कुबेर आजकल बड़ी चिंता में हैं. उनका एक पुत्र कुपुत्र हो गया है. लोग बड़ी मोटी-मोटी गालियाँ देने लगे हैं उसे और `लॉ ऑफ इम्पार्टिंग कल्चर टू योर ऑफस्प्रिंग्स’ की मानक भारतीय परम्परा के अनुसार वो गालियाँ उन्हें ही ज्यादा मिलती दिख रही हैं. वैसे लिखापढ़ी के हिसाब से देखें तो कुबेर हलफ से बयान देते फिर रहे हैं कि `मेरे जाए एक बेटा और बेटी ही हैं. धन और लक्ष्मी. ये काला धन किसकी करतूतों का फल है मुझे नहीं मालूम.’ लिखापढ़ी को आजकल कौन मानता है. `आरोप लगाओ-इस्तीफा मांगो’ के इस युग में कुबेर का हलफनामा पुलिस को दिए 161 के बयान, दस रूपये के एफिडेविट और फिर 161 में ही लिए गए `मजीद बयान चश्मदीद’ के सम्मिलित जोर आजमाइश से ज्यादा कुछ नहीं जिसे मजिस्ट्रेट का मुंशी एक तरफ सरका के कहता है… ‘कुछ और है?’
हमारा तो देव योनी से ही कुबेर के साथ 36 का आंकडा है. जाहिर है मैं अगर तीन हूँ तो वो छः. मेरे पूँछ है उनकी पूछ. हमारे विज्ञान में मनुष्य योनि के पहले (या शायद बाद में) देव योनि का प्रबंध है. इस लिहाज से कि बन्दा बार-बार नरक में ही थोड़ी न भेजा जाएगा. और इसी के लिहाज (व्यावहारिक तौर पर कहें तो मुगालता) में अपने सहज स्वभाव से इतर कुछ अच्छे करम कर दे. कुबेर के साथ अपने असहज आंकड़े के बावजूद उनसे मेरी गहन सहानुभूति रहती है. नोट किया जाए सहानुभूति, और इस तरह से मैं मनुष्य योनि में भी देव योनि के मजे ले लेता हूँ. आज अचानक मैंने अपनी ये सहानुभूति प्रकट कर दी. कुबेर फट पड़े-
-`जाने कहाँ से आ टपका ये काला धन’
-`आ ही तो नहीं रहा है. लोग बुला रहे हैं कहीं विदेश में जा बैठा है. हो न हो ये आपकी ही काली करतूतों का फल होगा’
-`नहीं, बिलकुल नहीं! मैं कभी नहीं गया किसी के पास मुंह रंगाने… प्यासे ही आते हैं हमेशा कुएं के पास’
-`पर आपके पुत्र और पुत्री तो जन्मजात घुमक्कड़ हैं, उनके पैरों में चक्कर है कहीं टिक कर नहीं रहते तो ये आपका कुपुत्र ये थोड़ा आगे को निकल गया’
-`कमबख्त को पुत्र न कहो मेरा… उसमें मेरा खून-पसीना नहीं हो सकता’
-`पसीने से तो आपकी कब की परमानेंट कुट्टी हो चुकी है खून ज़रूर दौड़ता-गिरता रहता है आपके आजू-बाजू. खैर! गुरूजी (किसी पौराणिक कैरेक्टर से मुझे इतनी उम्मीद नहीं थी इसलिए अब मैंने उन्हें सम्मान के उच्चासन पर रखना शुरू कर दिया, जो गोविन्द से पहले बताया गया है!) आपके पुत्रों का तो बेसिक कैरेक्टर ही यही है वो वहीं जाते हैं जहां ज़रा ताम झाम होता है. पुत्री का भी बताते हैं कि अपनी सहोदरा सरस्वती से तगड़ी अनबन है. उस घर की तरफ फूटी आँख नहीं देखती जहां उसके पाए जाने की संभावना हो’
-`टेक्निकली स्पीकिंग येस, थ्युरेटिकली नो! ऐसी व्यवस्था नहीं थी, कालान्तर में बन गयी. अब तो बात आगे बढ़ गयी है. सरस्वती के भाई बंधुओं की उपस्थिति भी लक्ष्मी को असहज कर देती है. विवेक, तर्क, सद्भावना, ममता, दया, समता, उदारता कितने तो भाई-बंधु हैं इसके जो कमबख्त मेरे बच्चों से वैर भाव रखते हैं’
-`कहते तो ये हैं लोग कि आपके इस पुत्र के आने से आपके जायज़ बेटे की ताकत में इज़ाफा होगा. उसका उदर बढ़ जाएगा जाने कितनों के भूखे पेट भर सकेगा, उसके हाथ मजबूत होंगे जाने कितने आधारभूत सरंचनाओं के निर्माण में सक्षम हो जाएगा, उसके कंधे बलशाली होंगे जाने कितने सालों का विदेशी कर्जा देने वालों के मुह पर मारकर सर उठाकर चल सकेगा’
-`क्या बकवास है… इतना ही बलवान है तो विदेश जाके क्यों मुंह छिपाकर बैठ गया. ये काम तो जाने से पहले ही कर सकता था. और एक बात खास बताऊँ, उसके बहुत से सगे संबंधी यहीं रहते हैं आस पास, वो क्यों नहीं कर देते ऐसा चमत्कार? वो भी छिपे रहते हैं और सच तो ये है कि इन्हीं कामों से बचकर ही वो बने हैं इसलिए इन्हीं से छिपकर रहते हैं कि पकडे न जाएँ’
-`तो फिर ऐसा क्या है कि इतने लोग इसे बुलाना चाह रहे हैं’
-`जो बुलाना चाह रहे हैं पूछो तो उनके घर में छुपाये गए श्याम धन का क्या’
-`क्या मतलब’
-`साफ़ है… उनके मकान काले हैं, काली ईंट गारों से बने, उनके होटलों के रजिस्टर काले हैं यहाँ तक की जिस एन जी ओ से वो साफ़ सफाई की बात करते हैं उसका पांच साला आंकड़ा काले से सफ़ेद के बीच की दूरी पांच मिनट में तय करता है’
-`तो मतलब हाथ पर हाथ धरे बैठ जाएँ उसे बुलाने की कोशिश न करें, जिन लोगों ने उसे वहाँ पहुचाया है उनके नाम जानने की जुर्रत न करें’
-`नाम आ भी गए तो उससे होगा क्या, हमाम के एक भाग के दर्शन ही तो होंगे… भाई हमाम बहुत बड़ा है और कमोबेश सब नंगे हैं यहाँ! जो एक भाग को दर्शकों के लिए खोल देने की बात हो रही है वो किस राजनीति से प्रेरित है ये बताने की न तो ज़रूरत है न फायदा. जो लोग मेरे इस कुपुत्र का कच्चा चिट्ठा खोलने का दावा कर रहे हैं वो, या उनके जैसे लोग यहाँ तक पहुँचते ही उस महान प्रक्रिया से हुए हैं जिसका बाई प्रोडक्ट किसी भी पुत्र को कुपुत्र में बदल देता है’
-`तो फिर वही लोग नाम क्यों लाना चाहते हैं सामने’
-`आजकल प्रक्रिया नाम उधाड़ने की चल रही है. ऊँट दूसरे करवट है बस! जब उधर को घूमेगा तो कोई और प्रक्रिया चलेगी! आजकल चट्टे ऊपर हैं कल बट्टे ऊपर आयेंगे’
-`आपके लिहाज से देखें तो अब कोई उम्मीद रखना बेमानी है, कोई प्रयास संत्रास से ज्यादा कुछ न देगा’
-`ये मैंने कब कहा? मै तो बस इतना कहना चाहता हूँ पहले श्वेत- श्याम के बीच मुनासिब रंगभेद तो तय करो… हर काले को काला कहने का माद्दा तैयार करो. कोशिश करो कि सफ़ेद की स्थापना हो सके, लोग स्वीकार कर सकें और सबसे पहले जो गुणात्मक अंतर है समझ सकें उसे’
-`तो गुरूजी किया क्या जाए’
-`प्रश्न ये नहीं पूछो तुम, पूछो कि बैठे बैठे होते क्या देखा जाए? हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के अलावा तुमने किया क्या है’
अब मैंने संकल्प लिया है कि हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से काम नहीं चलने वाला… देखता हूँ, कुछ करता हूँ. देख रहा हूँ कि अब मेरे हाथ पर हाथ नहीं माथा टिका हुआ है.
(एक मध्यम वर्गीय (जो प्रति व्यक्ति आय के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बीच में पड़ता है, ऊपरवालों और नीचेवालों की अलग-अलग आय की तुलना के आधार पर तलहटी में) का प्रलाप जो ये कतई नहीं चाहता कि नाम बाहर ना आएं, बस इतना जानना चाहता है कि उससे फर्क क्या पड़ने वाला है.)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) .
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