एक समय था, जब पढ़ती हुई क्लास तथा पढ़ाते हुए शिक्षक को बड़े सम्मान से देखा जाता था. कोई व्यक्ति चाहे बड़ा हो या छोटा सीधे कक्षा में प्रवेश नहीं करता था. न्यू छंगामल कॉलेज में अब दृश्य बदल चुका है. अब विद्यालय या बाहर का कोई भी व्यक्ति सीधे कक्षा में घुसा चला आता है.
पहले प्रधानाचार्य अथवा अधिकारी कक्षा के निरीक्षण के लिए पीछे के दरवाजे से आकर चुपचाप बैठ जाते थे. इस तरह वे शिक्षा, शिक्षक तथा बच्चों की पढ़ाई को सम्मान देते थे. जब से स्कूल से भागने वाले लोग विधायक-मंत्री बनने लगे हैं. शिक्षा महत्वपूर्ण नहीं रह गई है. अब लोग पढ़ाई को भाषणों में ही महत्व देते हैं. छोटा-बड़ा कोई भी हो सीधे स्कूल या कक्षा में घुसे चले आता है.
विद्यार्थी देखते हैं कि जब समाज तथा व्यवस्था शिक्षा तथा शिक्षक का सम्मान नहीं करना चाहते तो वे उन्हें क्यों महत्व दें ? अब हालत यह है कि राजधानी से जिला मुख्यालय होते हुए किसी सूचना के लिए एक फोन आता और कार्यालय सहायक बदहवास हालत में चलती हुई कक्षा में घुस कर शिक्षक को कुछ इस अंदाज में तलब करते, गोया वे पढ़ाने के बजाय बच्चों को चुटकुले सुना रहे हों. शिक्षक कक्षा को छोड़कर कार्यालय की ओर को चल पड़ते. पीछे से उन्हें बच्चों के शोर की आवाज सुनाई पड़ती.
अब शिक्षा से अधिक ऊपर से मांगी जा रही सूचनायें महत्वपूर्ण हो गई हैं. इन सूचनाओं को इतनी जल्दी में देना होता है कि कई बार तो सूचना संग्रह के लिए पढ़ाई-लिखाई छोड़कर पूरे विद्यालय के शिक्षकों को इस कार्य में जुटना पड़ता है. बच्चे सोचते हैं, शिक्षक पढ़ाने क्यों नहीं आ रहे ? जब देर तक वे नहीं आते तो उन्हें लगता है नहीं आ रहे तो बढ़िया है. क्यों न मौज-मस्ती कर ली जाये. पढ़ाई के लिए चिन्तित कुछ बच्चों को लगता है कि शिक्षक जान-बूझकर नहीं आ रहे. अपने कार्य के प्रति उदासीन हैं. ऐसे में उनके कोमल मन में शिक्षकों के प्रति गलत धारणा बन जाती और वे भी अपने कार्यों के प्रति उदासीन होने लगते.
बिष्ट मास्साब समय से डाक के महत्व को समझ गये और पढ़ाई-लिखाई छोड़कर विभिन्न प्रकार के अभियानों के प्रभारी हो गए. कार्यालय में स्टाफ पूरा नहीं है. अब वे ऑफिस में बैठकर डाक बनाते हुए नजर आते हैं. अभी वे एक डाक पूरी भी नहीं कर पाते कि पीछे से दो डाक आकर खड़ी हो जाती है. इस तरह से वे सुबह-शाम डाक बनाने के काम में लगे रहते. उनकी कक्षाओं के बच्चे उनकी प्रतीक्षा करते, मगर उन्हें फुर्सत नहीं मिल पाती.
डाक बनाते हुए बिष्ट मास्साब न्यू छंगामल कालेज में सबसे जरूरी काम कर रहे व्यक्ति के रूप में नजर आते थे. इस वक्त उनके नखरे देखने लायक होते. वे साहब को बताते कि डाक बनाना कितना मुश्किल काम है तथा उन्हें सूचनायें एकत्रित करने में कितनी मुश्किल होती है. इशारों-इशारों में वे यह भी संकेत देते थे कि अगर वे न होते तो डाकें शायद ही इतनी तेजी से तैयार हो पाती. विद्यालय के दूसरे शिक्षक उन्हें ईर्ष्या भरी नजरों से देखते. एक शिक्षक का ऑफिस कर्मी के रूप में बदल जाना इस दौर की विचित्र घटना थी.
इधर पूरा आला अमला अखबारों, सभाओं तथा टीवी पर शिक्षा पर चिन्ता व्यक्त करता रहता. शिक्षा की बेहतरी के लिए नई-नई योजनाएं बनती. शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जाती. नये-नये दिवस मनाये जाते. आये दिन निबंध तथा भाषण प्रतियोगिता होती. इस सारी कवायद में पढ़ाने का काम कहीं पीछे छूट जाता. इसी दौरान बच्चों की पढ़ने-लिखने, गणित आदि की दक्षता परीक्षाएं ले ली जाती. बच्चे फेल हो जाते. उन्हें फेल होना ही था. दोष शिक्षकों का हो जाता, क्योंकि पढ़ाना तो उन्हें ही था. शिक्षक कहता, भाई मेरे मुझे पढ़ाने का मौका तो दो. जब मुझे पढ़ाने का ही मौका नहीं मिल रहा तो मैं दोषी कैसे हो गया ?
न्यू छंगामल कालेज में तो कार्यालय प्रभारी तथा सहायक मौजूद थे, मगर आदर्श प्राथमिक विद्यालय के दो शिक्षक तो किसी जादूगर से कम नहीं थे. वे पांच कक्षाओं को अलग-अलग विषय पढ़ाते. दिन का भोजन बनवाते. ऊपर से मांगी जाने वाली सूचनाओं की डाक बनाते. ट्रेनिंग लेते. जनगणना करते. अचानक होने वाले निरीक्षणों का सामना करते. आपस में सामंजस्य जमाते हुए अपने घर-परिवार के दायित्वों को निभाते.
अब अखबार तथा मीडिया चैनलों के लिए भी पास का स्कूल आकर्षण का केंद्र हो गया है. उन्हें कोई खबर नहीं मिलती तो वे भी शिक्षकों का इंटरव्यू करने या स्कूल का जायजा लेने पहुंच जाते. कोई कमी-पेशी मिल जाती तो अगले दिन अखबार की सुर्खियां बन जाती.
फिलहाल तो न्यू छंगामल कालेज में बिष्ट मास्साब डाक बना रहे हैं. मौहल्ले के लड़के स्कूल के मैदान में क्रिकेट खेल रहे हैं. घोड़े-गधे घास चर रहे हैं. पीरियडों की घण्टी बज रही है. कुछ बच्चे पढ़ रहे हैं. कुछ घर को जा रहे हैं. कुछ जंगल भ्रमण को निकल रहे हैं. कुल मिलाकर कुछ इस तरह ही चल रहा है, न्यू छंगामल कॉलेज. तेज या धीरे नहीं. अपने खास अंदाज में.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…