वे न्यू छंगामल इंटर कालेज के प्रिंसिपल थे.वही राग दरबारी जैसा छंगामल इंटर कालेज. उसी की तरह मैनेजमेंट का विद्यालय. उसी तरह सोर्स और पैसों से वे कभी इस विद्यालय में अवतरित हुए.आप सोच रहे होंगे इस विद्यालय का नाम राग दरबारी की तरह छंगामल इंटर कालेज कैसे हो गया. तो बस इतना समझिए कि इस विद्यालय के प्रबंधकों ने जब देखा कि बच्चों का भविष्य बनने की तो कोई विशेष उम्मीद है नहीं अलबत्ता छंगामल नाम रखने से कोई बड़ा लेखक इस पर उपन्यास जरूर लिख सकता है तो उन्होंने इसका नाम न्यू छंगामल इंटर कालेज रख दिया.
वे कई प्रतिभाओं के मालिक थे, लेकिन अपनी भाषण देने की प्रतिभा पर उन्हें सबसे अधिक नाज था. उन्हें रोज भाषण देना प्रिय था. वे प्रार्थना, राष्ट्रगान जैसी चीजों के अवसर पर उपस्थित रहने को अपनी तौहीन समझते थे. प्रार्थना सभा की सारी औपचारिकताओं के पूरा होने पर वे एकाएक दाहिनी ओर से प्रकट होते. सबकी नजर उनकी ओर होती और वे माइक के सामने खड़े होकर भाषण देने को तैयार हो जाते.
भाषण देने से पहले वे ध्यान से सभी की ओर देखते, फिर अपना भाषण शुरू करते.जब उन्हें लगता कि उन्होंने कोई जोरदार बात कह दी है तो वे बगल में खड़े शिक्षक की ओर देखते. शिक्षक प्रशंसा भरी नजरों से उनकी ओर देखते या सिर हिलाकर अथवा आंखें मटकाकर उनकी बात का समर्थन करते. वे प्रसन्न हो जाते तथा उनका भाषण चलता रहता. भाषण को किसी तार्किक मुकाम पर पहुंचाकर वे एक झटके में उसे खत्म करते और बगैर किसी की ओर देखे जूतों से ‘खट-खट’ की आवाज करते हुए दाहिनी ओर को चले जाते. उनके भाषण से रोज पहला पीरियड गर्क हो जाता. कुछ शिक्षक नाराज होते, कुछ खुश हो जाते ‘चलो, बवाल खत्म हुआ.’
वे भाषण देने किसी राजा की तरह प्रकट होते और राजा की तरह गायब हो जाते. उनका भाषण देश के नाम संबोधन के बराबर महत्व का होता था. इसमें कोई शक नहीं कि वे भाषण में महारथी हो चुके थे. विषय के अनुसार ऊंची-नीची आवाज, शरीर को घुमा-फिराकर तथा हाथों के करामाती प्रयोग से वे श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देते थे. अपने भाषणों में सच-झूठ का अद्भुत मिश्रण तैयार कर वे एक अलग ही दुनिया की रचना कर दिया करते थे. लोगों के सामने आकर बोलने में संकोच करने वाले तथा आत्मविश्वास हीन लोग उनका भाषण सुनकर गदगद हो जाते.
उन्हें लगता था, भाषण देकर उन्होंने अपना दिनभर का काम कर दिया है. अब उन्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है.भाषण देने के तुरंत बाद उन्हें चाय की जरूरत होती. चाय पीते हुए वे सरकारी टेलीफोन पर अपने रिश्तेदारों तथा मित्रों से जरूरी बातें निपटाते.इतनी देर में धूप में उनकी कुर्सी-मेज लग जाती.मेज पर घण्टी और अखबार मौजूद होता.वे आराम से अखबार पढ़ते.इस बीच यदि बच्चे शोर करते तो वे सीधे उनसे कुछ कहने के बजाय घण्टी बजाकर किसी शिक्षक को बुलाते और उनसे बच्चों को चुप कराने को कहते. अखबार खत्म कर वे अपने प्रशंसक एक-दो शिक्षकों को आमंत्रित करते. पहले शिक्षक उनके आज के भाषण की तारीफ करते.दूसरे उनके कोट की प्रशंसा करते.तीसरे उनके बालों के स्टाइल की वाह-वाही करते. तीनों के मुंह से तारीफ सुनकर वे गदगद हो जाते.तीनों अपने पीरियडों को भूलकर रासो काव्य रचते रहते. अपने काम को पसंद करने वाले उनकी बैठकी में आना पसंद नहीं करते थे. वे इस संगोष्ठी में बुलाये जाने पर किसी बहाने से अपनी कक्षाओं की ओर चले जाते थे.
प्रशंसकों की प्रशंसा सुनकर वे भावुक हो जाते और कहते यदि राजनीति में होता तो अब तक राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया होता. फिर वे बताते कि कैसे नम्बरों की थोड़ा सा कमी के कारण वे आईएएस होने से रह गए. प्रशंसक कहते, राजनीतिक पार्टियों में अच्छे भाषण देने वाले नजर नहीं आते. उन्हें आपको अपनी सभाओं में बुलाना चाहिए. जोश में आकर वे कहते कि एक बार उनकी इच्छा भी देश के संसद में भाषण देने की है. प्रशंसक कहते, सर ऐसा होने पर तो आप देशभर में छा जायेंगे. रिटायर होते ही कोई पार्टी ज्वाइन कर लेनी चाहिए. आपको संसद में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकेगा.अभिभूत होकर वे किसी राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता का हवाला देते हुए कहते कि उनका तो अपनी पार्टी से जुड़ने का हमेशा आग्रह रहता है.
अपने भाषणों में वे उदाहरणों के माध्यम से बच्चों से ईमानदारी तथा सच्चाई के रास्ते पर चलने को कहते. भ्रष्टाचार, बेईमानी का विरोध करते. अच्छा नागरिक बनने का आह्वान करते. बच्चों को बेहतरीन खाना खिलाने को आमादा मिड डे मील प्रभारी को रोज बुलाकर महीने के पांच हजार की मांग करते. वह कहता, प्रभार किसी और को दे दीजिए. मैं बच्चों के भोजन में किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता. वे कहते, फलाने स्कूल का प्रभारी तो साइन कराते समय पांच हजार रख देता है. प्रभारी कहते, दाल के नाम पर पानी परोसता होगा. ये कहते, तुम भी पानी परोसो.कौन पूछ रहा है. जवाब देने के लिए मैं हूँ तो. प्रभारी कहता, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए. महीने के आखिर में हिसाब-किताब के बाद जो बचेगा आप ले लेना. ये कहते, तुम हम दोनों के लिए बचाओ. राजा हरिश्चंद्र मत बनो. तुम्हारे अच्छे खाने से बच्चों का कुपोषण जाने से रहा.
उनका जोर स्थानीय जन प्रतिनिधियों से विद्यालय के चहुंमुखी विकास के लिए फंड जुटाने में रहता. वे इसके लिए हमेशा प्रयासरत रहते. एक बार उन्होंने स्थानीय जन प्रतिनिधि के सम्मान में बड़े समारोह का आयोजन किया तथा जवाहर लाल नेहरू के मशहूर भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ की तरह अपना मशहूर भाषण ‘चिल्ड्रनस ट्रेजडी ऑफ कॉमन स्कूल्स’ दिया.
उन्होंने स्थानीय विधायक का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि मान्यवर, एक ओर हम मंगल में अपने यान भेजने की सोच रहे हैं. दूसरी ओर हमारे स्कूलों के बच्चे टांट-पट्टी में बैठने को अभिशप्त हैं. मैं चाहता हूं, मेरे स्कूल के बच्चे कुर्सी पर बैठें. मैं इन बच्चों को आत्मसम्मान का जीवन जीते हुए देखना चाहता हूं. इनकी हालत देखकर मेरी आँखों में आंसू आ जाते हैं. मान्यवर, मैं चाहता हूं इस विद्यालय के बच्चे विज्ञान अच्छे से पढ़ें. हमारी प्रयोगशालाओं में श्रेष्ठ उपकरण हों, जिनसे बच्चों में नई-नई खोजों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो.
भावुक विधायक ने उनके जज्बे की खूब प्रशंसा की तथा वचन दिया कि इस बार वे उन्हें फर्नीचर तथा अगली बार प्रयोगशाला उपकरणों के लिए वित्तीय मदद जरूर देंगे. तीन महीने बाद ही विधायक ने कुर्सियों के लिए पैसा भिजवा दिया. इन्होंने भी पूरी तत्परता से कुर्सियों का आर्डर दिया. एक महीने बाद जो कुर्सियां आई, वे इतनी दुःखी, उदास और बीमार थी कि एक हफ्ते के भीतर ही उन्होंने धरती पर लेटना आरम्भ कर दिया. जानकर लोगों का कहना था कि सब जोड़ते हुए कमीशन का मामला 60 फीसदी तक पहुंच गया था. अब चालीस फीसदी में तनकर डटे रहने वाली कुर्सी तो आने से रही.
इस तरह भाषण दे-देकर वे बच्चों को कम्प्यूटर शिक्षा से लेकर, विभिन्न तरह के ज्ञान-विज्ञान तथा बाद में राष्ट्रवाद की लहर चलने पर योग में दक्ष बनाते चले गए. उन्होंने कभी बच्चों को समझाने की कोशिश नहीं की कि भाषण देना या लोगों के सामने खड़े होकर बोलना कोई बड़ी बात नहीं है, बल्कि यह केवल आत्मविश्वास और अभ्यास का मामला है.सभी को आगे आकर अपनी बात कहनी चाहिए.भाषण का उद्देश्य सिर्फ वाहवाही नहीं, कुछ काम करना अथवा बदलाव का आह्वान होता है. जब वे विद्यालय से विदा हुए तो उनके भाषणों से तो कुछ नहीं बदला, अलबत्ता पिछले प्रधानाचार्यों द्वारा जतन से इकट्ठा की गई विभिन्न निधियों का उन्होंने विद्यालय तथा विद्यार्थियों के हित में खूब सदुपयोग किया, जिससे वहां हर तरह का कभाड़ जरूर इकट्ठा हो गया, जो विद्यालय से समाज की ओर बढ़ रहा था.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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