गोर किस दिलजले की है…
देख तो दिल कि जाँ से उठता है…
चट्टे परेशान थे. नाराज़ थे. ‘हद्द है. कोई इज्जत नहीं अपनी. अब तो…’
उन्होंने छलांग लगा दी. थैले से बाहर. थैले का मुंह खुला था. सिद्धांत वाली रस्सी जिससे थैले का मुंह सिला गया था बटाई की थी, पुरानी थी, टूट गई. भाषा वैज्ञानिक समाज विज्ञान में घुसकर अर्थ व्यवस्था के रस्ते निकलें तो शायद बटाई में कहीं अनुस्वार लगा बैठें. बात इतनी सी थी कई लोग आपस में बाँटते थे सो टूट गई थी. लोग तो ये भी कहते हैं कि किसी के गले की नाप लेने गई थी इसलिए थैले का मुंह खुला रह गया था.
खुले मुंह से बाहर कूद पड़े चट्टे. ये पोल वॉल्ट वाली जम्प थी. पोल खोजने कहीं नहीं जाना था. सहज उपलब्ध था. वैसे अब थैले का मुंह इतना छितरा कर खुल गया था कि लॉन्ग जम्प, हाई जम्प या टांग फैलाकर स्ट्रैडल जम्प कैसे भी कूदते बाहर निकल ही जाते. चोट की गुंजाइश भी नहीं थी. बस खाल मोटी होनी चाहिए. गिरने का खतरा रहता है न! बिना गिरे होता भी नहीं.
छलांग लगाते ही कहीं गिरे चट्टे. दूसरे थैले में. धूल झाड़ते हुए खड़े हुए और… ओ तेरी! सामने वही… बट्टे.
– ‘तू यहाँ?’
बट्टे ने वही एक्सक्यूज़ दिया जो नेशनल एक्सक्यूज़ घोषित होने की कगार पर है.
– ‘हां. क्यों नहीं? जब तू तो मैं क्यों नहीं?’
– ‘और ये भी… और वो भी’ चट्टे ने चारों तरफ निगाह दौड़ाई.
– ‘देख अपने चारों तरफ. जो गए थे, वही आए हैं. जो आए थे, वो गए. जो नहीं आए, वो जाते कैसे और जाने वाले ही तो आख़िर आएँगे न. इसे ऐसे समझ कि जो हैं वो नहीं हैं, जो नहीं हैं वो होंगे कैसे? मतलब कि होना ही नहीं होने के पहले होना है, बाद में तो नहीं होना है न.’
इतनी आसान भाषा में कोई ज़िन्दगी का मर्म खोल देगा सोचा न था चट्टे ने. सोचते कम ही थे, समझने में ख़ामखा टाइम खोटी होता. लेकिन ये चट समझ आ गया.
बट्टे के कन्धे पर हाँथ रक्खा और बोले- ‘सही कहा गुरु गलती मेरी-तुम्हारी नहीं है. थैले की है. इसे ही बदलना चाहिए. जब इसे ही नहीं पड़ी है तो… हम तो जैसे थे वैसे रहेंगे. चल अब एक बीड़ी पिला.’
फिर चट्टे-बट्टे ने एक दूसरे के गले में हाथ डाला और सीटी बजाते, बीड़ी सुलगाते, गुनगुनाते चल दिए.
थैला खुला पड़ा है! छल्ले उड़ रहे हैं…
ये धुआं सा कहाँ से उठता है…
अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) .
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