फूलन और मनोहरश्याम की जुबान के बगैर कोई लेखक बन ही कैसे सकता है
जैसे पराई धरती पर पौधा नहीं रोपा जा सकता, इसी तरह परायी भाषा से रचना का पौधा नहीं जमाया जा सकता. आजादी के बाद हिंदी में आंचलिक कथाओं का दौर चला था, मगर वो तो अंकुरित नहीं हो पाया. आंचलिक कहानी के जनक माने जाने वाले फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ की भूमिका में दी गयी स्वीकारोक्ति के बावजूद. असल में भाषा का सम्बन्ध सिर्फ वार्तालाप से नहीं होता, वो बनती है दिल की गहराइयों से पैदा हुए दर्द की अभिव्यक्ति में से. फूलन देवी की भाषा ऐसी ही भाषा है जिसे सिर्फ वही अनुभव और व्यक्त कर सकती है. ऐसी भाषा का अनुवाद बहुत मुश्किल होता है, कह सकते कि नामुमकिन. क्या इस सृष्टि में मौजूद जीव-जंतुओं का अनुवाद क्लोन में हो सकता है?
रेणु जैसे लेखकों की भाषा की विडंवना यह है कि उसकी शब्दावली तो देसी है मगर धड़कन विदेसी. चाहें तो इस फर्क को आप प्रेमचंद और रेणु की भाषा के द्वारा समझ सकते हैं. प्रेमचंद की भाषा का विस्तार एक अलग तरीके से श्रीलाल शुक्ल और राही मासूम रज़ा की कस्बों की भाषा के रूप में जरूर दिखाई देता है, मगर उसका भी विस्तार कहाँ हो पाया? अब आला-बाला कासी-अस्सी अपनी भाषा को खींच-तान कर चमत्कार भले कर लें, वास्तविकता यह है कि वो न जिंदगी की भाषा बन पाती, न जिंदगी के क्लोन की.
इस बार मैं आपको लिए चलता हूँ आधुनिक किस्सागोई के बादशाह यारों के यार मनोहरश्याम जोशी के पास, उनकी ऐसी जुबान के पास, जो जिंदगी और उसके परिवेश के बीच से सीधी उगती है. इसे ही शायद कहते हैं भाषा की रचना. यह भाषा हिंदी लेखन में मौजूद इस मिथक को भी झुठलाती है कि जड़ों की भाषा मनुष्य को पैतृक विरासत में मिलती है.
नमूने के तौर पर मैं उनके पहले उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ का एक अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. यह हिस्सा इस उपन्यास के तीसरे अध्याय “मिस्कास्टिंग कहाँ नहीं होती” का पुनर्मुद्रण है:
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मेरे एक मित्र, जवानी में एक ठो विफल विवाह और दो ठो विफल प्रेम कर चुके थे. अपनी अधेड़ावस्था में हर शाम सोमरस से नपा-तुला आचमन कर लेने के बाद, एक फिकरा जरूर कहा करते थे, ‘हैरानी होती है जोशी, कितना-कितना तो लव मिला है हमें लाइफ में, तुमसे सच बताते हैं, हम डिजर्व नहीं करते थे.’
जब वह फिर न आई, न कहीं मिली, तब जोशी जी को प्रतीति हुई कि शायद डिजर्व नहीं करते हैं उसे. लेकिन फिर भी साहब यह कह सकने की उम्मीद छोड़ी नहीं गुरू ने कि ‘हम कतई डिजर्व नहीं करते थे लेकिन उससे लव मिला हमको.’
जासूस ठहराए जाने की बात पर भी जोशी जी ने गौर किया और अपने तमाम लखनवी परिचितों की टोह लेने लगे कि शायद वही हो आशिक उस रहस्यमयी का!
उन्हें रहस्यमयी का कोई सुराग नहीं मिला, कुछ अच्छे डायलौग अलबत्ता मिले. मिसाल के लिए एक मशहूर शायर ने उनसे कहा – ‘किब्ला हम आप जैसे गबरू जवान कहाँ कि राह-चलते, राहों-रस्म हो जाए किसी ऊंची चीज से!’
लखनवी लताफत और शायस्तगी के धनी एक आलसी गीतकार ने कहा- ‘बरखुरदार बम्बई के हवा-पानी से बहुत जल्दी बहक गए! गोया आप कहना चाहते हैं कि शहर की सड़कों में जितनी भी कद्दावर कातिल हसीनाएं घूमती हैं, उनका ठेका ले छोड़ा है मैंने.’ जोशीजी शर्मसार हुए. वह हमदर्द बने, ‘जोक्स अपार्ट, जरा तफसील से समझाओ मामला क्या है?’
जोशीजी को सतर्क हो जाना चाहिए था, मगर नहीं हुए. यह मशहूर मजाज-भुवनेश्वर तकनीक थी. सहानुभूति देकर अथवा जगाकर अगले को भावुकता के शिखर पर पहुँचाओ और फिर वहां से उसे एक यादगार धक्का दो. लखनवी कॉफ़ी हाउस में कसबे से आया हुआ मनोहर ऐसे ही धक्के खा-खा कर ‘इंटेलेक्चुअल सिनिसिज्म’ में दीक्षित हुआ था.
जोशीजी ने गीतकार को जिज्ञासु लेखक और कद्दावर कातिल हसीना की अब तक की मुख़्तसर कहानी तफसील से सुनाई. उन्होंने बहुत हमदर्दी से सुनी और फिर कहा ‘वे टोफियाँ जो उसने तुम्हें दीं – ‘तुम’ कह सकता हूँ न?’
‘बेशक, आप मुझसे हर लिहाज से बड़े हैं.’
‘शुक्रिया. वे टोफियाँ तुम खा तो नहीं गए?’
‘जी, मैं तो नहीं, मेरा भांजा है छोटा… वह…’
‘ओय-होय-होय-होय! खैर, तुम्हें याद तो होगा न कौन-सी टोफियाँ थीं? गुड. तो ऐसा करो कि गिनकर चार टोफियाँ वैसी ही खरीद लो. और हर वक़्त उन्हें पास रखो. जब भी वह मिले उसे दिखाओं और कहो कि बच्चे की जिद है कि टोफियाँ खायेगा तो पूरी छह की छह नहीं तो एक भी नहीं. यक़ीनन इस बात का उसके दिल पर असर होगा.’
जोशीजी इस मोर्चे से भी पीटकर लौटे….”
(कुरु-कुरु स्वाहा का अंश)
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मनोहरश्याम जोशी के इस पहले उपन्यास की कथ्य और शिल्प कि दृष्टि से हिंदी में खूब चर्चा हुई. कथ्य-शिल्प-भाषा के इन तीन आयामों को रचना में किस तरह पिरोया जाना चाहिए और अपनी जड़ों के साथ जुड़े रहकर किस तरह वैश्विक चेतना का हिस्सा बना जा सकता है, मनोहरश्याम जोशी इसके प्रभावशाली उदाहरण रहे हैं. उनका मुख्य लेखन बहुत देर से शुरू हुआ था, उनका पहला उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ 1980 में प्रकाशित हुआ, दूसरा उपन्यास ‘कसप’ 1988 में और तीसरा ‘क्याप’ 2000 में. जोशी जी ने साहित्य की प्रत्येक विधा पर बड़ी रचनात्मक गहराइयों के साथ लिखा है. खास बात यह है कि उनके इन तीनों उल्लेखनीय उपन्यासों की एक विशिष्ट विधा के रूप में अलग से खूब चर्चा हुई है. ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ जहाँ एक ओर हिंदी में विशिष्ट शैली के पहले उपन्यास के रूप में चर्चित रहा है, ‘कसप’ को प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने ‘उसने कहा था’ की परम्परा की अगली उल्लेखनीय प्रेम कहानी माना है. प्रसिद्ध आलोचना पत्रिका ‘आलोचना’ ने इस उपन्यास पर एक ही अंक में तीन पक्षों को लेकर विजय मोहन सिंह, वागीश शुक्ल और बटरोही के तीन विशेष शोध लेख प्रकाशित किये जो हिंदी में अपनी तरह का नया प्रस्थान था. तीसरे उपन्यास ‘क्याप’ पर तो उन्हें (यद्यपि देर से) साहित्य अकादेमी सम्मान मिला.
जोशी जी के अनुसार किसी भी अच्छी रचना में स्थानीयता और वैश्विकता का बेहद संतुलित समन्वय होना चाहिए. रचना इतनी ‘स्थानीय’ भी न हो कि वह क्षेत्रवादी पोस्टर लगने लगे, न इतनी ‘वैश्विक’ हो कि सिर से ऊपर गुजार जाये. 1985 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय की पत्रिका में जब जोशीजी पर एक विशेष आलेख के साथ उनके उपन्यास ‘कसप’ के कुछ हिस्से प्रकाशित किये गए थे, जोशीजी ने अपने क्षेत्र के विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘अपनी सच्चाई लिखेंगे तो वह दुनिया की सच्चाई होगी. जितना अधिक ‘आंचलिक’ बनेंगे, उतने ही ‘सार्वभौम होंगे.’
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प्रेम के रूमानी और भावनात्मक स्वरूप को सुरक्षित रखते हुए उसके स्थानीय तथा बदले सन्दर्भों को किस तरह सामयिक अभिरुचि के साथ जोड़ा जा सकता है, ‘कसप’ के इस बेहतरीन अंश को नए रचनाकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. बदले हुए सन्दर्भ, संवेदना, कथन-भंगिमा और अंतर्राष्ट्रीयता की जुगलबंदी करती हुई स्थानीयता… हिंदी कथा-साहित्य का यह पहला और दुर्लभ उदाहरण है:
“नायक का नाम देवीदत्त तिवारी है. बहुत गैर रूमानी मालूम होता है उसे यह नाम. यों साहित्यिक प्राणी होने के नाते वह जानता है कि देवदास, ऐसे ही निकम्मे नाम के बावजूद, अमर प्रेमी का पद प्राप्त कर सका. इससे आशा बंधती है, फिर भी निरापद यही है कि वह अपने को डी.डी. कहना-कहलाना पसंद करे.
नायक बाईस साल का है. ढाई वर्ष पहले उस ने इलाहाबाद से बी. ए. पास किया. एक चाचाजी ने कह-कहला कर उसे वहीँ ए.जी. दफ्तर में क्लर्की दिलवा दी और आई.ए.एस., पी.सी.एस. के लिए तैयारी करने को कहा मेधावी बालक से. लेकिन साहित्यिक डी.डी. को यह सब रास नहीं आया. वह दो ही महीने में बम्बई भाग गया. किसी व्यावसायिक दिग्दर्शक का सहायक है. कलात्मक फ़िल्में बनाने का इरादा रखता है. प्रेम के बारे में हमारे नायक ने पढ़ा-सुना बहुत कुछ है, सोचा भी विस्तार से है, लेकिन प्रेम कभी किया नहीं है.
नायिका (बेबी) ने न प्रेम किया है, न प्रेम के बारे में फुर्सत से कुछ सोचा ही है. उसे सत्रहवाँ लगा है पिछले महीने. इंटर के प्रथम वर्ष में है. पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लगता और आगे पढ़ने की उसे कतई इच्छा नहीं. बेबी अपना नाम सार्थक करने में यकीन रखती है. खिलंदड़ है. बेडमिन्टन में जिला स्तर की चेम्पियन है. यह बात अलग है कि इस जिले में बेडमिन्टन स्तरीय नहीं…
अब नायक-नायिका के प्रथम साक्षात्कार का वर्णन करना है मुझे और किंचित संकोच में पड़ गया हूँ मैं. यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थाई टट्टी में बैठा है, तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल में तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता.
वह शौच करके उठता है और खोज करता है कि टट्टी बनवाने वाले के लिए यह कल्पना असंभव थी कि उसे छह फुट या उससे ज्यादा कद वाला कोई इस्तेमाल करेगा. तो नायक अब कुरता ठोड़ी के नीचे दबाये, इजारबंद के छोर संभाले उठंग है, रसोई के बाहर रिश्तेदारों का मजमा है और कोई हँस रही है. यह हँसी रसोई और बंगले को जोड़ने वाले गलियारे से फूट रही है, टट्टी के एन पास से.
तो नायक, जो इजारबंद बांध चुका है, दृष्टि घुमाता है और नायिका से उसकी दृष्टि पहली बार मिलती है. उसका मुँह खुला रह जाता है. एक अपरिचित लड़की गोरी चिट्टी. आँखें बड़ी-बड़ी और चपल. लड़की के हाथ में ट्रे में चाय का कुल जमा एक गिलास, जो शायद डी.डी. के लिए है. गिलास हिल रहा है इस हास्यकंप में. नायक धप से फिर बैठ गया है.
इस तरह गांठ पर लगी गांठ के लिए हिंदी में कोई शब्द नहीं. कुमाऊनी में है – मालगांठ किंवा मारगांठ. नायक सुपरिचित है इस शब्द से, क्योंकि फीता हो या नाड़ा, खोलते हुए उससे अक्सर मारगांठ पड़ती आई है. अब बाहर चाय पीकर क्यू में लगे लोगों की चिल्लाहट प्रबल हो गयी है.
वह शायद नायिका ही थी जो उसके कोट की पीठ पर पर्ची पिन कर गयी थी ‘लम्बू लाटा’. लाटा यानी गूंगा, मूरख. इस पर्ची की वजह से उसके टीप मार जाने वाला हाथ शायद नायिका का ही था. फेरों से कुछ पहले रात जब वह गुसलखाने में गया था, तब शायद नायिका ने ही बाहर से सांकल लगा दी थी.
भोजन के बाद बेबी ने डी.डी. को पान का बीड़ा अपने हाथों से लगाकर दिया. बीड़ा देते हुए उसकी अंगुलियाँ डी.डी. की अँगुलियों से छू गयी. छुअन के क्षण नायिका और नायक की निगाहें मिलीं. नायिका मुस्कुराई और उसने दबे स्वर से पूछा ‘करेंट तो नहीं लगा?’
नायिका अति नाटकीय घबराहट से उसे बरजती है, ‘बब्बा हो! बरेली झन (मत) जाना.”
‘तो अल्मोड़ा आऊँ? कही तो हमें फैसला करना होगा!’ नायक अब उस गदोली को दोनों हथेलियों से कसकर थम लेता है.
नायिका कोई उत्तर नहीं देती. वह अपनी गदोली छुड़ाना चाहती है. भीतर कर्नल साहब अपनी बहन को पुकार रहे हैं. यहाँ खड़ा होना निरापद नहीं है. लेकिन आम तौर से दब्बू और डरपोक डी.डी. यहाँ नायक की भूमिका में गदोली कस कर थामे रहता है. और लो, हद हो गयी, उसे अपने होठों से छूता बारम्बार ऐन फ़्रांसीसी अंदाज में, कहता जा रहा है खांटी फ्रांसीसी में, ‘जिलेम्बू-जिलेम्बू’. (मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.)
एक विमान उड़ता है सांताक्रूज बम्बई से, उतरा है पालम दिल्ली पर. एक टैक्सी चलती है हल्द्वानी से, पहुँचती है साँझ-ढले कोसी पर.
चाय की दुकान वाला उसे समझाता है कि अब गणनाथ पहुँचने की कोशिश करना बेकार होगा. या तो यहीं रुक जाएँ या फिर अल्मोड़ा चले जाएँ और सुबह वहां से आएँ. जाड़ों की रात का मामला, जंगल की बात. मेरे ख्याल से तो आप अल्मोड़ा ही चले जाएँ.’
नहीं, डी.डी. अल्मोड़ा नहीं जाएगा. बीस तारीख आज ही है ना! बीस तारीख को किसी तरह गणनाथ पहुँचने के लिए ही तो उसने विमान का टिकट लिया, टैक्सी की. टैक्सी वाला आगे जाने के लिए तैयार नहीं. रणमण से वह रात कहाँ जाएगा, क्या खायेगा?’
सन 80 के अंत में अमरीकी पत्रिकाओं में सहसा डी.डी.टी. चर्चा का विषय बना. बताया गया कि जॉर्ज लुकाच, मनुष्य और शून्यता के साक्षात् पर देवी दत्त से उसकी पटकथा के आधार पर वैज्ञानिक-कथा-फिल्म बनवाना चाहते हैं, किन्तु देवीदत्त पहले भारत जाकर हिंदी में एक फिल्म बनाने की ठाने हुए है. यह हिमालय की गोद में बसे किसी गाँव में रहने वाले एक अनाथ बच्चे की कहानी है जिसमे आत्मचरित का तत्व खासा है…
(मनोहरश्याम जोशी के दूसरे उपन्यास ‘कसप’ -1988- के अंश)
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यह बात मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि हिंदी की नवीन पीढ़ी को मनोहरश्याम जोशी को अवश्य पढ़ना चाहिए. हिंदी लेखकों में हिंदी समाज की तरह पश्चिमी ज्ञान के आतंक का दबाव इस कदर पैठा हुआ है कि उसे यह बात विश्वास-योग्य लगती ही नहीं कि एक मध्यवर्गीय भारतीय अपनी जड़ों के साथ आधुनिक भी हो सकता है. जो ऐसा मानते हैं, वे खुद अति-कठमुल्ले हैं. मैंने रेणु का सन्दर्भ देते हुए इस लेख के आरम्भ में ही कहा था कि आजादी के बाद ग्रामीण परिवेश पर लिखे गए आंचलिक साहित्य की भाषा में अनायास ही शहरी मध्यवर्गीय चमत्कार का पुट दिखाई देता है जिस कारण उसकी स्थानीयता बदरंग हो गयी है. मैंने संकेत किया था कि कुछ बेहद प्रभावशाली कथाकारों – श्रीलाल शुक्ल और शरद जोशी – में भी यह भाव अनायास दिखाई देने लगता है. (हरिशंकर परसाई निश्चय ही इसके अपवाद हैं.) मुझे लगता है कि परिवेश, संस्कृति, भाषा, कथन-भंगिमा और अर्जित-उपार्जित कथा-सूत्रों को जितने सहज, प्रभावशाली और शालीन ढंग से मनोहरश्याम जोशी ने प्रस्तुत किया है, हिन्दी मंे यह कौशल मेरे देखे अन्यत्र नहीं दिखाई देता. इसीलिए मुझे लगता है, हिंदी कथाकारों की नई पीढ़ी को इस परंपरा को विकसित करना चाहिए.
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जोशी जी ने ‘कसप’ की प्रेमकथा पचपन-पार की उम्र में लिखी है. मुझे नहीं लगता कि प्रेम का इतना तल्ख़, पैशन भरा और एक दृष्टा के रूप में प्रस्तुत किया गया चित्रण हाल के वर्षों में अन्यत्र दिखाई दिया हो. हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ में भी. मेरी बातें अतिरंजना लग सकती हैं, मगर अस्सी-नब्बे के दशक में जोशीजी के साहित्य पर हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गयी समीक्षाओं को पढ़कर विश्वास करना ही पड़ेगा.
साहित्य और समाज के शैक्षिक-सांस्कारिक मूल्यों में कितनी जड़ता और बेहूदापन आ गया है, इस उपन्यास के प्रकाशन से जुड़ा मेरा एक अनुभव गवाह है जिसे मैं यहाँ साझा करना चाहता हूँ. 1985 में मैंने यह जानने के लिए कि हमारे विद्यार्थी अपने क्षेत्र के लेखकों के बारे में कितना जानते हैं, मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिका में उनकी ऐसी चर्चित रचनाएँ प्रकाशित की जिनका सम्बन्ध उनके परिवेश के साथ हो. इसके अंतर्गत मैंने दो कहानीकारों (शैलेश मटियानी और शेखर जोशी), तीन उपन्यासकारों (मनोहरश्याम जोशी. पंकज बिष्ट और मृणाल पांडे) तथा दो कवियों (तारा पांडे और चंद्रकुंवर बर्त्वाल) की रचनाएं प्रकाशित कीं. इनमं शैलेश मटियानी की बहुचर्चित कहानी ‘रहमतुल्ला’ और मनोहरश्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ विशेष रूप से शामिल थे.
जिस दिन यह पत्रिका विद्यार्थियों के बीच वितरित की गयी, उसके दूसरे दिन हमने देखा कि पूरा कैम्पस बड़े-बड़े पोस्टरों से पटा पड़ा था पोस्टरों में इस बात पर हाय-तौबा मचाई गयी थी कि शिक्षा के मंदिरों का इतना पतन हो गया है कि हमारे प्रेरणा और आदर्श कहे जाने वाले लेखक और शिक्षक हमारी ही पत्रिका में अश्लील और घिनौनी शब्दावली परोस रहे हैं
मैं इस घटना का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ ताकि हमारी युवा रचनाकार बौद्धिक पीढ़ी इस पर गहराई से विचार करे! यह समस्या कुछ गिने-चुने छात्रों और साहित्य में रुचि रखने वालों की ही नहीं, पूरे समाज की है… उस समाज की जो कलको उन्हीं के नाम के साथ जोड़ा जाएगा.
(जारी)
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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1 Comments
Anonymous
तथ्यपूर्ण आलेख ।