हमारे ब्रह्माण्ड की पहली भारतीय कहानी
( एक विदेशी का लिखा हिन्दू लोक-मिथकों का इतिहास : ‘क’ )
सृष्टि के जन्म और विकास को लेकर भारतीय लोक मानस में मौजूद कथाएँ
लेखक – रॉबर्तो कलासो (इटली)
अनंत सृष्टि को लेकर भारत में जो जिज्ञासाएँ व्यक्त की गई हैं, यह कहना गलत होगा कि उनके रचयिता ब्राह्मण थे, शायद उनके समय तक तो जाति-प्रथा का जन्म भी नहीं हुआ था. मगर उन्हें लिपिबद्ध सबसे पहले ब्राह्मणों ने ही किया था क्योंकि लिखने-पढ़ने का काम वही लोग करते थे. हर अभिव्यक्ति उसके रचनाकार की मनोवृत्ति का आईना होती है, यही कारण है कि हिन्दू मिथकों को जन-आकांक्षाओं से काटकर उनका दैवीकरण या ब्राह्मणीकरण कर दिया गया है. आज एक भारतीय के लिए इस अंतर का पता लगा पाना लगभग असंभव है.
भारत में लोक जीवन के चिंतन की भी एक समृद्ध परंपरा रही है जो यहाँ के आम लोगों की आशा-आकांक्षाओं और जीवन-जगत के आपसी रिश्तों को सहज ढंग से प्रस्तुत करती है. मगर विद्वान पंडितों के द्वारा उसे हीन समझकर उसका उपहास किया जाता रहा. यह चिंतन लोक जीवन की अभिव्यक्तियों में यथावत मौजूद है. भारत में इन लोक-रचनाओं के संकलन और टीकाएँ भी कम नहीं हुई हैं, मगर उनकी व्याख्याएँ उसी दैवीकरण से आतंकित दिखाई देती रही हैं जिसका शिकार अधिकांश भारतीय साहित्य रहा है.
इस सन्दर्भ में इतालवी भाषा में लिखी गई एक पुस्तक ‘क’ को पढ़ना निश्चय ही रोचक होगा क्योंकि इसमें कहीं भी मिथकों का दैवीकरण नहीं है. इससे यह भी पता चलता है कि भारतीय लोक-परंपरा पढ़े-लिखे ब्राह्मणों की चिंतन-परंपरा (जिसे ‘वेद’ या ‘शास्त्र’ परंपरा कहा जाता है) से कितनी समृद्ध रही है.
प्रख्यात इतालवी लेखक रॉबर्तो कलासो द्वारा लिखी गई इस पुस्तक का अनुवाद हिंदी समेत संसार की अधिकांश प्रमुख भाषाओँ में हो चुका है. यहाँ प्रस्तुत है किताब के पहले अध्याय का आरंभिक अंश:
एक
अचानक एक गरुड़ के विशाल आकार ने आकाश को जैसे अंधकार से भर दिया. उसके चमकीले काले, लगभग बैंगनी पंख मेघ राशि और धरती के बीच एक उड़ते हुए परदे की तरह लग रहे थे. उसके नुकीले पंजों से झूलते एक उतने ही विशालकाय हाथी और कछुआ अपनी आसन्न मृत्यु को सामने देख विजड़ित भाव से पर्वत शिखरों को जैसे छूते हुए घिसटते जा रहे थे. मानो गरुड़ का इरादा उन पर्वत शिखरों का उपयोग नुकीले चाकुओं की तरह अपने शिकारों का पेट चीरने के लिए करने का था. कभी-कभार गरुड़ की दृष्टि अपनी चोंच में सख्ती से अटकी पेड़ की एक विशाल डाली के घने पत्तों के पीछे-से सामने ताक लेती थी. वह डाली इतनी बड़ी थी कि सौ पशु-चर्म भी उसे पूरी तरह नहीं ढक सकते थे.
आकाश में उड़ान भरते हुए गरुड़ को याद आ रहा था – अपने अंडे से बाहर आए हुए बस कुछ ही दिन तो बीते थे. और उस छोटी-सी अवधि में ही कितना-कुछ घट गया था. सोच-विचार करने के लिए उड़ने का समय ही जैसे सबसे उपयुक्त था. बीती हुई बातों पर सोचना और सोचते चले जाना. और वह याद कर रहा था – भला पहले-पहल किसे देखा था उसने ? उसने देखा था अपनी माँ विनता को – छोटे कद की क्षीणकाय सुन्दर स्त्री. वह शिलाखंड पर बैठी निष्क्रिय भाव से गरुड़ के अंडे को फूटते देख रही थी. हाँ, इस बार उसने हड़बड़ी न करने निश्चय कर लिया था. अंडे से बाहर निकलते ही गरुड़ की आंख सबसे पहले माँ से मिली थी और वह तुरंत जान गया था कि वह आँख उसकी अपनी ही थी. जैसे कहीं गहराई में हवा में दिप-दिप करता कोई अंगारा – कुछ वैसा ही गरुड़ ने अपने पंखों के नीचे जलता हुआ अनुभव किया था.
फिर गरुड़ ने नजर घुमाकर देखा था – विनता के सामने उसी की तरह शिलाखंड पर एक दूसरी औरत बैठी थी – देखने में बिलकुल माँ जैसी ही लग रही थी. हाँ, एक अंतर था. उसकी एक आँख पर काली पट्टी बंधी थी. और माँ विनता की तरह ही वह भी गहरे सोच में डूबी थी. गरुड़ को नजर आया था उस महिला के सामने धरती पर पड़ा एक बड़ा-सा गुच्छा धीरे-धीरे हिलता-रेंगता ऐंठता हुआ. गरुड़ ने उस गुच्छे पर नजर टिका दी. आखिर वह था क्या ? ओह! वे थे काले साँप – कई आपस में गुंथे हुए तो कई अलग-अलग. कुछ वर्तुलाकार तो कुछ अलग-अलग स्पंदित होते हुए. और अगले ही पल गरुड़ को लगा जैसे हजारों सर्द आँखें एक साथ उस पर टिकी हों. और फिर पीछे-से एक स्वर उभरा – “ये सर्प तुम्हारे मौसेरे भाई हैं और सामने बैठी स्त्री है मेरी बहन कद्रु. मैं और तुम इनके दास हैं.” ये थे वे प्रथम शब्द जो माँ ने गरुड़ से कहे थे.
विनता ने गरुड़ की विशाल देह पर दृष्टि डाली और बोली – “बेटा अब समय आ गया है कि तुम अपने को जान लो, पहचान लो. दासता की पीड़ा भोगती माँ की कोख से जन्मे हो तुम. किन्तु मेरा जन्म गुलामी में नहीं हुआ था. मैं और कद्रु दोनों ही कश्यप ऋषि से ब्याही गई थीं. एक महान ऋषि. संयमशील, शक्तिशाली और अल्पभाषी सर्वज्ञानी कश्यप. कश्यप हमसे प्यार अवश्य करते थे किन्तु अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त वह हमारी और किसी बात का ध्यान नहीं रखते थे. वह कई-कई दिनों तक शांत, लीन भाव से समाधि में बैठे रहते. हम दोनों समझ न पातीं कि आखिर वह क्या कर रहे थे. इस ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण ज्ञान उनके मस्तिष्क में समाया था. हम दोनों बहनें भी स्वयं कुछ करने की सोचती रहती थीं. एक क्रोधित-आवेशित ऊर्जा हमारे अन्दर उमड़ती-घुमड़ती व्यर्थ होती रहती. हम दोनों ने कश्यप का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया लेकिन कुछ न हुआ. अंततः हमने जान लिया कि हम दोनों उनके लिए वैसी ही थीं, जैसे मेघों के लिए पृथ्वी. वह हम दोनों के प्रति दयाभाव रखते हुए भी पूरी तरह उदासीन थे.
“एक दिन उन्होंने हम दोनों को एक साथ अपने पास बुलाया. बताया कि उनके वन-गमन का समय आ गया है. किन्तु वह हमें कोई वरदान दिए बिना यूँ ही नहीं चले जाना चाहते थे. यह सुनते ही लगा, उनके जाने के बाद उस दलदली भूमि वाले वन में कंटीली झाड़ियों और रेतीले ढूहों के बीच हम दोनों तो एकदम अकेली रह जाएँगी. कद्रु को बोलने के लिए उकसाने की आवश्यकता नहीं थी. उसने झट से कह दिया कि वह एक हजार बच्चों की माँ बनना चाहती है, जो भव्यता में एक जैसे हों. कश्यप ने उसकी बात मान ली. और मैंने चाहे दो बच्चे जो कद्रु के बच्चों से कहीं अधिक सुन्दर और शक्तिवान हों. कश्यप ने अपनी भारी पलकें उठाकर मेरी ओर देखा – तुम दो की नहीं, एक और आधे बच्चे की माँ बनोगी.’ फिर अपना दंड सम्हालकर उन्होंने हमसे विदा ली. बस इसके बाद से हमने उन्हें फिर कभी नहीं देखा.
विनता कहती गई – “बेटा, मैंने पूरे पांच सौ वर्षों तक अंडे से तुम्हारे बाहर आने की प्रतीक्षा की है. मैं नहीं चाहती थी कि जो कुछ तुम्हारे भाई अरुण के साथ हुआ वैसा ही तुम्हारे साथ भी हो. जानते हो, अरुण के समय मैं प्रतीक्षा न कर सकी और अधीर होकर अंडे का आवरण समय से पहले ही तोड़ दिया था. फिर तुरंत अपनी भूल समझ गई थी. तब मैंने जाना था कि किसी दिन सुदूर देश के एक ऋषि यही कहेंगे : ‘अधैर्य ही सबसे बड़ा पाप हैं.’ मेरी अधीरता के कारण ही अरुण की देह का निचला भाग पूरी तरह आकार नहीं ले पाया था. वह अपूर्ण रह गया था. मुझे देखते ही मेरी प्रथम संतान ने मुझे शाप दे डाला था – उसने कहा था कि मुझे पांच सौ वर्षों तक अपनी बहन की दासी बनकर जीवन बिताना पड़ेगा और शाप की अवधि समाप्त होने पर मेरा दूसरा पुत्र, यानी अरुण के छोटे भाई, तुम मुझे दासता से मुक्ति दिलाओगे. इतना कहकर अरुण सूर्य की ओर उड़ गया था. अब तुम उसे प्रतिदिन आकाश को पार करते देख सकते हो. वह सूर्य देव का सारथी बन गया है. किन्तु अब वह कभी मुझसे बात नहीं करेगा’’
गरुड़ सुन रहे थे. विनता कहती गई- “मैं और कद्रु – हम दो ही स्त्रियाँ थीं और आसपास थे एक हजार काले सर्प – सभी एक जैसे. और सामने मिट्टी के पात्र में अगोचर भाव से विकसित होते तुम. हम दोनों बहनें एक-दूसरे से घृणा करने लगी थीं. लेकिन यह भी सच था कि एक-दूसरे के बिना हम रह भी नहीं सकती थीं. क्योंकि एक-दूसरे का साथ देने के लिए और कोई था नहीं. एक संध्या की बात है, हम दोनों सागर तट पर बैठी थीं. तुम्हें पता है न, मुझे सुपर्णी भी कहा जाता है और शायद इसीलिए मैं तुम्हारी माँ हूँ. मेरी आँखें सबकुछ देख लेती हैं. उनसे कुछ नहीं छिप सकता. कद्रु का केवल एक ही नेत्र है. दूसरी आँख उसने दक्ष के बलि यज्ञ में खो दी थी…
पुस्तक का नाम : ‘क’
लेखक : रोबेर्तो कलासो (इटली)
पृष्ठ : 356
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
अनुवादक : देवेन्द्र कुमार
(जारी)
पिछली क़िस्त का लिंक: इतने विशाल हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार : नौवीं क़िस्त
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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