पिछली कड़ी – स्कूल की पाटी और भाई-बहन की मीठी नोक-झोंक
प्राप्ति-प्रियम गाड़ी में पीछे बैठे हुए हैं और हम लोगों को नवनीत जी सरप्राइज़ विजिट पर चकराता यात्रा पर लेकर जा रहे हैं. मैं नवनीत जी के बराबर वाली सीट में बैठी हुई हूँ. नवनीत जी की नज़र सामने सड़क पर है और पूरा ध्यान ड्राइविंग पर लेकिन मेरी नज़र रास्ते के दोनों ओर की हरियाली पर और ध्यान गाड़ी में चल रहे पसंदीदा जगजीत सिंह की ग़ज़ल और आवाज़ पर है. अहा कितनी बेहतरीन ग़ज़ल “हम तो हैं परदेस में… देश में निकला होगा चाँद” मुझे जगजीत जी की आवाज़ बहुत प्रिय है.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
रास्ते की मंत्रमुग्ध करती हरियाली के बीचों-बीच ये सड़क ऐसी लग रही मानो कोई बल खाती नदी की धारा हो या फिर जैसे कोई साँप. देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की घनी पंक्ति के बीच में यह सड़क है और इसके घुमावदार मोड़ हैं गाड़ियों की आवाजाही कम ही है और कई-कई किलोमीटर दूर तक कोई घर भी नहीं है. गाड़ी के शीशे से बाहर सिर निकाल कर ऊपर आसमान की ओर देखा तो लगा कि, अरे इतने ऊँचे पेड़! क्या कभी इनकी लंबाई खत्म होती होगी? या फिर इनके द्वारा ही आसमान छू लेते होंगे देवभूमि के लोग?
खैर, मैं और मेरी अतरंगी बातें नवनीत जी मुझे देखकर मुस्कुरा रहे हैं उन्हें पता है कि उनकी पत्नी अतरंगी स्वभाव और सतरंगी सपनों को जीने वाली महिला है.
इसलिए वो जानते हैं कि रुचि का पूरा ध्यान इस समय केवल इस खूबसूरत नज़ारे को आँखों से दिल में उतारने पर केन्द्रित है.
इधर मैं सोच रही हूँ कि इतनी शांत जगह पर जहाँ कोई आवाज़ नहीं है हमारी गाड़ी की ध्वनि से वन देवता नाराज़ न हो जाएं कहीं. कहा भी जाता है कि पहाड़ पर जोर से आवाज़ देना भी वर्जित माना जाता है क्योंकि घने जंगल और पहाड़ पर अनेकों जीव विचरते हैं जो हमारी आवाज़ सुनकर भयभीत हो सकते हैं.
बहरहाल गाड़ी गंतव्य की ओर बढ़ रही है और मैं पूरी तरह से इस प्रकृति के साथ स्वयं को समाहित कर चुकी हूँ, कि अचानक प्राप्ति ने कहा- ममा देखो तो छोटी-छोटी गायें.
मैंने मुड़कर नवनीत जी की ओर वाले सड़क किनारे देखा तो नवनीत जी ने गाड़ी की गति कम कर दी. क्या देखती हूँ कि दस बारह छोटी पहाड़ी गायों को लिए पहाड़ी बच्चे जा रहे हैं.
प्राप्ति का ध्यान बच्चों पर और प्रियम का पूरा ध्यान छोटी-छोटी गायों पर है. प्राप्ति के लिए आश्चर्य की बात है कि बच्चे पढ़ाई न करके जंगल में गाय चराने आए हैं और वो भी अकेले मम्मी-पापा के बिना.उन्हें यह भी आश्चर्य हो रहा है कि गाय इतनी छोटी भी होती हैं. उन्होंने तो अपने शहर में केवल जर्सी गाय देखी हैं जिन्हें सिंग भी नहीं होते और न वे रंभाती हैं जैसे पहाड़ी गायें रंभा रही हैं.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
लेकिन मेरा ध्यान उन पहाड़ी बच्चों के पहाड़ी सेब जैसे सुरंग गालों की लालिमा पर है. कितने तो प्यारे दिखाई देते हैं ये पहाड़ी बच्चे. मैंने प्राप्ति को कहा- देखो बेटे उनके गालों पर. प्राप्ति ने कहा- ममा जरूर मेकअप होगा, ऐसे कोई इतने लाल होते हैं किसी के गाल?
नहीं बाबा यह नेचुरल है, ये बच्चे खूब मेहनत करते हैं और खूब सारी फल सब्जियां खाते हैं इसलिए इतने लाल गाल हैं इनके.
हालांकि प्राप्ति को मेरी बात पर यक़ीन तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी वो सिर हिला कर सहमति देती हैं.
थोड़ी देर तक उन बच्चों से बात की फिर निकल पड़े अपनी मंज़िल की ओर. जब देहरादून से चकराता के लिए निकले थे तो गाड़ी का एसी चल रहा था और फिर भी हम बेचैन थे गर्मी से लेकिन पहाड़ की गोद में आते ही उसकी शीतलता से मन प्राण और देह में असीम आनंद और शीतलता उतर आई है.
हालाँकि प्राप्ति चुपचाप हो गई हैं लेकिन मैं अपने बच्चे की आदतें बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ कि उसके मन में हज़ारों सवाल उमड़ रहे हैं उन बच्चों और गायों को लेकर.
हम चकराता पहुँचने वाले हैं लेकिन मुझे चाय पीने की इच्छा हो रही है शायद यह इसलिए भी है कि जैसे-जैसे बस्ती पास आ रही है वैसे-वैसे दुकानें और छोटे-मोटे चाय-नाश्ते के स्टॉल दिखाई दे रहे हैं नवनीत जी को कहती हूँ- सुनो न नवनीत जी, मुझे चाय पीने की इच्छा हो रही है.
हालांकि नवनीत अब होटल पहुँचकर ही आराम करने के मूड में हैं लेकिन फिर भी उन्होंने मेरा कहा मान गाड़ी रोक ली.
चाय वाला जौनसारी युवक फटाफट बैंच पर कपड़ा मारता है और हम तीनों माँ-बच्चे बैठ जाते हैं बच्चे तो चाय नहीं पीना चाहते और नवनीत जी चाय पीते ही नहीं लेकिन मेरा मन चाय का प्याला उठाने को लालायित है.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
नवनीत जी लगातार गाड़ी चलाने से थके हुए हैं इसलिए खड़े हो कर पैरों को आराम दे रहे हैं. प्राप्ति की ओर देखा तो वो मुझसे तुरंत बोल पड़ी- ममा उन बच्चों की मम्मी उन्हें डांटती नहीं होंगी?
मैंने पूछा- क्यों डांटेंगी भला?
ममा गाय को चराने ले जाना तो बड़ों का काम होता है न और ऐसे अनहाइजेनिक रहने से इंफेक्शन भी तो हो सकता है न.
नहीं बच्चे. वो बच्चे गर्मियों की छुट्टियों का सदुपयोग कर रहे हैं और फिर इन पहाड़ी बच्चों के पास एंटरटेनमेंट के लिए और कुछ है भी तो नहीं न. आपकी तरह विडिओगेम नहीं है, साइकिल नहीं है और न ही कोई ऐसा खेल है कि वो अपने एंटरटेनमेंट के लिए खेल सकें!
चाय आ चुकी है और मैं आनंद ले रही हूँ गर्मागर्म चाय के स्वाद का, खालिस दूध की चाय अहा! चाय की चुस्कियों के साथ ही मैंने प्राप्ति को कहा- आपको पता है बाबा…. बचपन में ममा भी ऐसे सब काम कर चुकी हैं?
नहीं, मैं नहीं मानती ममा.
अब प्राप्ति के पापाजी आ गए हमारे बराबर में बैठने और उन्होंने कहा- ममा ही नहीं पापा ने भी बचपन में गाय चराने का काम किया है और तो और घास भी काटी है.
अच्छा!
प्राप्ति के लिए यह एक प्रकार का आश्चर्य है और वह मानने को तैयार नहीं लेकिन फिर भी चुप हो कर उन्होंने हमें सहमति दी कि वो हमारी बात से इत्तेफ़ाक रखती हैं. चाय खत्म हो गई तो फिर चल पड़े मंजिल की ओर. मैं पहाड़ की हरियाली देखते-देखते ही अपने बचपन में पहुँच चुकी हूँ.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
राजा की रस्सी पकड़े ये कौन लड़की चली आ रही है सामने से? ये गौशाला में बंधी कम्मो के गले से लिपटी गोल-मटोल लड़की कौन है जो लंबे खुले बाल लिए दौड़ रही है आँखों की पुतलियों में यहाँ वहाँ?
राजा के लिए अपने हिस्से की रोटी से एक रोटी छुपाकर ले जाती ये शरारती दूध सी उजली लड़की कौन है जो अपने छोटे भाई के साथ मिलकर शैतानी कर रही है, लुका-छिपी कर रही आँखों के सामने?
“रुचि… ओ रुचि!”
कौन है ये रुचि?
ये रुचि ही तो है जो इन पहाड़ी बच्चों में खुद को देख “उलार” (उल्लास) से भर गई है!
मायके में शादी से पहले पापाजी के पास बैलों की एक जोड़ी थी एक का नाम राजा दूसरे का पीलू. बड़े सजीले बैलों की जोड़ी पूरे गाँव में किसी के पास ऐसे सुंदर बैल नहीं थे, और राजा का तो स्वभाव भी नाम के अनुसार राजाओं जैसा ही था. पीलू थोड़ा गुस्सैल स्वभाव का जरूर था लेकिन दिखने में पीलू भी बहुत सुंदर ऊँचा और तंदरुस्त बैल था.
माँ मुझे रोटी देती तो उसमें से एक रोटी बचाकर मैं नियम से राजा को देती थी. पता ही नहीं चला कि कब चार साल की लड़की और इस बैल का अटूट नेह जुड़ गया. कभी-कभी जब पापा घर में नहीं होते तो राजा-पीलू को अंदर-बाहर बांधना मुश्किल हो जाता था क्योंकि पीलू स्वभाव से गुस्सैल था और राजा मस्ती में अक्सर रस्सी छुड़ाकर भाग जाता था और फिर पूरे गाँव का चक्कर लगा कर ही लौटता था. इसलिए राजा को बांधने के लिए अक्सर मुझे बोला जाता था. इतना बलिष्ठ ऊँचा बैल एक छोटी बच्ची के प्रेम में खींचा चला जाता था. मैं उसकी रस्सी पकड़ लेती तो कभी भी भागने की कोशिश नहीं करता और चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चला आता था.
एक बार मैं और मेरा छोटा भाई नितिन स्कूल से घर आ रहे थे. पापा घर में नहीं थे तो माँ ने बैलों को हमारी गाल(घर आने के तंग गली नुमा रास्ते को गाल कहते थे हम लोग) में बांध रखा था मैंने जब राजा को देखा तो दूर से ही आवाज़ लगाई- राजा… मेरा राजा ले…आ… आ!
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
राजा मेरी आवाज़ सुनते ही सीधा मेरे पास आकर खड़ा हो गया. मैं उसके गर्दन के पास सहलाने लगी. पुचकारने लगी, तो उसने अपनी गर्दन मेरे कंधे पर रख दी. मेरे पास आकर वो बिलकुल चुप हो जाता था आज भी ऐसा ही हो रहा था और मैं उसके बड़े-बड़े सींगों के बीच माथे को सहलाती जा रही थी कि तभी मुझे नितिन की आवाज़ आई- रुचि दीदी… पीलू मार देगा मुझे. रुचि दीदी… मुझे बचा ले बहना. हट… हट… पीछे जा!
मैं भागकर नितिन के पास गई तो देखा कि पीलू उसके पीछे भाग रहा है और नितिन सिर पर पैर रखकर सरपट दौड़ लगा रहा है. हालांकि नितिन बदमाशी करता था ये सभी जानते थे लेकिन अगर ऐसा राजा के साथ करते तो कुछ नहीं होता क्योंकि वो बड़ा शांत था लेकिन पीलू घास चरते हुए बीच में कोई व्यवधान बर्दाश्त नहीं कर सकता था लिहाजा अब नितिन के पीछे पड़ा था.
मुझे गुस्सा आ गया था इसलिए मैंने गाल में पड़ा मोटा डंडा उठा लिया. गाल के किनारे घास की झाड़ियां थी और पीलू को पास आता देख नितिन ने उनमें जम्प किया और खुद को घास से ढक लिया.
पीलू समझ नहीं पाया कि नितिन कहाँ गया, कुछ देर तक गुस्से में फुफकारने के बाद वो जैसे ही झुका मैंने तुरंत उसकी रस्सी पकड़ ली. और खींच कर घर लाई और खूंटे से बांध दिया. मेरे हाथ में डंडा देखकर पीलू डर गया था इसलिए मुझे मारने की कोशिश उसने नहीं की. लेकिन मुझे गुस्सा आ गया था इसलिए मैंने उसे दो डंडे लगा दिए. माँ आई तो उन्होंने गुस्सा किया कि अरे बैल को क्यों मार रही है?
सारी बातें माँ को बताई तो पहले पीलू के एक डंडा पड़ा और फिर नितिन की क्लास लगी कि जानबूझकर बैल को चिढ़ाने क्यों गया था? इस सब में राजा मेरे पीछे-पीछे आकर चुपचाप खड़ा हो गया था, जब उसकी ओर देखा तो वो मेरे हाथ को प्यार से चाटने लगा. मैं भागकर अंदर से एक रोटी लाई और उसे खिला दी फिर उसे बांध दिया. इतना शांत स्वभाव था राजा का कि एक छोटी बच्ची भी उसे आराम से बांध सकती थी. एक और याद है जो राजा से जुड़ी हुई है मेरे स्मृति कोष में.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
पापाजी रोडवेज में फोरमैन के पद से रिटायर हुए थे परन्तु उनके कार्यकाल में दस साल तक नौकरी से टर्मिनेशन का समय भी रहा छोटे भाई के जन्म के बाद जो हमारे जीवन में अंकित रहेगा लेकिन जब उन्हें उनकी नौकरी वापस मिली तब मुझे राजा से बिछुड़ना पड़ा क्योंकि इतने बड़े बैलों को पालना माँ के वश में नहीं था और खेती करना भी कोई हंसी-मजाक नहीं होता . पापाजी की पोस्टिंग कोटद्वार में हो गई थी इसलिए वे सप्ताह में या दो सप्ताह में आ पाते थे ऐसे में बैलों को संभालना मुश्किल था तो उन्हें बेचना पड़ा. जब राजा की रस्सी खोलकर पड़ोस के गांव के ताऊजी ले जा रहे थे तो मेरी आँखों से गंगा-यमुना बहनी शुरू हो गई. माँ ने उन्हें बता दिया कि रुचि को नज़र न आएं ऐसे रखना बैलों को लेकिन यह संभव कहाँ था?
जिस दिन बैल बेचे उस दिन लगातार मैं रोती रही. न कुछ खाया, न कुछ पीया, न कुछ बोला. बस घर के बरामदे में बनी चौड़ी खिड़की में बैठी रही और लगातार रोती रही.
पहले तो माँ ने समझाया कि बैल रखना बहुत मुश्किल है बेटा इसलिए बेचना मजबूरी है, अलाना-फलाना-ढिमका और न जाने क्या-क्या. लेकिन मैं ऐसे कहाँ मानने वाली थी सो रोती रही.
जब मुझे चुप कराने में माँ कामयाब न हो सकीं तो फिर उन्हें गुस्सा आ गया लिहाजा पिटाई भी हो गई अच्छी तरह लेकिन लड़की टस से मस नहीं हुई. अब माँ ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. लगातार दो दिन तक रोने के बाद बालमन संभलने ही लगा था कि फिर से तीसरे दिन स्कूल से आते समय कुछ ऐसा घटा कि मेरा मन बुरी तरह प्रभावित हो गया.
हमारे स्कूल से लगा हुआ आम का बड़ा सा बगीचा था जिससे होकर नहर निकाली थी मेरे अपने दादाजी ने वो भी उस समय जब भारत आजाद नहीं था गांव की सिंचाई व्यवस्था और पेयजल आपूर्ति के लिए मेरे दादाजी स्व. श्री भीमदत्त बहुगुणा जी का नाम आज भी पूरे देहरादून डिस्क्ट्रीक्ट में बड़े सम्मान से लिया जाता है. इस बगीचे को बैसख बोलते थे और काफ़ी घने पेड़ों से घिरा यह स्थान नर्म दूब से भी भरा होता था जिसमें चरवाहे अपने पशुओं को लेकर आते थे घास चराने के लिए.
इसी बगीचे से होकर मेरे घर का रास्ता था क्योंकि भले ही दादाजी ने यह जगह समाज के हित के लिए दान दे दी थी लेकिन मेरे घर का रास्ता यहीं से था तो मैं उस दोपहर छुट्टी के बाद बस्ता कंधे पर लटकाए अपनी धुन में घर की ओर आ रही थी कि कहीं से रंभाने की आवाज़ आई कानों में. मैं न जाने क्यों ठिठक गई कि अरे ये तो शायद राजा की आवाज है!
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
थोड़ी देर में ही राजा भागता हुआ मेरे पास आकर खड़ा हो गया मैं उसकी पीठ तक तो नहीं पहुँचती थी लेकिन फिर भी मैंने उसके पेट और गर्दन को सहलाना शुरू किया. मैं उसे पुचकार ही रही थी कि इतने में वो ताऊजी आ गए जिन्हें बैल बेचे गए थे और उन्होंने जोर से एक लाठी राजा की पीठ पर दे मारी.
“घर में क्या खाएगा जब चरने में तेरी नानी मर रही है तो?” गुस्से में वो बड़बड़ाने लगे और राजा को लाठी से हांकते हुए मुझसे दूर ले गए. अबोध बच्चों का मन भावनाओं से भरा होता है मेरी आँखों में आँसू और कान गुस्से से लाल हो गए कि ऐसे क्यों मारा मेरे राजा को?
खैर, साथ में बड़ा भाई और छोटा भाई भी थे तो बड़े भाई ने कहा कि घर चलो दोनों फटाफट तो उसका कहना मानते हुए घर आ गई लेकिन घर आते ही माँ से लिपटकर रोना शुरू कर दिया.
माँ को पहले तो समझ ही नहीं आया कि आखिर मैं रो क्यों रही हूँ फिर भाई ने सब बात बताई तो वो मुझे चुप कराने लगीं. मैंने रोते हुए कहा- हमारे इतने सारे खेत हैं राजा को बांध कर चरा लेंगे न मम्मी प्लीज़ ले आओ न उसे वापस वो ताऊजी मेरे सामने ही उसे मार रहे थे तो अकेले में कितना मारते होंगे?
माँ ने बड़ी मुश्किल से चुप कराया और समझाया कि अब वो बैल उनके हैं बेटा वो उन्हें जैसे चाहे रख सकते हैं.
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
उस दिन भी मेरा उपवास ही हुआ और मैं रोते हुए ही सोई. न जाने क्यों मन में क़ैद ये खट्टी-मीठी यादें आकर बार-बार दिल का दरवाजा खटखटा जाती हैं और मैं सबके साथ होने के बावजूद भी उन दिनों में पहुँच जाती हूँ जहाँ मैं एक छोटी बच्ची को उछलकूद करते, पिठ्ठू खेलते, गिट्टी खेलते तो कभी गायों के साथ और कभी बैलों के साथ खेतों में घूमते देखने लगती हूँ और वो लड़की मुँह बनाकर मेरी ओर पीठ फेर लेती है.
ममा… ममा, देखो न बकरियां, मैं आँखें खोलती हूँ और वापस खुद को बच्चों और नवनीत जी के साथ पाती हूँ. हम चकराता पहुँच चुके हैं और प्राप्ति अब बकरियों को लेकर उत्साहित हैं. आपसे फिर मिलती हूँ जरा इन्हें बकरियों से मिलवा लूँ!
(Childhood memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
(जारी)
रुचि बहुगुणा उनियाल
देहरादून में जन्मी रुचि बहुगुणा उनियाल वर्तमान में नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल रहती हैं. रुचि बहुगुणा उनियाल की प्रकाशित पुस्तकें मन को ठौर, प्रेम तुम रहना और ढाई आखर की बात हैं. रुचि बहुगुणा उनियाल से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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