपर 100 किलोमीटर के बाद जो अंतरिक्ष है, वह कब, कैसे बना? ब्रह्मांड के जन्म के साथ ही बना. मगर ब्रह्मांड कब और कैसे बना? अब अगर हम अपने प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के नासदीय सूक्त को सुनें तो पता लगता है- “नासदासीन्नो सदासीत तदानीं/नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्.” अर्थात्, सृष्टि के प्रारंभ में न असत था, न सत था. अंतरिक्ष और आकाश का भी अस्तित्व नहीं था.
तो, क्या था, वैज्ञानिक कहते हैं, तब केवल एक बिंदु था. समस्त द्रव्य और ऊर्जा भी उसी में सिमटी हुई थी. और, लगभग 13.7 अरब वर्ष पहले उस बिंदु में ‘बिग बैंग’ यानी महाविस्फोट हुआ और ब्रह्मांड बन गया! द्कि यानी अंतरिक्ष और काल यानी समय का जन्म हो गया. ब्रह्मांड में तारों भरी गैलेक्सियां यानी मंदाकिनियां बन गईं. हमारा सूरज और उसका परिवार बन गया. उसके एक ग्रह पृथ्वी में हमारा जन्म हो गया. मूक प्राणियों ने मानव के लिए अंतरिक्ष की राह बनाई और आगे चल कर मानव ने अंतरिक्ष पर विजय प्राप्त कर ली. 12 अप्रैल 1957 को यूरी गगारिन अंतरिक्ष में पहुंच गए. उसके बाद 20 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर कदम रखे. मानव के बनाए अंतरिक्ष यानों ने सौरमंडल को टटोला. उससे परे भी जीवन की खोज की जा रही है. लेकिन, अब तक कहीं और जीवन का पता नहीं लगा है. तो, क्या विशाल ब्रह्मांड में हम अकेले हैं?
वैज्ञानिक कहते हैं- नहीं, कहीं और भी जीवन हो सकता है. उस जीवन की खोज के लिए ‘सेटी’ कार्यक्रम के तहत सन् 1960 में ‘प्रोजेक्ट ओज्मा’ शुरू की गई. फिर कई और प्रयास किए गए. पायनियर-10 अंतरिक्ष यान में पृथ्वी का पता देने वाली एक पट्टिका भेजी गई. वोएजर यान में एक रिकार्ड भेजा गया जिसमें पृथ्वी की तमाम आवाजें और तस्वीरें भेजी गईं. ‘द ब्रैकथ्रू लिसनिंग प्रोजेक्ट’ के तहत रेडियो संदेश भेज कर 10 लाख सितारों के इर्द-गिर्द जीवन के चिह्न टटोले गए हैं. हम पूछते जा रहे हैं- ‘हैलो, वहां कोई है?’. लेकिन, अब तक एलियनों का कोई जवाब नहीं आया है.
फिर भी आशा है, पृथ्वी से परे कहीं जीवन जरूर होगा. लेकिन, प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफन हाकिंग चेतावनी दे रहे हैं कि इतने उतावले न हों. एलियन दोस्त ही हों, यह जरूरी नहीं. वे विलेन भी हो सकते हैं. क्या सचमुच वे मनुष्य जाति की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे? उस मनुष्य जाति की ओर जिसने पूरी पृथ्वी को नष्ट करने के लिए परमाणु हथियारों का जखीरा जमा कर लिया है? जिसने पूरे जल, थल और वायुमंडल को प्रदूषित कर दिया है? जिसने धरती की हरियाली लील ली है? फिर भी एलियनों की खोज जारी है. हो सकता है, कल कभी उनसे मुलाकात हो जाए. हो सकता है, यह पता लग जाए कि नक्षत्रों में है कौन.
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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