स्त्री अपने घर के वृत्त में ही परिवर्तन के चाक पर घूमती रहती है. वह भी बदलते समय के साथ-साथ ही अपने घर के परिदृश्य को भी विकास के नवीनतम रुप में परिवर्तित करती रहती है. देखा जाये तो यही उसके जीवन की निरंतरता का आधार है. किंतु अपनी मां की विकास यात्रा के बारे में कहूं तो, मैं नि:संकोच कह सकती हूं कि उन्होंने परिवर्तन को किसी हद तक ही स्वीकार किया वरन अपने घर के वृत्त में मैंने मां को अविचल व अप्रभावित जीवन के एक ही बिंदु पर स्थिर खड़े हुए देखा. जो संस्कार अपने बड़ों से सीखें पढ़ें थे उसी ढर्रे पर वह चलती रहीं. वह कभी किसी के लिए परिवर्तित नहीं हुई. वह आज भी स्वयं के पास जो भी था उसी से निर्मित व प्रेरित हैं. पिताजी आधुनिक सोच और उसके सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध थे. मां को बदलने की उनकी लाख चेष्टा के बावजूद मां नहीं बदली. मां उम्र की ढलान पर हैं और वैसे ही अपना जीवन चलाती हैं जैसे पहले चलाती थीं. आज भी वह सुबह से रात तक साड़ी ही पहनती हैं. नाल-बड़ी और अचार सुक्से डालना, हर दूसरे तीसरे दिन सिलबट्टे पर दाल पीसकर फाड़ू और चैंसु बनाना उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग है और भोजन में प्रयुक्त होने वाला मसाला लहसून, जीरा, धनिया, हरी मिर्च, अदरक आज भी प्रतिदिन उनके सिलबट्टे पर सजा रहता है.मां पहाड़ से पिताजी के साथ अपनी संस्कृतियों की गांठ पल्लू से बांधकर हम चार बहनों और एक भाई को लेकर शहर आ गई थीं. पिताजी वन-विभाग में थे वहां ठहरा अलग-अलग जगह के लोगों का समागम किंतु मैंने मां को कभी अपनी संस्कृति की सीमा लांघकर दूसरे के परिवेश में घुसपैठ करके स्वयं का विस्तार करते हुए नहीं देखा (Column by Sunita Bhatt).
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गृहणियों की सुविधा के लिए जो भी उपकरण वह संसाधन ज़रूरी होते हैं वह सब गैस, मिक्सी, फ्रीज हमारे घर में भी घुसपैठ कर गया था. किंतु मां ठहरीं वहीं की वहीं, इन सभी सुख-संसाधनों को नकारती वह अपने संस्कारों की गांठों को खोलकर उन्मुक्त होने के बजाय उस गांठ को और मजबूत करती हुई दिखाई देती.
मां को अपनी रसोई की गारद में जो सबसे अतिप्रिय थे वह था सिलबट्टा और इमामदस्ता. कोई तीज हो,कोई त्योहार हो या मेहमानों के आने की संभावना. मां एक कटोरा भरकर मसाला पीसकर रख देती थी. रोज़ हमारे घर पर जीरा, धनिया, लौंग, बड़ी इलायची, लहसुन, हरी मिर्च की रगड़पट की खड़खड़ाहट होती. मां की ज़िंदगी का अभिन्न अंग रहा है सिलबट्टा. समय की करवट के साथ हम ने पड़ाव बदले. हम सरकारी घर से अपने छोटे घर में आये, फिर समय ने करवट बदली, हमने भी पड़ाव बदला और अब हम भी बड़े घर में आये किंतु जहां भी गये सिलबट्टा और इमामदस्ते की जगह आरक्षित थी. मां सिलबट्टे को दिवार के सहारे खड़ा रखती थी उनसे कितनी बार सिलबट्टे को दीवार से हटाने के लिए कहा गया किंतु वह किसी की नहीं सुनती थीं.
मां सिलबट्टे में सुस्वादु हरा नमक बनाती थी और अब तक निरंतर है. वह घर में मेहमानों के आने से पहले ही उनके जाने पर उनके सामान के साथ नमक रखने की तैयारी कर देतीं.
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दादी हर सर्दियों में हमारे लिए पहाड़ी पीली ककड़ी गांव से लाया करती थी. धूप में बैठकर उनकी लंबी फांकों के ऊपर हरे नमक की सतर आज भी याद करती हूं तो अधरों को रसीला कर देती है. मां अलग-अलग तरह के नमक सिलबट्टे पर पीसा करती थी. कभी हरे मोरिय्या का नमक, कभी पोदीने, हरी मिर्च, लहसून, भूने जीरे का नमक कभी हरा धनिया, हरी-मिर्च, लहसून का नमक. मां के कारण हरे नमक का उद्रेक घर पर हमेशा ही रहा है. मुझे याद नहीं है कि कभी हमने आलू के पराठे,रा यता और सलाद बिना हरे नमक के उदरस्थ किया हो.
मां का सिलबट्टे से प्रेम उनके व्यक्तित्व का एक उद्दात पक्ष रहा है मेरे लिए. मैं आज बहते समय और अपनी परिपक्व वयस में जान पायी हूं कि हरा नमक पीसना कोई बड़ा काम तो नहीं था किंतु जो अमुल्य है वह है सिलबट्टे पर पीसे हुए और उनकी उंगलियों से रले-मिले हुए हरे नमक का रसास्वादन जो आज तक मेरी जिह्वा को कोई और हरा नमक नमक नहीं दे पाया है.
मां के हरे नमक का कोई सानी नहीं है. मां आज भी हम सभी बहनों के लिए हमेशा हरा पहाड़ी नमक तैयार करती हैं और ऐसे ही हमें अपने घर से विदा करते हुए पकड़ाती हैं जैसे मायके से ससुराल जाती हुई बेटी के लिए कलेवा रखा जाता है. मां का हरा नमक उनके नाती- पोतों के मुंह भी लग गया है. नानी का पिसा हुआ नमक उन तक भी पहुंचना हुआ. किंतु मां अब बूढ़ी हो गयी हैं. सोचती हूं कब तक हमारे लिए सिलबट्टे पर हरा नमक तैयार करेंगी? मां से हरा नमक बनाने की विधि पूछी भी है. उसी तरीके से बनाया भी है किंतु वह सौंध, वह रसाण ना जाने क्यों नहीं आती मेरे नमक में? संभवतः मेरे हरे नमक में मां के सिलबट्टे और अपने संस्कारों को कसकर पकड़ने का सघन भाव मिक्सी की घरघराहट में नदारद रहता होगा.
सच! मां के पल्लू में संस्कृतियों की गांठ आज भी उतनी ही मजबूती से बंधी है जैसा कि वह पहाड़ से लेकर आयी थी. हमारे लिए गर्व करने वाली बात यह है कि पहाड़ की उन संस्कृतियों की रंग-गंध स्वत:स्फूर्त हम में भी रच-बस गई है.
संभवतः इसी लिए वह जीवन-भर अपरिवर्तित रहीं. उन्होंने भी अपनी सुख-सुविधा के लिए आधुनिकता को अपना लिया होता तो हम भी कहां सिलबट्टे और इमामदस्ते के जीवनचरित्र को जान पाते? और उससे भी बड़ी बात सिलबट्टे पर हरे नमक और अन्य पहाड़ी व्यंजनों की रसाण कहां से हमारी जीभ में कुंडली मारकर ताउम्र बैठी रहती?
इसलिए तो मां संस्कृतियों की मानबिंदु कही जाती हैं जो अपने अंतर्निहित विशेषताओं से अपने परिवार के लिए सुख की जमीन तैयार करती हैं.
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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