हरारी की किताब सेपियन्स और होमोडियस
डॉ युवल नोह हरारी ने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से इतिहास में शोध उपाधि प्राप्त की है. अब येरुशलम की हिब्रू यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं. दुनिया के इतिहास पे उन्होंने खूब लिखा है. क्या आप यह कल्पना कर सकते हैं की एक इतिहासकार आने वाले कल का भी इतिहास लिख दे? जी हाँ, अपनी पहली किताब सेपियन्स में हरारी ने दुनिया, प्रकृति व जीव की उत्पत्ति के साथ इसकी क्रमिक वृद्धि, विकास, प्रगति व आधुनिकीकरण का सजीव तर्क पूर्ण चित्रण किया है. दूसरी किताब होमोडियस में उन्होंने जो घटित नहीं हुआ उसका भी इतिहास लिख दिया. जो भी वर्तमान में हुआ उसका आधार ले कर हरारी आने वाले कल के परिदृश्य रचते हैं. उनका लेखन रोमांचक है, तर्क पूर्ण है, झटका देता है, उन विचारों की ओर ले जाता है जो पहले कभी दिमाग में आये ही नहीं. यही वजह है कि उनकी किताब सेपियन्ज और होमोडियस को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली. यह किताबें वन मिलियन बेस्ट सेलर की श्रेणी से आगे बढ़ चुकी हैं.
हरारी ने “होमोसेपियंज,”अपने पिता श्लोमो हरारी की पुण्य स्मृति में लिखी जो मानव सभ्यता के इतिहास पर है. दूसरी बहुचर्चित व विवादास्पद किताब जो कल के इतिहास पर है “होमोडियस,” जिसे उन्होंने अपने भारतीय गुरु एस. एन. गोयनका (1924-2013) को सादर समर्पित किया है.
अपनी पहली किताब “सेपियंज” में हरारी सबसे पहले उस ‘बिग-बैंग ‘कि कल्पना करते हैं जिसने 13.5 बिलियन वर्ष पहले पदार्थ, ऊर्जा, समय और स्थान की नींव रखी. विश्व के इन आधार भूत तत्वों की कहानी भौतिकी कहलायी. फिर किसी पदार्थ की लघुतम इकाई अणु और उनकी अंतर्क्रिया से रसायन सामने आया. धरती नामक इस ग्रह में 3 से 8 बिलियन वर्ष पूर्व कई अणुओं के संयोजन से बड़ी व जटिल आपस में उलझी संरचनाओं की उत्पत्ति हुई जिसे अवयव कहा गया और यह कथा बायोलॉजी कहती है.
फिर सत्तर हज़ार साल पहले होमोसेपियन प्रजाति से जुडे अति सूक्ष्म जीव या अवयव से एक और अधिक परिष्कृत संरचना का सूत्र पात हुआ जिसे कल्चर कहा गया. इसी संवर्धित कोशिका – जीवाणु-समूह के संवर्धन का क्रमिक विकास ही इतिहास है. इतिहास के क्रम के पीछे तीन महत्वपूर्ण क्रांतियों का योगदान है :
पहली, संज्ञानात्मक या बोध प्रक्रिया से सम्बंधित क्रांति जो आज से सत्तर हज़ार वर्ष पहले शुरू हुई जिसने इतिहास का आरम्भ किया. दूसरी, बारह हज़ार साल पहले कृषि क्रांति हुई और तीसरी, पांच सौ साल पहले वैज्ञानिक क्रांति हुई जिसने मानव और उनके सहभागी अवयवों को प्रभावित किया.
अब आते हैं इतिहास को प्रभावित करने वाले कारक, जिसमें अग्नि ने हमें ऊर्जा प्रदान की, ताकत दी. किस्सागोई ने हमें एक दूसरे का सहभागी बनाया. सहकारी बनाया. कृषि ने हमारी भूख बढ़ा दी और लगातार हमारी पेट की ज़रूरतों को बढ़ाते जा रही है. पौराणिक कथाओं और उनमें निहित विश्वास से व्यवस्था का अनुरक्षण होता रहा और क़ानून बने. संविधान रचे गये. इन सबके साथ मुद्रा ने हमें ऐसा वह कुछ दिया जिस पर हम वाकई विश्वास करते हैं. अब बात करें खंडन और विरोध की जिसके सिलसिले से संस्कृति फली फूली. अब है विज्ञान जिसने हमें मृतप्राय बना दिया.
पहले कम से कम 6 मानव प्रजातियाँ धरती पर वास करती थीं पर आज इनमें सिर्फ एक है- “होमोसेपिअंज” अर्थात आधुनिक मानव प्रजाति. किस तरह से इन प्रजातियों ने अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ी. किस तरह से हमारे पुरखों ने आपसी ताल-मेल से एकजुट हो परिवार बसाये. समूह बने. गांव बसे, कस्बे फैले, नगर-महानगर विकसित हुए. ऐसे लोग भी थे जिन्होंने हर स्तर पर अपने आसपास के अपने लोगों और दिख रहे, मिल रहे कच्चे माल और प्रकृति दत्त हर संसाधन पर अपना प्रभुत्व जमाया. अपनी सत्ता खड़ी की.मार काट मची, युद्ध हुए. नये ध्रुवीकरण बने. साम्राज्य खड़े हुए. उत्थान और पतन की कहानियाँ बदलते वक़्त के दौर में सामने आती रहीं. अपने समय के लोगों की गाथाओं को याद रखा गया. उनसे जुड़ी धरोहर उनका योगदान आने वाले कल को याद रहे, इसके जतन हुए. पुरखे पूजे गये.
आस्था और विश्वास से ईश्वर और भगवान स्थापित किये गये. देश, राष्ट्र-राज्य मानव अधिकारों के प्रति संवेदनशील रहे तो वर्चस्व की लड़ाइयां बहुत कुछ के ध्वंस का कारण बनीं. औद्योगिक क्रांति के बाद तकनीकी नवप्रवर्तनों से विज्ञान हावी होता रहा. तकनीक पर अत्यधिक आश्रय अब यह सवाल उठा चुका है कि इस अंधी दौड़ में आने वाली अगली सदी में यह हमारी दुनिया कौन से रंगों में सिमटने वाली है. अब हमारा विश्व क्या बनने जा रहा है?
सेपियन्ज ने हर विधा हर बात हर विचार को चुनौती दी. हमारे विचार, हमारी क्रियाएं, हमारी शक्ति और यहाँ तक हमारा भविष्य भी.
इस सदी के आते -आते मानवता फिर एक करवट बदलती है. अपने जकड़े हुए शरीर को तानने कि कोशिश करती है. अपनी अलसायी आँखों को मलती है. प्रसाधन गृह में जा शीशे में उभर रहे अपने अक्स पर पड़ गई झुर्रियों को देखती है. अपने चेहरे को धोती है. वापस आ कर एक कप कॉफ़ी बनाना. अपनी डायरी को खोल कर देखना. और कहना. देखूँ, अब आज मुझे क्या करना है?
हज़ारों हज़ार साल गुजर गए, कई प्रश्न उत्तर न पा सके. चाहे बीसवीं सदी का चीन हो, मध्यकालीन भारत हो या प्राचीन इजिप्ट. पीढ़ी दर पीढ़ी अकाल, प्लेग और युद्ध जैसी आपदों से ग्रस्त इतिहास के पन्ने कई रंगों में रंगे थे. अपनी हर असफलता, कोशिश, भ्रम सफलता पर आदम जात ने ईश्वर, अवतार, संत, पैगंबर, देवी -देवता, पूज्य व पुरखों का सहारा लिया. उसने पूजा की, प्रार्थना की, दुआ मांगी, भोग लगाया, आत्मसंतोष पाने की कोशिश की. अनगिनत समाधान खोजता रहा. ऐसा हर तरीका जिससे उसकी मुश्किलें उसके तनाव कम हो सकें. ऐसी संस्थाएं बनायीं जो उसकी दुविधा कम कर सके. ऐसी सामाजिक प्रणलियाँ बुनी गयीं जो उसके सह अस्तित्व को बरकरार रख सके. पर सदियों से भूख, गरीबी, कुपोषण, रोग, हिंसा, विषमता व अलगाव जैसे सवाल कुछ नये सवालों से जुड़ जटिलता और उलझन पैदा करते रहे. तब मनुष्य ने हर समस्या को ईश्वर की आकाशीय योजना का अभिन्न अंग मान लिया. पृथ्वी की अपूर्णता का एक कारण समझा. यह सोच बलवती रही की सब कुछ भगवान के हाथ में है.
इस सदी के ढलते मानवता को एक अभूतपूर्व अनुभव हुआ है कि वह अधिकांश समस्याओं का समाधान पा सकती है, ज्ञान -विज्ञान के सहारे. पर ज्यादातर लोग इससे सहमत नहीं. यह सही है कि बाढ़ -सूखा -अकाल, रोग -व्याधि, भूख -कुपोषण, विषमता -असमानता की समस्याएं किसी हद तक सुलझी हैं पर इनसे जुड़ी नयी विसंगतियां भी बढ़ती जा रही हैं. प्रकृति की अनियंत्रित व आकस्मिक शक्तियों का मुकाबला करने के प्रयास अधिक तर्कसंगत, युक्तिपूर्ण व तकनीकी होते जा रहें हैं. अब आपदाओं – विपदाओं से बचने को किसी ईश्वर की प्रार्थना, किसी संत के समागम, पूजा या देवीय आह्वान का आश्रय लेने की बाध्यता या जरुरत नहीं महसूस होती. विज्ञान व तकनीक ने हर समस्या के प्रबंध के तरीके विकसित कर दिये हैं. खोज व तकनीक पर निर्भरता बढ़ते ही जा रही है. प्रगति से आधुनिकीकरण के नये आयाम मनुष्य ने खोज लिए हैं. अग्नि व चक्के के बाद यंत्र उपकरण मशीन सब बुद्धि का कमाल बना. अब डाटा एनालिसिस और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस से आदमी के ऊपर कंप्यूटर हावी है. मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं को मशीन में, यांत्रिकी में समाविष्ट करने की पुरजोर कोशिशें की जा रहीं हैं.
खोज, प्रगति और आधुनिकीकरण के इस आयाम ने मनुष्य की सत्ता को चुनौती दे दी है. यह प्रश्न उठ गया है की क्या मानव ने अपनी भावनाएं कुचल दी हैं? क्या वह अपनी उपयोगिता खोता जा रहा है? क्या तकनीक के बूते यह आदम जात ईश्वर का प्रतिदर्श बनने की कोशिश तो नहीं कर रहा जिसे उसने स्वयं गढ़ा है! हरारी अपनी पुस्तक होमोडेयस में जो घटा नहीं उसका भी इतिहास रचते हैं और बताते हैं कि इंसान ईश्वर के निकट होने के क्रम में स्वयं को पा रहा है. अब उस समय की चिंता पैदा होने लगी है जब विज्ञान हमें मरने नहीं देगा और मशीन हमें जीवित नहीं रहने देगी.
यह विज्ञान हठधर्मिता में बदल रहा है. जो कहता है कि जीव तो विशिष्ट समस्याएं हल करने के लिए कुछ तयशुदा नियम रचते रहा और रहा जीवन वह समंकों को हल करने जैसा है. प्रश्न यह भी है कि क्या बुद्धिमता चेतना से विघटन करती है?
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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