हमारा समाज कई तरह की विचित्रताओं से भरा पड़ा है. देखकर बड़ा ताज्जुब होता है. कुछ लोग आमतौर पर बड़े शिष्ट और शालीन होते हैं. अत्यंत मितभाषी. लेकिन बस एक बार उन्होंने ‘एंजॉय’ कर लिया तो हद से ज्यादा मुखर हो जाते हैं. एकदम वाचाल. लिपट-लिपटकर प्यार जताते हैं. लाड़ से आपको सराबोर कर डालते हैं. संदेह होने लगता है कि क्या ये वही बंदा है, जो दिन में धीर-गंभीर होकर अपने काम-धंधे में लगा रहता है. दुनियावी बातों से निरपेक्ष रहकर अपने काम-से-काम रखता है. (Column by Lalit Mohan Rayal)
कुछ खास मौकों पर उनका यह स्वभाव अचानक करवट बदल लेता है. देखते ही तपाक से मिलते हैं. आत्मीय रिश्तो को बार-बार दोहराते हैं, “तू तो मेरा भाई है.”
“मैं तेरी बहुत इज्जत करता हूँ.”
दशकों पुराने किसी आत्मीय क्षण को स्टीरियोटाइप अंदाज में बारंबार दोहराने लगते हैं. भले ही खुद को दो लोगों के सहारे की जरूरत पड़ रही हो, लेकिन जिद पर अड़ जाते हैं- “भाई! तुझे घर छोड़ने तो मैं ही जाऊंगा.”
एक भुक्तभोगी ने कल रात अपने दिन भर की घटनाओं का हिट ऑफ़ द डे साझा किया.
ऐसे ही किसी जलसे में ऐसी किसी शख्सियत से उनका साबका पड़ गया. उस शख्सियत के बारे में मशहूर था कि वो एकदम ‘चेप’ हो जाता है. पीछा छुड़ाना लगभग नामुमकिन कर देता है.
कल रात की बात है. मैं रात्रिभोज में थोड़ा देर से पहुँचा. थोड़ी देर राम-राम, दुआ सलाम का दौर चला. तभी उस शख्सियत पर मेरी नजर पड़ गई. उसे जितना इग्नोर करने की कोशिश की, भाई उतना ही चुंबकीय आकर्षण दिखाने लगा. छठी इंद्री ने जोर मारा, तो उससे जान बचाने के लिए जान-पहचान की दो-चार टोलियो में खुद को खपाने की कोशिश की. भाई जबरदस्त पेयरिंग बनाकर रोमिंग करता रहा. फिर उसने लिपट-लिपट के लाड़ जताया.
सोचा अब इससे जान छुड़ाऊँ, तो कैसे छुड़ाऊँ. तभी देखा, डॉक्टर साहब का परिवार मेल-मुलाकात करके वहाँ से घर निकलने को था. डॉक्टर साहब सज्जन आदमी हैं. पुराने मुलाकाती हैं. उन्होंने मुझे भी ऑफर किया, “चलो भाई साहब! आपको भी चौराहे तक छोड़ देते हैं.”
नेकी और पूछ-पूछ. इधर जान बचानी भारी पड़ रही थी. मैंने तपाक से इस प्रस्ताव को लपक लिया. हम लोग जैसे-तैसे रोड तक पहुँचे. ड्राइवर ने पार्किंग से मोटर निकाली. जैसे ही मैं पीछे की सीट पर बैठा, तो यह देखकर भारी ताज्जुब हुआ कि वह शख्सियत पहले से ही कार की फ्रंट सीट पर विराजमान थी.
डॉक्टर साहब शायद आगे की सीट पर बैठना प्रीफर करते हैं. डॉक्टर साहब ने जैसे ही आगे झाँका, तो शख्सियत उन्हें पीछे की सीट की तरफ इशारा करके बोली- “बैठो- बैठो डॉक्टर साब! आराम से बैठो!”
वे मन मसोसकर पीछे की सीट पर बैठ गए.
चौराहे से मुझे गुरु जी के घर जाना था. मैंने सोचा यार, अगर मैं चौराहे पर उतरकर सीधे उनके घर जाता हूँ, तो गुरु जी की रात खराब हो जाएगी. ‘सेटेलाइट’ रात भर उनकी परिक्रमा करता रहेगा.
उसे चौराहे पर उतारा. उतरना मुझे भी वहीं पर था, लेकिन उससे जान छुड़ाने के इरादे से मैं एक किलोमीटर फालतू गया. डॉक्टर साहब को धन्यवाद दिया. गाड़ी से उतरा और पैदल-पैदल वापस.
जैसे ही मैं उसके घर के आगे से होकर गुजरा, मेरे होश फाख्ता हो गए. वह घर से मोटरसाइकिल लेकर निकल रहा था. एबीसी अर्थात् एक्सीलेटर, ब्रेक, क्लच तीनों फुल स्पीड में. हेड लाइट की पूरी रोशनी मेरे ऊपर फेंकते हुए बोला- “भाई, तेरे को कहाँ छोड़ दूँ.”
मैंने बात बदलते हुए पूछा- “तुम इस समय कहाँ?”
बोला, “अरे भाई! मैं तुम लोगों के साथ कार से आ गया और फेमिली वहीं भूल गया यार! घर पहुँचा, तो उनका फोन आ गया.”
“अच्छा तू ये बात छोड़. तू ये बता, तेरे को कहाँ छोड़ना है भाई!”
मैने उसे हाथ जोड़कर कहा, “भाई पहले तू फेमिली को लेके आ, तब तक मैं यहीं पर हूँ. फिर साथ चले चलेंगे.”
उसने मुझे कसम दी- “मैं बस अभी उन्हें लेकर आता हूँ. यूँ गया, यूँ आया. फिर मैं तुझको छोड़ूँगा. जहाँ बोलेगा, वहाँ छोड़ूँगा. यहाँ से हिलना नहीं.”
वह झूमते-टहलते निकला, तब जाकर मैं आगे बढ़ पाया. (Column by Lalit Mohan Rayal)
यकीन आता है कि इस राह से जरूर कोई लश्कर गुजरा होगा – अथ ग्राम चुनाव कथा
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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