करीब ढाई साल गुजरे उस बात को, जब मेरी एक कजिन, जो हमारे ठेठ सामंती, ब्राम्होण परिवार में साफ दिल वाली एक लड़की थी, ने एक बेटी को जन्मत दिया. मैं मुंबई गई थी, तब बिल्कुकल अकेली थी. ननिहाल, तीन मौसियों और बुआ के घरों वाले उस शहर में कोई अपना नहीं था. एक बागी और जैसाकि स्वीरकारोक्ति में पहले ही कह चुकी हूं, बुरी लड़की के लिए अच्छे, भारतीय मूल्यों वाले घर में कुछ खास जगह नहीं थी.
अच्छे घरों की अच्छी लड़कियाँ विले पार्ले स्टेमशन पर उतरते ही अच्छी लड़की का चोंगा सीढि़यों के नीचे छिपा कॉलेज और समंदर के सिम्तस जाने वाली सड़क का रुख करतीं और शाम को घर लौटते हुए सीढि़यों के नीचे से चोंगा उठाती जाती थीं. मुझे फोन करके स्वीकारोक्तियाँ करतीं, हाल-ए-दिल बयां करतीं. दीदी, आय एम इन लव. वो टॉल, डार्क, हैंडसम मेरा ब्वाबयॅफ्रेंड है. मैंने हमेशा समझाना चाहा, अच्छे लोगों के घर से आजादी तभी मिलेगी, जब अपने पैरों पर खड़ी होगी. वरना ब्वॉचयफ्रेंड तो आज्ञाकारी पुत्र की तरह इनकम टैक्स अफसर की बेटी के साथ लगाएगा फेरे और तुम पैर में आलता लगाकर पति के घर में विम बार से बर्तन धोना. उसे घर ले जाओगी तो तुम्हें तो बाद में, ब्वॉयफ्रेंड को पहले लातों का हार पहनाया जाएगा.
तो ऐसे घर में वो एक लड़की थी, जो मुझे सबसे ज्यादा प्यारी थी. जिसका दिल साफ और आँखें सुंदर-सी थीं. वह नास्तिक और प्रगतिशील तो कतई नहीं थी, उल्टे बड़ी धार्मिक. भगवान के साथ उसका पीआर बड़ा स्ट्रांग और भगवान और मेरा छत्तीेस का आंकड़ा. लेकिन उसका मन इतना सुंदर और पारदर्शी था, कि भगवान वाला पीआर कभी हमारे संबंधों के आड़े न आया. मैं तो सो कॉल्डभ इंटेलेक्चुकअल टाइप होने के बावजूद उसके सहज-बोध और सीधी-सरल नैतिकता के आगे बहुत बार खुद को बौना महसूस करती थी.
मैं जब भी अकेली, उदास होती, उसके ऑफिस चली जाती. हम दोनों जुहू में सेंटॉर होटल से सटी हुई पतली गली से गुजरकर समंदर के किनारे जाकर बैठ जाते. बातें करते, कुछ गीत गाते, तट पर लहरों का टूटना देखते और उस अँधेरे सन्नाटे में लहरों का शोर सुनते. कैसे चीखती थीं लहरें, जैसे पहले-पहले प्याार को स्वीोकार कर लिए जाने के बाद कोई तरंग में उड़ा जा रहा हो. मन की, कदमों की उड़ान पर कोई बस ही न हो.
बीच-बीच में, जब कोई जोड़ा दूर समंदर में घुटनों तक पानी में डूबा देह के गणित को समझने में उलझा होता, और मैं दूर से उन्हें बिना पलक झपकाए निहारने में तो ये दीदी का ही शानदार आइडिया होता कि मनीषा, उन्हें नहीं, उन लोगों के चेहरे देखो, जो वहां से गुजरते हुए उस जोड़े को घूर रहे हैं. बड़ी कमाल बात थी. कैसे-कैसे तो चेहरे और कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएं. दीदी से थोड़ा ज्यादा सटकर बैठ जाती तो वो फायर और दीपा मेहता को बद्दुआ देती, लोग क्या सोचेंगे, कहकर दूर हट-दूर हट चिल्लाने लगतीं. बड़ा मजा आता. लौटते हुए हम पाव भाजी और आइसक्रीम खाते. बाकी जीवन का पता नहीं, लेकिन समंदर के तट पर उतनी देर मैं जरूर सुखी रहती थी.
फिर एक दिन उसकी शादी हो गई और वो चली गई. बहुत दिनों बाद लौटी तो फूला हुआ पेट, सूजे पैर और भारी-सा मुंह लेकर. मुझे उसकी यह बदली हुई शक्ल थोड़ी विचित्र लगती, लेकिन अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरती उसकी आंखों में संतोष की मुस्कान झलकती थी. वो खुश थी, वो उम्मीद से थी.
17-18 साल की उम्र में जब मैने पहली बार सिमोन द बोवुआर को पढ़ा और मातृत्व संबंधी उनके विचारों से दो-चार हुई, तो मेरी सोच में एक भयानक बवाल मचा. उम्र के उस पड़ाव पर पैदा हो रहे सहज बोध, सहज इच्छाओं और पढ़े हुए विचारों में ऐसी कुश्ती, धकमपेल मचती कि लगता दिमाग की नस ही फट जाएगी. जिंदगी के वो कुछ साल रिएक्शेन के साल थे. वैसे भी हिंदी प्रदेश के लगभग निम्नावर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने और प्रतापगढ़ी मर्दों की मर्दानगी का नमूना देखने के बाद सिमोन को पढ़कर कोई लड़की रिएक्श्न में जीने लगे तो आश्चर्य नहीं. मर्दानगी भी ऐसी कि जो आए दिन बीवियों के शरीर पर जूते-चप्पल की शक्ल में नमूदार होती रहती, 50 पार आदमी की औरत भी 40 की उमर में नौवें या ग्याारहवें बच्चे की उम्मी द से होती. पता चलता, एक ही समय में माँ और बेटी, दोनों ही नाउम्मीद नहीं हैं. गांव में मुझे औरतों की जिंदगी बड़ी खौफनाक लगती थी. वैसा जीवन मेरे सिर आता तो मैं गांव के नजदीकी रेलवे स्टेशन से गुजरने वाली ऊंचाहार एक्सप्रेस के नीचे लेट जाना ज्यादा पसंद करती. मुझे लगता, ये औरतें क्यूं नहीं लेट जातीं. पति की लात और फूले हुए पेट से तो निजात मिलेगी.
जिंदगी के दरवाजे दस्तक देती जवानी और इंद्रिय-बोध के साथ लड़कों के मन और देह की दुनिया कैसे बदलती है, कुछ अंदाजा नहीं, लेकिन लड़कियों की दुनिया में बड़े अदेखे, रहस्यीमय तूफान आते हैं. भीतर और बाहर की दुनिया प्रकाश की गति जैसी तेजी से बदलती है और कुछ समझ नहीं आता कि ये क्याी हो रहा है. जिन लड़कों और चचेरे-ममेरे भाइयों के साथ हम अब तक जूतमपैजार में मुब्तिला रहते थे, अब अचानक उनसे भी कुछ शर्म-सी आने लगती है. भले अन्य बहनों के मुकाबले मुझमें लज्जाशीलता का यह पर्सन्टेज कुछ कम रहा था और तब भी मैं प्रेम-पत्र वाले खेलों के मुकाबले जूतमपैजार वाले खेल को लेकर ज्याैदा एक्साइटेड रहती थी. बल्ला -गेंद या दूसरी किसी चीज को लेकर मैं भाई के साथ गुत्थम-गुत्थाा होती तो दादी अपनी चारपाई पर बैठे-बैठे ही बिफरतीं, ‘देख तनि इनकर दीदा, घोड़ी हस भइन अउर भाइयन से लिपटत-चिपटत रहत थिन, इनका तनकौ लाज नाही लागत.’
इस उम्र में पितृत्व की कोई भावना न जाने किसी लड़के के मन में कैसे आती है, आती भी है या नहीं, लेकिन किसी औरत का फूला हुआ पेट या नवजात शिशु को दूध पिलाती मां की छवियां दबे पांव लड़की की बदल रही दुनिया में अपनी जगह बना लेती हैं. कहीं, किसी कोने वो छवि छिपकर बैठी होती है और उम्र के तूफानों से अकेली जूझ रही लड़की के एकांत पाते ही पता नहीं कहां से धमक जाती है. हर सुबह लड़की हसरतों, सपनों, जिज्ञासाओं की ओस भीगी जमीन पर पांव रखती है. उमंगों की कोई डोर एक ओर खींचती है, तो अजाने भय की डोर दूसरी ओर.
कई साल पहले, जब किसी रिश्ते दार की शादी में हमारा गांव जाना हुआ तो वहां बारात में आए लड़कों से आंखों-ही-आंखों में कुछ बातें और मुफ्त में मिले एकाध प्रणय-प्रस्ताव (शादी-ब्याह में ये बहुत ही आम बात है) के अलावा एक बात और हुई. एक लड़की, जो मुझसे कुछ बरस छोटी, लेकिन विवाहिता थी और पिता के घर का बासन-चूल्हा संभालते हुए पांच महीने बाद होने वाले अपने गौने का इंतजार कर रही थी, ने एक रात घर के पिछवाड़े छपड़े के नीचे एक ही चारपाई पर लेटे हुए मुझसे शादी के बाद के रहस्योंप के बारे में कुछ सवाल किए. उसके हिसाब से मैं शहर की लड़की थी, और मोटी-मोटी किताबें पढ़ती थी. (दिन में मेरे हाथ में अन्नाह कारेनिना का मोटा पहला भाग देखकर उसे मेरे विद्वान होने का यकीन हो चुका था.) तो जरूर इस जानिब मैं उसे कुछ भरोसे लायक जानकारी दे सकूंगी.
शहर की लड़की उसकी उम्मीादों पर खरी नहीं उतरी, लेकिन उसकी बेचैनी भरी जिज्ञासाएं बड़ी वाजिब थीं. घर में बड़ी बहन की जचगी देखे छमाहा भी न गुजरा था. गांव में कुंवारी लड़कियों को आमतौर पर ऐसे हौलनाक मंजरों से दूर ही रखा जाता है, लेकिन चूंकि उसकी मांग भरी थी, और बरस-दो बरस बाद यह हादसा उसके साथ भी पेश आना था, सो उसे किसी बहाने तिवरी की दुल्हान के यहां नहीं भेजा गया. कलेजे को चीर देने वाली वो डरावनी चीखें उसने सुनी थीं और बड़ा डरती थी कि मरद ऐसा क्याे कर देते हैं, कि औरत को इतने खून के आंसू रोने पड़ते हैं.
खैर, उसका ये भरोसा टूटा तो टूटा ही सही, लेकिन सुबह वाली किताब की कहानी सुनकर उसका मुंह फटा की फटा रह गया. पति को छोड़कर दूसरा आदमी कर ली, ट्रेन के नीचे कट गई. कैसी औरत थी ये अन्नाक. ऐसा करेगी तो कटेगी ही. उसका आदमी कुछ बोला नहीं. हमारे यहां होती तो जलता कंडा खींचकर मारते. गड़ासी से चीर देते, इंडारा में डुबो देते.
सीलबंद ढक्कीन वाले डिब्बे जैसी दुनिया में रहती थीं लडकियाँ. डिब्बे में कोई आता-जाता तो था नहीं. एक मुई चींटी तक तो आती नहीं. अपने दिल की कहें भी तो किससे. सो डिब्बाबंद मुल्कआ की बड़ी होती लड़कियां अपने अकेलेपन को अकेले में ही गुनती-बुनती, अकेले ही जूझती रहतीं सबकुछ से.
मैं भी इसी डिब्बाकबंद मुल्कम की एक लड़की थी. बड़ी चाशनी घुली थी, जिंदगी में जवानी की तरंगों के आने से. चाशनी में सिमोन मार्का नारीवाद का छौंका भी लग गया. सब गड्डम-गड्ड.
–मनीषा पाण्डेय
टीवी-18 में सीनियर एडिटर मनीषा इंडिया टुडे और अन्य प्रतिष्ठित मीडिया घरानों में काम कर चुकी हैं. मनीषा महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर अपने विचारोतेजक एवं अर्थवान लेखन के लिए सोशियल मिडिया का एक लोकप्रिय नाम हैं . वह bedakhalidiary.blogspot.com नाम का लोकप्रिय ब्लॉग चलाती हैं.
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