[इस सप्ताह से हम ख्यात शिक्षाविद व लेखक बसंत कुमार भट्ट का कॉलम शुरू कर रहे हैं. काफल ट्री के पाठक उन्हें अच्छी तरह पहचानते हैं क्योंकि उन्होंने हाल तक करीब डेढ़ सौ दुर्लभ कुमाऊनी कहावतों की सीरीज यहाँ पेश की है. बसंत कुमार भट्ट के लेख व अन्य रचनाएं एक समय देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हुआ करते थे. सत्तर और अस्सी के दशक उनकी रचनात्मक ऊर्जा के चरम के दिन थे. उसी युग से उनकी अनेक अप्राप्य रचनाएं इस नए कॉलम का हिस्सा बनेंगी. आशा है पाठकों को यह नया प्रयास पसंद आएगा. – सम्पादक.]
इकलौते बेटे का फ्यूचर
-बसन्त कुमार भट्ट
अपने दस वर्षीय इकलौते बेटे का फ्यूचर संवारने के लिए हमने एक योजना तैयार की है. आप में से कई लोग इस बात को हंसी में भी उड़ा सकते हैं, पर हम जानते हैं कि सैकड़ों लोग होंगे जो इस चिंता में घुले जा रहे होंगे कि वे अपने सपूत का भविष्य किस तरह सुरक्षित बनाएं. अगर उन्हें हमारी योजना पसंद आ जाय तो वे भी इस योजना में शामिल हो कर अपने लाड़लों के लिए इक्कसवीं सदी के भारत में सम्मानपूर्ण स्थान सुरक्षित करवा सकते हैं.
योजना के पहले चरण के अंतर्गत हम अपने सुपुत्र को फर्राटे की अंग्रेज़ी बोलना सिखा रहे हैं. उसे एक अंगरेजी माध्यम के स्कूल में डे-स्कालर बनवा दिया है. (हॉस्टल में रखने की अपनी हैसियत नहीं थी और फिर हॉस्टल में रखकर योजना के अन्य चरणों पर अमल करवा पाना मुश्किल है). घर पर भी हम पति-पत्नी उससे टूटी-फूटी अंगरेजी में ही बतियाते हैं. हमारा अखंड विश्वास है कि इक्कीसवीं सदी आते-आते अंगरेजी को इस देश की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल जाएगा और हिन्दी जो है अपढ़ देहातियों और कुली मजदूरों तक ही सीमित रह जाएगी. हिन्दी की कमाई खाने वाले और मन ही मन अंगरेजी के शीश नावाने वाले पत्रकार, साहित्यकार, नेता, समाजसुधारक और शिक्षकगण तब तक हिन्दी प्रेम का मुखौटा उतार चुके होंगे. ऐसे माहौल में अपने इकलौते बेटे को हिन्दी की पटरी पर दौड़ा कर कौन बाप भला उसके लिए आत्महत्या का फंदा तैयार करेगा.
सच्चाई, ईमानदारी, त्याग, परोपकार, अहिंसा, विनम्रता – कितने सुन्दर शब्द हैं. पर आप अपने लाड़ले को इन शब्दों के मायाजाल से दूर ही रखें. परिक्षा केंद्र पर धुआंधार नक़ल चल रही हो और आपका कुलदीपक सच्चाई और ईमानदारी जैसे लुभावने शब्दों के जाल में फंस कर आधे-अधूरे सवाल करके आ जाए तो आप उसकी पीठ ठोकेंगे या दो धौल जमाएंगे! इस नाजुक प्रश्न के उत्तर में ही आपका भविष्य छिपा हुआ है. क्या आप यह चाहेंगे कि आपका बेटा निष्ठावान पुलिस अफसर बनकर राजनेताओं से लेकर डाकुओं, चोर-उचक्कों की आँखों में खटकता फिरे? होनहार इंजीनियर के रूप में पूरे निर्माण विभाग से दुश्मनी मोल ले ले? नहीं चाहते न, तो हमारी योजना में आपका स्वागत है. योजना के इस चरण को क्रियान्वित करने के लिए हमने इन शब्दों की युगालरूप परिभाषाएं तैयार की हैं. कुछ परिभाषाओं की बानगी पेश है:
भ्रष्टाचार: निर्धारित सुविधा-शुल्क प्राप्त हो जाने पर भी किसी का अटका काम न करना या रोड़े अटकाना.
अहिंसा: विपक्षी कप अपने से अधिक शक्तिशाली देखने पर उससे हाथापाई में न उलझना.
परोपकार: किसी गुप्त लाभ की आशा में किया गया प्रकट उपकार.
अपने सुपुत्र को इन परिभाषाओं का व्यावहारिक ज्ञान कराना पड़ेगा. केवल परिभाषाएं रटा देने से काम नहीं चलेगा. सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में प्रचलित ऐसे सौ-पचास शब्दों का सही अर्थ अगर बच्चे की पकड़ में आ जाए तो उसका भविष्य उज्ज्वल समझिये. भाषा अध्यापकों से भी हमारा विनम्र निवेदन है कि वे बच्चों को कवक कोशगत अर्थ रटा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री न समझ लें. अब ‘सेवा’ शब्द को ही लें. यह शब्द अर्थ की कितनी मंजिलें पार कर चुका है पर हमारा हिन्दी अध्यापक आज भी इस शब्द को माता-पिता, रोगी या मरणासन्न की टहल बता कर छुट्टी पा लेता है. हम पूछते हैं कि क्या इतने बड़े-बड़े नेता राष्ट्र की जो कर रहे हैं वह सेवा नहीं है?
बच्चों को तोड़फोड़, आगजनी, घेराव, हड़ताल आदि का भी समुचित प्रशिक्षण देना आवश्यक है, पर यह ज़रा नाज़ुक विषय है. आगे चल कर बच्चे आड़े वक्त इन तरीकों का तो इस्तेमाल करके जीवन में सफल हों, यहाँ ताज ठीक है पर कहीं ऐसा न हो कि बच्चे घर पर ही इन का इस्तेमाल करने लगें और लेने के देने पड़ जाएं. हमारी राय तो यह है कि करतबों में बच्चों को दक्ष बनाने के लिए नई शिक्षा पद्धति में भी कोई व्यवस्था की जानी चाहिए. बेचारे कई अभिभावक ऐसे भी हैं जो अपने सुपुत्र के स्कूल की तरफ से भेजे गए रिपोर्ट कार्ड में जब साहबजादे की तोड़फोड़, मारपीट आदि में रुचि का समाचार पढ़ते हैं तो दुखी हो उठते हैं. ईश्वर उन्हें क्षमा करें. बेचारे यह नहीं जानते कि प्रसन्न होने की बात पर वे दुखी हुए जा रहे हैं.
अपनी संतति की भावी सफलता का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र यह है कि वह वक्त पड़ने पर आप की जगह किसी गधे को भी अपना पिताजी मानने को तैयार हो जाए. कितने पिताओं में है इतना साहस, जो अपने सपूतों को यह आत्मदर्शन दिखा सकें!
ज़रा अपना ह्रदय टटोलिये. हमें न जाने क्यों लगता है कि हमारी योजना मौलिक कतई नहीं है. आप सब के दिमाग में भी क्या अपने सपूतों के भविष्य निर्माण के लिए इसी तरह की योजनाएं तो चक्कर नहीं काटा करतीं!
(19 जून 1988 के ‘रविवासरीय अमर उजाला’ से साभार)
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उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ में रहने वाले बसंत कुमार भट्ट सत्तर और अस्सी के दशक में राष्ट्रीय समाचारपत्रों में ऋतुराज के उपनाम से लगातार रचनाएं करते थे. उन्होंने नैनीताल के प्रतिष्ठित विद्यालय बिड़ला विद्या मंदिर में कोई चार दशक तक हिन्दी अध्यापन किया. फिलहाल सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं.
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1 Comments
Sumit Singh
मार्मिक व्यंग्य रचना है…आज के हमारे परिवार समाज की सोच बताती है। इसे जारी रखें तो आनंद आ जाएगा।