एक बार यूं हुआ कि टेस्ट खेलते हुए इंडिया की टीम एक ही दिन में दो बार ऑल आउट हो गयी. एक पारी में 58 रन बने एक में 82. क्रिकेट के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. उसके अगले महीने ऐसा भी लम्हा आया कि इंडिया के शुरू के चार बैट्समैन आउट हो गए और एक ही रन नहीं बना था. क्रिकेट के इतिहास में ऐसा भी कभी नहीं हुआ था. ये दोनों वाकये 1952 की गर्मियों में घटे, इंग्लैण्ड में.
(Childhood Cricket Memoir by Ashok Pande)
एक अंग्रेज ओपनर हुआ डेनिस एमिस. इस किस्से में उसका नाम दो दफा आने वाला है. सन 1974 में एक मैच में उसने हमारी टीम के साथ खेलते हुए लगभग दो सौ रन बनाए और टीम का स्कोर सवा छः सौ पार पहुंचाया. हमारे गावस्कर, विश्वनाथ और फारूख इंजीनियर बिचारे किसी तरह तीन सौ तक स्कोर खेंच ले गए. फॉलोऑन खेलने की हमें तब आदत थी सो फिर से उतरे. इस बार कुल 42 रन पर पूरी टीम गड्डी हो गयी.
सत्तर के पूरे दशक और अस्सी के दशक के शुरुआती सालों में बीता मेरे बचपन यह वो कालखंड था जब इंडिया की जीत देखने को साल-दो साल इन्तजार करना पड़ता था. सिर्फ न्यूजीलैंड की टीम हमसे उन्नीस होती थी मगर उसके साथ खेलने का नंबर ही चार-पांच साल बाद आता था.
न्यूजीलैंड की टीम किस कदर हौकलेट थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सन छियत्तर में कानपुर के ग्रीन पार्क में बिशन सिंह बेदी तक ने उनके खिलाफ हाफ सेंचुरी ठोक दी थी. भारत की टीम के ग्यारह खिलाड़ी पूरे साल भर में दो –चार से अधिक छक्के नहीं मार पाते थे, बेदी जैसे बैटिंग का एबीसीडी न जानने वाले स्पिनर ने उस पारी में अकेले तीन छक्के मारे. बाकी देशों से खेलते हुए हमारी टीम के छः विकेट गिर जाने का मतलब ऑल आउट होता था क्योंकि आख़िरी के चार विकेट दस-पांच रन से ऊपर नहीं बना पाते थे. कानपुर में न्यूजीलैंड वाले ग्यारह नंबर पर खेलने वाले टुंडे लेग स्पिनर भगवत चंद्रशेखर तक को आउट नहीं कर सके और हमने नौ विकेट पर पारी डिक्लेयर की. जीते हम तब भी नहीं. हाँ मजा जरूर आया.
(Childhood Cricket Memoir by Ashok Pande)
सबसे खतरनाक होती थी वेस्ट इंडीज की टीम जिसके पास रॉय फ्रेडरिक्स, विवियन रिचर्ड्स, गॉर्डन ग्रीनिज, क्लाइव लॉयड और कालीचरण जैसे बोलरों का धुआं निकाल देने वाले बैट्समैन थे. उनके पास गार्नर, होल्डिंग, मार्शल और एंडी रॉबर्ट्स सरीखे फास्ट बोलर भी थे जिनके सामने हमारे बैट्समैनों के परखच्चे उड़ जाया करते. बल्लेबाज के नाम पर हमारे पास एक सुनील गावस्कर था और एक गुंडप्पा विश्वनाथ. बस.
फास्ट बोलिंग के नाम पर हम महात्मा गांधी के अनुयायी थे. हम अपनी स्पिन चौकड़ी यानी बेदी-चंद्रशेखर-प्रसन्ना-वेंकटराघवन और भगवान राम के भरोसे खेलने उतरते थे. हालात इतने खराब थे कि कितने ही मैचों में हमारे बैटिंग ओपनर यानी सुनील गावस्कर ने बोलिंग की तक ओपनिंग की. वेस्ट इंडीज के बल्लेबाज दिन भर खेलते जाते और आउट ही नहीं होते. रेडियो पर कमेंट्री चल रही होती जिससे सट कर बैठे हम अंदाजा लगा रहे होते कि इंडिया की बैटिंग का नंबर एक दिन बाद आएगा या दो दिन बाद. हमारे स्पिनर पिटते जाते और हमें लगता रिचर्ड्स और लॉयड हजार-दो हजार रन बनाने के बाद ही गावस्कर और विश्वनाथ को खेलने देंगे. फिर इंडिया का नंबर आता और आधे घंटे बाद कमेंटेटर बता रहा होता कि इंडिया को फॉलोऑन से बचने के लिए इतने रन चाहिए हैं और कुल इतने विकेट बचे हुए हैं.
फॉलोऑन के बाद पारी शुरू करने को हमारी टीम को दस मिनट का समय मिलता था. उस बीच में हम बच्चे छत पर जाकर एक पूरा टेस्ट मैच खेल आते. कमेंट्री फिर शुरू होती. खेल फिर शुरू होता. फिर आधे घंटे बाद कमेंटेटर बताने लगता भारत को पारी की हार से बचने को इतने रन चाहिए और इतने विकेट बचे हुए हैं.
भारत के टेस्ट इतिहास में एक जहीर-मुदस्सर युग भी आया. पाकिस्तान के ये दो खिलाड़ी यानी जहीर अब्बास और मुदस्सर नजर हमारे बोलरों से शायद कभी आउट हुए ही नहीं. वे अपनी मर्जी से आउट होते थे. इंडिया का नंबर आता तो इमरान खान, सरफराज नवाज और अब्दुल कादिर हमारे कालेजों को छलनी कर दिया करते. (Childhood Cricket Memoir by Ashok Pande)
डेनिस एमिस पर फिर से आया जाय. 1976 का साल था. महीना यही दिसंबर का. दिल्ली का फीरोजशाह कोटला. उन दिनों क्रिकेट का स्कोर जानना बहुत मुश्किल होता था. सुबह जब मैच शुरू होता हम स्कूल पहुँच चुके होते थे. लिहाजा स्कूल में हम सपने देख सकते थे कि गावसकर ने आठ सौ रन बना दिए हैं और चंद्रशेखर ने तीन हैटट्रिक लेकर दुश्मन टीम को बीस रन पर आउट कर दिया है. तीन-साढ़े तीन पर छुट्टी होती तो मैच में चाय के बाद का आख़िरी सेशन चल रहा होता. पहले और दूसरे दिन डेनिस एमिस ने मिलाकर फिर से करीब दो सौ रन बनाए और इंग्लैण्ड ने करीब चार सौ. दर्शनशास्त्र का प्रोफ़ेसर माइक ब्रेयरली इंग्लैण्ड का कप्तान था और सीरीज के लिए अपने साथ एक नया बोलर ले कर आया था. दूसरे दिन शाम को जब भारत की बैटिंग आई तो एक घंटा बचा था. हम स्कूल से लौट चुके थे. जॉन लीवर नाम के उस नए बोलर ने इंडिया के धुर्रे उड़ा दिए और एक घंटे में हमारे चार खिलाड़ी आउट हो गए. गनीमत है दिन बीत गया. अगले दिन लोकल अखबार में खबर छपी – “जानलेवा लीवर ने किया काम तमाम!” रिपोर्ट में लीवर पर गेंद को चमकाने के लिए वेसलीन का अवैध प्रयोग करने का आरोप भी लगाया गया था. यह मामला ज्यादा समझ में नहीं आया.
अगला दिन इतवार था और गावस्कर नॉट आउट था. बदकिस्मती से हमें अगले महीने होने वाली गणतंत्र दिवस परेड और सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी के लिए उस दिन भी स्कूल जाना था. हमने स्कूल में गावस्कर का स्कोर ढाई-तीन सौ तक पहुंचाया. छुट्टी हुई तो गावस्कर खेल तो रहा था मगर उसका स्कोर पिछले दिन से कम था. यानी इंडिया फॉलो ऑन खेल रही थी. चौथे दिन इंडिया ने घिसटते-लुढ़कते किसी तरह पूरा दिन बिताया तो सही लेकिन सात खिलाड़ी आउट हो चुके थे. करसन घावरी बीस-पच्चीस पर खेल रहा था. शाम को हम दोस्तों में लम्बी सांत्वना वार्ता चली जिसमें अगले दिन घावरी द्वारा डबल सेंचुरी मारने और इंडिया को हार से बचा ले जाने की संभावना पर मोहर लगाई गयी. हम बेहद मनहूस बखत के बेहद आशावासी बच्चे थे.
अगले दिन स्कूल में किसी कर्मचारी के मरने पर शोकसभा हो गयी और दो ही घंटे बाद छुट्टी मिल गयी. मेरी कल्पना में घावरी सौ से ऊपर खेल रहा था. घर पहुंचा तो रेडियो पर कमेंट्री तो बज रही थी पर सुन कोई नहीं रहा था. सेकेण्ड भर गौर से सुनने के बाद समझ में आ गया कि पुरस्कार वितरण चल रहा है. मिनट भर बाद यह भी समझ में आया कि इंडिया फिर से पारी से हार गई है. कमेंटेटर श्रोताओं को ढाढस बंधाने के लिए मजाक में आपस में चुहल कर रहे थे – “देखिये हम हार चाहे गए लेकिन बड़ी बात ये है कि हम तो बस एक बार पदे लेकिन अंग्रेजों को दो दफे पदाया.” उस जमाने के हमारे कमेंटेटर हमसे भी ज्यादा आशावादी थे.
मोबाइल पर स्कोर देखने वाले आज के लौंडे कैसी घनघोर निराशा में जी रहे हैं इसका अंदाजा मुझे आज सुबह हुआ जब आठवीं में पढ़ने वाला मेरे पड़ोस का एक क्रिकेटप्रेमी छोकरा अपने किसी दोस्त को फोन पर बता रहा था – “इंडिया की पूरी टीम छत्तीस पे घुस गयी बे. गुड्डू मामू कह रहे हैं अब कोली को फांसी होगी!”
(Childhood Cricket Memoir by Ashok Pande)
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