[पूर्वकथन: ललित मोहन रयाल की यह सीरीज खासी लोकप्रिय रही है और इसे हमारे पाठकों ने न केवल पसंद किया है इसे खूब सारे फेसबुक शेयर्स भी मिले हैं. इस सीरीज का यह अंतिम हिस्स्सा है. अपने पैतृक गाँव खड़कमाफी और उसके बाशिंदों को तानेबाने का रूप देकर बनाई गयी यह सीरीज जल्द ही ‘एक दुनिया खड़कमाफी’ नाम से पुस्तकाकार आने वाली है. ललित जी अगले सप्ताह से सत्तर-अस्सी के दशकों की मेनस्ट्रीम फिल्मों को लेकर एक अनूठी लेखमाला अगले सप्ताह से इसी वेबसाइट पर शुरू करने जा रहे हैं. – सम्पादक]
तब तक बगीचे से फल तोड़ना ‘शरारत’ में गिना जाता था. बहुत हद हुई तो ‘बदमाशी’. मान्यता यह रहती थी कि, ‘लड़के फल नहीं खाएंगे, तो कौन खाएगा.’ लड़कों को ‘वानर- योनि’ का दर्जा प्राप्त था, तो फल चुराने को ‘दधि-माखन-चोरी के स्तर की मान्यता.’ ज्यादा-से- ज्यादा हुआ, तो पकड़े जाने पर बगीचा मालिक, उठक-बैठक करवाकर छोड़ देता था. मात्र इतने भर से उसका अहम संतुष्ट होकर रह जाता. लड़के बेईमानी भी इस स्तर की करते थे कि, अगर उन्हें विशुद्ध तकनीकी नजरिए से देखा जाता, तो ये हरकतें, अखिल भारतीय कीर्ति में स्थान पाने लायक रहती थीं. उदाहरण के लिए ताई के बाग में चोरी की जानी है तो उसके लिए भी बाकायदा रणनीति बनाई जाती थी. मसलन ताई के बगीचे में ककड़ी-खीरा-गलगल-संतरा लकदक आए हों, आते-जाते उन पर रोज निगाह पड़ती हो. फलों में ये खूबी बताई जाती थी कि लदी हुई डालियाँ चितेरों का ध्यान खुद आकर्षित किया करती हैं. तो ऐसा कौन चितेरा होगा, जो ऐसे अवसरों पर लोभ संवरण कर सके. जब संयम जवाब दे गया, तो अंधेरा घिरते ही दो लड़कों ने ताई के बगीचे में धावा बोला.
दोनों में से एक मजबूत था, तो दूसरा लहीम-शहीम. हल्की-फुल्की कद काठी वाला लड़का, मजबूत लड़के के कंधे पर चढ़ बैठा. उसके बाद उन्होंने अपना हुनर दिखाकर रख दिया. इस बरस ताई को बड़ी आस थी. कुछ फल बेटी के घर भेजूँगी, तो कुछ बहन के घर. सुबह-सुबह नतीजा देखकर ताई को गहरा धक्का लगा. उसने खूब कोहराम मचाया, दसों दिशाओं को जीभर के कोसा. आखिर उसका शुबहा पात्र लोगों पर आकर ही टिका. मुश्क बाँधे ‘डिजर्विंग कैंडिडेट’ जब उनके सामने लाए गए, तो वैताल की तरह कंधे पर सवार होने वाले लड़के ने बहुत सहज भाव से अपनी सफाई में कहा, “तेरे सर की कसम ताई, जो तेरे खेत में मैने पैर भी रखा हो.’ तो उसको काँधे पर लादने वाले लड़के ने सौगंध उठाई, “विद्या कसम ताई, जो तुम्हारे पेड़-पौधों को मैंने हाथ भी लगाया हो. कसम से ताई.”
टेक्निकली वे सच बोल रहे थे, लेकिन सच उठाई गई इन सौगंधों के मध्य में जाकर कहीं ठहरता था. वह भावुकता और श्रद्धा का दौर था. आपसी विश्वास का दौर. बेचारी ताई, सच जानते हुए भी मन मसोसकर रह गई. “नुकसान तो हुआ है, लेकिन यह भी सच है कि, ये बच्चे मुझ वृद्धा के सामने झूठ नहीं बोल सकते.”
एक वाकया और है, जिसकी उस दौर में अंतरंग समाज में खूब चर्चा हुई. फसल बोने से पहले खेत की तैयारियाँ चल रही थीं. सिंचाई के लिए बड़ी मारामारी रहती थी. जो किसी बवाल में नहीं पड़ना चाहते थे, वो रात को खेतों में पानी देते थे. रातोंरात खेत पानी से लबालब भर जाते, चाहे इसके लिए औरों के खेतों का पानी काटकर ही क्यों न भरना पड़े. तो दो लड़के मध्यरात्रि में खेतों में पानी दे रहे थे. गहन रात्रि थी और नीरव अंधकार. छोटे ने बड़ी शालीनता से कहा, “भाई आम खाएगा.” बड़े ने सोचा, ‘इस सुनसान निर्जन में आम कहाँ हैं. हो सकता है, यह कोई शरारत करना चाहता हो या कोई पहेली बूझ रहा हो’, लेकिन तभी छोटे ने इसरार करते हुए कहा, “भाई अगर इच्छा हो तो बोल, शरमा मत. बोलता है तो दशहरी का इंतजाम करता हूँ, अभी-के-अभी.” यह सुनकर बड़े ने सोचा, ‘आसपास तो पीपल के पेड़ हैं या जामुन के. आखिर ये आम लाएगा कहाँ से .’ वह उसकी विकट प्रतिभा से अनभिज्ञ था, इसलिए इस बात से कतई अनजान था कि, वह इस तरह का कोई इंतजाम भी कर सकता है. ‘फॉर्मेलिटी’ के लिए उसने हाँ कह दी. उसके हामी भरते ही उस वीर ने दोनों हाथों से धरती खोदनी शुरू कर दी. वह स्वचालित ढंग से मिट्टी उलीचता चला गया. थोड़ी ही देर में उसने खेतों में दबाई हुई आम की पेटी सामने हाजिर करके रख दी. दूसरा हैरत में पड़कर रह गया. वह पहली बार ऐसी घटना का गवाह बना था, इसलिए उसका आश्चर्य में पड़ना स्वाभाविक था. उसने सोचा, ‘धरती माता अन्न देती है, यह तो सुना था, लेकिन यही धरा पेटी भी देती है’, यह उसने आज पहली बार देखा. वह धन्य होकर रह गया. उसने मन-ही-मन सोचा, ‘सचमुच धरती माता रत्नगर्भा है.’ उसकी विचार-श्रृंखला और आगे चलती, तभी दूसरा विनती करके बोला, “भाई, छिलके इधर-उधर मत फेंकना. एक जगह पर ढे़र बनाते जाओ. जब पेटी खत्म हो जाएगी, तो इसी के अंदर डाल देंगे.” फिर तो वो रोज रात को ऑफर देने लगा. कभी आम, तो कभी लीची.
तो लीची का सीजन था. बगीचे में लकदक लीचियाँ आई हुई थी. पिछले बरस चाचा को बहुत नुकसान उठाना पड़ा. छोकरों ने जितना खाना था खाया, उससे ज्यादा नुकसान किया. फिर वही वानर-वृत्ति. तो चाचा पिछली बार से सबक लेकर इस बार कुछ ज्यादा ही सतर्क थे. उन्होंने इस बार उपद्रवी लड़कों को सबक सिखाने की ठानी हुई थी. मोटे-तगड़े चौकीदार रखे और उन्हें पूरी छूट दे दी. पेड़ से बाँधो या उल्टा लटकाओ, जो मर्जी आए वो करो, लेकिन नुकसान नहीं होना चाहिए. तो चौकीदारों के रहते लीची चुराना संभव नहीं था.
इधर सीजन निकला जा रहा था. बिना लीची चुराए मौसम निकल जाए, ये बात लड़कों को गवारा नहीं थी. बगीचे के बगल से गुजरते, तो गुजरना असहनीय हो जाता. तो आक्रमण का निश्चय हुआ और मध्य रात्रि में धावा बोला गया. बगीचे के चारों तरफ कँटीली तार-बाड़ रहती थी. एक स्थिर स्थान पर तार-बाड़ को ऊपर करके ‘ट्रेसपासिंग’ करने का चलन था. लड़के मुहूर्त के हिसाब से मौके पर जा पहुँचे. वे जरा जल्दी में थे और सीमा-रेखा पार करने की सोच ही रहे थे कि तभी उनमें से एक लड़का, जो हमेशा चौकन्ना रहता था, ने उन्हें ऐन मौके पर बरज दिया, “बिना देखे-भाले कोई स्टेप नहीं उठाना चाहिए. पहले जाँच-परख लेते हैं. फिर आगे देखी जाएगी.” कहते हुए उसने जेब से बिजली का टेस्टर निकाला. तार-बाड़ को टच करते ही, टेस्टर के पृष्ठभाग की घुंडी चमकने लगी. सबको बहुत हैरानी हुई, जो जाने की जल्दी में थे, उन्हें तो कुछ ज्यादा ही हुई. जरा भी असावधानी बरतते तो जान पर बन आती. एकतरफ तो चाचा पर क्षोभ हुआ, तो दूसरी तरफ उनकी चतुराई पर हैरानी. उन्होंने प्रबंध करने में कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी. तार-बाड़ पर डायरेक्ट करंट छोड़ा हुआ था.
वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले उस लड़के में विकट प्रतिभा थी. वह लीक-लीक चलनेवालों में से नहीं था. उसने अपनी कमर से ‘बेडशीट’ निकाली. पट्ठा पक्का इंतजाम करके निकलता था. चादर की महिमा बड़ी निराली है. कबीर की सारी-की-सारी फिलॉसफी, झीनी-झीनी-बीनी चदरिया से लेकर रंगरेज ने रंग डारी मोरी चुनरिया तक, सब इसी चादर पर टिकी हुई है. उससे पहले ‘खिलजी रिवॉल्यूशन’ का अहम बिंदु भी इसी चादर पर आकर टिकता है. बलबन के अंतिम उत्तराधिकारी कैकुबाद के साथ क्या हुआ था. गुलाम वंश के सुल्तान को खिलजी सरदार जलालुद्दीन ने चादर में बाँधा और जमुना जी में प्रवाहित कर दिया. बस इतने में ही खिलजी क्रांति हो गई. तत्पश्चात् खिलजी वंश ठाठ से सल्तनत चलाने लगा. बहरहाल बेडशीट निकालकर उसने तार-बाड़ के नीचे से एक सधे हुए अंदाज में फेंकी. चादर ठीक लीची के पेड़ के नीचे फैली और फुलस्केप में आकर बिछ गई. फिर उसने एक बाँस के डंडे के सहारे लीची के बूटे को सहलाना चालू कर दिया. बेडशीट लबालब लीची से भर आई.
कुक्कुट-हरण थोड़ा वर्जित टाइप की हरकत मानी जाती थी. इसमें नाम आने पर छवि में भारी गिरावट देखने को मिलती. एकबार नाम आ जाए तो फिर लड़का मुँह छिपाने लायक हो जाता था. यह खतरा हमेशा बरकरार रहता था. अगर एक बार यह कलंक-कथा नाम से चिपक गई, तो फिर श्रुति-परंपरा में पूरे समाज में फैलने से इसे कोई नहीं रोक सकता था. बड़े-से-बड़ा शुभचिंतक भी नहीं. खतरा बरकरार रहने के बावजूद, लड़के कहाँ मानते थे. लड़के तो लड़के. स्टंट’ करने और ‘डेरिंग टास्क’ से वे कहाँ घबराते थे.
तो योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए पहले टोह ली गई. फिर बाकायदा ‘रेकी’ की गई. सबकुछ चौकस करके मुर्गीबाड़े में रात को धावा बोला गया. धावा-दल पूरी सजधज के साथ आया था. सम्यक् सतर्कता के साथ. रबड़ बैंड से लेकर भूदानी झोले तक, पूरे सरंजाम के साथ. रबड़ बैंड इसलिए साथ लाए जाते थे, ताकि ज्यों ही कोई वयस्क कुक्कुट हाथ लगे, उसे कोई मौका दिए गए बगैर, उसकी चोंच पर रबड़ बैंड पहना सकें. कसकर उसका मुँह बंद किया जा सके. वो किसी भी तरह अपनी आवाज न उठा सके. तत्पश्चात् एक बैंड तो पंजे के ऊपर भी बनता ही था, ताकि कहीं ऐसा न हो कि, वो बदहवासी में आत्मरक्षा में दौड़ लगा दे. इस बात की पूरी एहतियात बरती जाती थी कि, उसके मालिक को तनिक भी भनक न लगे. जैसे भी हो, वो कातर-पुकार न लगा सके. नहीं तो भाँडा फूटकर रह जाता. तो लड़के इस बात का मुक्कमल इंतजाम किए रहते थे कि, ना तो वो चीख सके, न चिल्ला सके और न ही मालिक से गुहार लगा सके. कुल मिलाकर कुक्कुट-हरण का एक खास ‘मैनरिज्म’ रहता था.
तो एक नौसिखए ने मौके पर जोर-शोर से जोर- आजमाइश शुरू कर दी. बंदा थोड़ा अनाड़ी था. कुक्कुट-दल में भगदड़ मचकर रह गई, जैसे दस्यु-दल को देखकर ग्रामीणों में मचने की संभावना बनती थी. मुर्गीबाड़े में जो मुर्गा सबसे बाहर की तरफ था, वही रेंज में आया. मौत का पैगाम सुनकर, अभागा कुक्कुट अचकचाकर रह गया. हड़बड़ी में वो सकपकाते हुए अंदर की ओर भागा. फड़फड़ाहट सुनकर धावा-दल के एक अनुभवी सदस्य ने उसे बरजा, “ऐसे क्यों खींच रहे हो. हाथ-पैर ऐसे खींचोगे, तो वो तो चीखेगा ही. अबे! जोर मत आजमा. प्यार से सहला, तब उठा, जैसे पापा अपने बच्चे को गोद में उठाता है. अरे! उसे दुलारो. मोहब्बत दिखाओ, खिंचा चला आएगा. बच्चे को जैसे दुलार करते हैं, आ जा मेरे बच्चे, शाबाश! मेरा राजा बेटा. ऐसे धींगामस्ती, छीनाझपटी करोगे, तो बच्चा चीखेगा नहीं.”
तो इस धावे मे प्राप्त वयस्क कुक्कुट तो अपनी ‘उपयोगिता के चलते’ शीघ्र ही मुक्ति पा जाते थे. अब एक सवाल उठ खड़ा होता था, इन नादान-अवयस्कों का क्या करें. उन्हें ‘शेल्टर होम’ में तो डाला नहीं जा सकता था. फिर वो छोटे बच्चे, उस रात के हादसे को लेकर सदमे में रहते थे. उस रात का वाकया उन्हें रह-रहकर याद आता होगा. उन्हें गहरा सदमा लगा रहता था. बेचारे उस प्रभाव में आकर गुमसुम से बने रहते थे.
तब सिनेमा का बहुत जोर हुआ करता था. निदान-स्वरूप सिनेमा की शरण ली गई. सिनेमा में अक्सर दिखाया जाता था कि, ‘शॉक’ लगे व्यक्ति को ‘नार्मलाइज’ करने के लिए डॉक्टर, शहर और आबो-हवा बदलने की सलाह देते थे. ‘मरीज को कुछ वक्त देना चाहिए. उसे चेंज चाहिए, ताकि वो उस बुरे दौर को भुला सके. उससे उबर सके. जैसे भी हो, उसे उस बुरे वाकये की याद आने से बचाना चाहिए.’ इस प्रभाव मे आकर उसने अवयस्क चूजों को फौरन वहाँ से शिफ्ट कर दिया. दरअसल वह किसी दूर के कस्बे में रहकर पढ़ रहा था, जहाँ वह किसी किराए के घर में रहता था. पास ही गल्ला गोदाम था. गोदाम से पूरे इलाके को राशन-सप्लाई की जाती थी. तो श्रीदामा रोज चूजों को लेकर सुबह-शाम घुमाने ले जाते थे. दाने की कोई कमी तो थी नहीं. गोदाम की छीजन बाहर पड़ी रहती थी. संक्षेप में, दाने की कोई कमी नहीं थी. सरकारी माल होने पर खुशी अलग से मिलती. तो वे नियमित रूप से सुबह-शाम चूजों को वही दाना चुगाते. चूजों में एक खास तरह की मनोवृत्ति पाई जाती है. पूरा-का-पूरा झुंड चीचियाहट करते हुए दाना चुगने में टूट पड़ता, लेकिन दहशत में आया हुआ चूजा गुमसुम सा रहने लगा. चश्मदीद चूजा अक्सर झुंड से अलग-थलग पड़कर रह जाता. उसके संगी-साथी चूजे दाना चुगते रहते थे और वो चुपचाप कोने में दुबका सा खड़ा रहता. खोया-खोया, गुमसुम सा. नए मालिक श्रीदामा सोच में पड़कर रह गए. ‘अगर यही हाल रहा तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. ये दाना चुगेगा नहीं, तो बढ़ेगा कैसे. शरीर में कहाँ से लगेगा.’ इसका भी निदान बताया गया था. ‘एकांती चूजों’ को बहला-फुसलाकर चुग रहे चूजों के बीच में लाना होता था. तो वह ताली बजाकर उसका ध्यान अपनी ओर खींचता. पुचकारकर- चुमकारकर, किसी तरह उसे पाँच-दस दाने चुगने को राजी कर जाता. उसे चिंता सताने लगी, ‘नादान है. अगर ऐसा ही रहा, तो ये तो जल्दी निकल जाएगा. चुगा नहीं, तो जल्दी बोल जाएगा. जैसे-तैसे इसकी रक्षा करनी चाहिए. एक बार अपने संगी-साथियों के बीच में पड़ जाए, तो हो सकता है कि, देखादेखी में ही शायद कुछ चुग ले.’ कुल मिलाकर, वह उसे बहला-फुसलाकर, अनशन से उठा ही लेता था.
वह रोज सुबह-शाम उन्हें टहलाने ले जाता. धीरे-धीरे मोहल्ले में उसकी छवि ऐसी बन गई कि, चूजों की छवि से चिपककर रह गई. जब भी उसका जिक्र आता, तो लोग कहते- ‘अच्छा वो चूजेवाला.’ मकान- मालिक को पहले तो कुछ खास समझ नहीं आया. उन्हें उसका यह रवैया खास पसंद नहीं था. उनकी सोच थी कि, ‘मुर्गों को उपयोगिता-सिद्धांत के चलते, पसंद तो कई लोग करते हैं, लेकिन ऐसी देखभाल करते तो कभी किसी को नहीं देखा. इतना ख्याल तो लोग सगे का भी नहीं रखते.’ ऐसा सेवा-भाव देखकर उनका अचंभित होना स्वाभाविक था. अगर वे यह जान जाते कि, ये चूजे अपहृत हैं और ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ के प्रभाव में है, तो शर्तिया उनका हृदय-स्पंदन बढ़ जाता. ईश्वर न करे क्या-क्या हो जाता. जब उनसे रहा नहीं गया, तो आखिर एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया, “ये सुबह- शाम जो तुम इन्हें टहलाने ले जाते हो, पढ़ाई का हर्ज नहीं होता. भले आदमी, यहाँ पढ़ने आए हो कि, शौक पूरा करने. जितना इनके पीछे लगे रहते हो, उतना किताबों के पीछे लगे होते, तो तुम्हारा भविष्य बनता.” इस पर वह मजबूरी जताकर बोला, “जी, अब आपसे क्या छिपाना. मेरी गैर हाजरी में घर में कोई इनका ख्याल नहीं रखता. बेचारे दाने-दाने को तरस जाते हैं. जब मुझसे रहा नहीं गया, तो मजबूरी में इन्हें अपने साथ लाना पड़ा.” मकान-मालिक पशोपेश में पड़कर रह गए. भावुक पक्ष बहुत कायदे से उभारा गया था. भले ही ये करतब अनपॉलिश्ड रहे हों, लेकिन रहे हमेशा सच्चाई के करीब.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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