हमारे देश में बच्चों का सिनेमा बनाने और उसे प्रचारित–प्रसारित करने के लिए बकायदा एक संस्था है जिसका नाम है ‘चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी.’ यह सोसाइटी पिछले कई वर्षों से न सिर्फ बच्चों के लिए सिनेमा बना रही है बल्कि अलग–अलग शहरों में फ़िल्म फेस्टिवल आयोजित करके उन्हें लोकप्रिय बनाने का प्रयास भी करती है और कुछ वर्षों से अपनी निर्मित फिल्मों की डीवीडी को बेचने का काम भी कर रही है. चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी निर्मित ज्यादातर फिल्मों की समस्या यह है कि वे बच्चों को नैतिक बनाने का काम बहुत मन से करती हैं इसलिए इन फिल्मों में बच्चों की मस्ती से ज्यादा उन्हें ज्ञानी और नैतिक बनाने पर जोर रहता है. इसलिए मनहूस किताबों की तरह वे भी उपेक्षित रहती हैं.
अपनी लम्बी निर्माण यात्रा में चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी ने कुछ बेहद आकर्षक फिल्में भी बनायीं हैं जिन्हें दिखाने से बच्चों को जरूर आनंद मिलेगा.
1976 में काले और सफ़ेद रंग में बनी ‘सिकंदर’ ऐसी ही फ़िल्म है, जिसे सई परांजपे ने लिखा और निर्देशित किया है. सिकंदर चार किशोरों की कहानी है. जिनमें से एक लड़की है और बाकी तीन लड़के. दो मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के हैं तो दो निम्नवर्गीय के. इन चारों के अलावा उनके मोहल्ले में अंडे बेचने वाला अधेड़ यूसुफ भी उनका दोस्त है, जो अपनी साइकिल पर उन्हें मजे करवाता है.
कहानी के प्लाट की शुरुआत बच्चों के आई-स्पाई खेल से होती है, जिस दौरान उनकी नजर कुत्ते के एक आवारा पिल्ले पर पड़ती है. यह छोटा सा मासूम पिल्ला उनके जीवन में रस भर देता है. पटकथा में पिल्ले को नाम देने के खेल का संयोजन निर्देशिका ने बहुत खूबसूरती के साथ किया है. पिल्ले का नाम देने के लिए बच्चे अपने नाम के पहले अक्षर को मिलाने का खेल खेलते हैं और एक संयोजन से उन्हें सिकंदर नाम मिलता है. अब सिकन्दर किसके घर रहेगा इस पर मुकदमा चलता है, इसके लिए बकायदा आपस में मल्ल युद्ध भी किया जाता है लेकिन इससे कोई नतीजा न निकलते देख यह सिकंदर के ऊपर छोड़ा जाता है कि वह किसके पास रहेगा. फिर चारों बच्चे सिकंदर से दूरी बनाकर एक पंक्ति में बैठते हैं और उसे अपनी तरफ आकर्षित करते हैं. एक मजेदार खेल में सिकंदर रोमी के पास पहुँचता है और बच्चे लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी समस्या को सुलझाते हैं.
यूं तो रोमी को सिकन्दर को अपने पास रखने का अधिकार मिल जाता है लेकिन रोमी की फैशनेबल मां को सड़क का आवारा पिल्ला पसंद नहीं. इसी तरह हर बच्चे के घर से सिकन्दर के लिए न सुनाई पड़ती है. केवल एक व्यक्ति यूसुफ ही ऐसा है जो इस पिल्ले को अपने घर रखने की छूट देता है ताकि उसकी बीमार बच्ची नादिरा का मन लगा रहे. बच्चे अब अपने–अपने जुगाड़ों से सिकंदर को अपने पास रखने का यत्न करते हैं और हर कोशिश में विफल होते हैं. आखिरकार वे सिकंदर को यूसुफ की बेटी के पास छोड़ने का मन बनाते हैं और एक रोमांचक यात्रा तय करते हुए पहले उसके घर, फिर शहर के हस्पताल में नादिरा को देखने आते हैं और उसे खुश करने के लिए अपनी-अपनी खुशी भेंट कर देते हैं.
फ़िल्म के अंत में वे फिर से आई स्पाई का खेल खेल रहे हैं और अंत होने से पहले दर्शकों को फिर से एक प्यारा जानवर दिखाई देता है जो इस बार कुत्ते का पिल्ला न होकर बिल्ली का बच्चा है. बिल्ली के बच्चे के फ्रीज़ शॉट पर ही फ़िल्म खत्म होती है जैसे यहीं से शरारतों की नई कहानी शुरू होगी.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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