कनार में भगवती कोकिला के मंदिर में रात बिताने के बाद हम भुप्पी के घर मेहमान बने. कल हमने उनके फटे झोले को सिला था आज उन्होंने हमारी भूख को. यहाँ पर अपने पर्स, बेल्ट और कुछ गैर जरूरी सामान को छोड़ हम दोनों भाई भुप्पी के साथ आगे की यात्रा में निकल रहे थे. हमें लगा कि यहाँ से हम पूरी, आलू या सत्तू कुछ तो साथ रखेंगे पर ऐसा हुआ नहीं. जो भी हो भुप्पी एक बहुत ही प्यारा बच्चा था और उसकी निश्छल मुस्कान ने हमसे कह दिया था कि हमें फ़िक्र करने की जरूरत नहीं.
(Chhipla Jaat Travelogue Bhaiman Gufaa)
भुप्पी के बूबू गोपाल सिंह जी उससे भी ज्यादा मयाले बुजुर्ग थे. उनको देखकर मुझे अपने गाँव के दादाजी गोपाल दत्त जी की याद आ रही थी. चूँकि वह कुछ ख़ास पुजारी और सयानों में से एक थे इसलिए उन्होंने हमें यात्रा के कायदे तो बताये ही, बहुत सी कहानियां भी सुनाई.
दोपहर से पहले पहले कनार के ऊपरी हिस्से में एक ख़ास घर के आँगन में बहुत से लोग जमा होने लगे. एक घासफूस की छत वाला छोटा सा मकान जिसे देवघर कहते हैं. माना जाता है कि इस घर में यहाँ के स्थानीय देव रहते हैं और यहाँ से उनको लेकर छिपला तक यात्रा कराना इस क्षेत्र के लोगों का दायित्व है. हमारे वहां पंहुचने तक निचली गोरी घाटी से सैकड़ों लोग जमा हो चुके थे. इसमें अधिकांश किशोर वय के लड़के थे. सबने सफ़ेद पोशाक और सफ़ेद पगड़ी बाँधी हुई थी और हाथ में एक रिंगाल की डंडी पर बंधा लाल ध्वजा जिसे नेजा या निशान कहा जाता है. इन बच्चों के कन्धों पर एक झोला टंगा हुआ था और दूसरे हाथ में एक- एक शंख थी.
देवघर के आंगन में बीचों-बीच एक मोष्टा बिछा था जिसके चारों ओर सयाने पुजारी बैठे हुए थे. दो लोग हाथों में तांबे के भंकौर पकड़े हुए एक छोर पर खड़े थे. इन भकोरों को लाल और सफ़ेद ध्वजाओं और फूलों से सजाया गया था. मोष्टे के बीचों-बीच चांदी के कुछ छोटे बर्तन और एक घंटी रखी हुई थी. कहते हैं जब कोकिला भगवती यहाँ आई तो इसी घंटी के नीचे उन्होंने देवदार, बांज और शिलिंग के बीज रख दिए और संकल्प किया कि अगर ये पेड़ उगे तो ही यहाँ बसुंगी.
सयाने कहते हैं यहाँ आदमी का वास देवता से पहले का है और देवता यहाँ कहीं और से आकर बसे शायद पाली-पछौं से. एक हमारी उम्र का युवक देवघर के अन्दर सर पर लाल पटका बांधे बैठा था. यह भगवती काली के मुख्य पुजारी थे जिनपर भगवती अवतार होती है. पुजारियों की श्रेणी में यह सबसे ऊंचे पद पर हैं. बाकी लोग आँगन में पूजा विधान शुरू करते हैं. जैसे ही सयाने भंकोर बजाते, सारे बच्चे अपने शंख भी बजाने लगते. सारा माहौल इस समवेत ध्वनि से गूँज उठता. यहाँ से शुरू हुआ सयानों द्वारा गाथाएँ गाने का सिलसिला जो हमें मुश्किल से ही समझ आ रहा था. और हाँ एक बात और हमें यहाँ तस्वीरें उतारने को मना किया गया. यह भी दावे किये गए कि यहाँ की तस्वीरें आती ही नहीं हैं.
हमने सयानों को समझाया कि उनके पूजा विधान में कोई व्यवधान किये बिना और सामने से कोई तस्वीर लिए बिना हम अपना काम करें तो हमें तस्वीरें लेने की इजाजत दें. बूबू प्रताप सिंह जी ने हमारे पक्ष में बात रखी तो हमारे कैमरे को इजाजत मिल गयी. लगभग एक घंटा बीतते बीतते यहाँ पर बरम, गोगई, कालिका, तोली, बलमरा, पैयापौड़ी आदि गाँव से लोग यहाँ जमा होने लगे. अधिकांश के कनार में रिश्तेदार या बिरादर रहते हैं इसलिए बहुत से लोग पहले ही दिन यहाँ आ चुके थे.
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गोरी की निचली घाटी का एक विधान है कि बच्चों के जनेऊ संस्कार छिपला केदार में ही होते हैं. ये किशोर सफ़ेद कपड़ों और पगड़ी में यहाँ आये थे. यहाँ इनको ‘नौलधप्या’ कहा जाता है. लगभग हर नौलधप्या के साथ कोई अभिभावक भी था. किसी किसी सयाने के साथ दो तीन बच्चे भी थे. एक परिवार के सभी किशोर जिनकी उम्र संस्कार के लायक मानी गयी यहाँ थे. यहाँ पर पूजा विधान करने के बाद माताओं ने दही चावल का ज्योनाल बच्चों और सयानों के माथे में लगाया और उनको यात्रा के लिए विदा किया. यहाँ आते आते हम इनके परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे.
भुप्पी हमें अपने बड़े भाई की तरह साथ ले जा रहा था और हर चीज बता रहा था. हम भुप्पी की उम्र के सभी बच्चों के ददा बन गए थे. जीतू अब तक हमारा ख़ास दोस्त बन गया था और हम उसके बेटे नीरज के चाचा. यहाँ से यात्रा ने अपने तौर पर आगे बढ़ना शुरू किया. बिलकुल अनुशासित पंक्ति में सब चलने लगे. सबसे आगे भगवती के पुजारी एक नेजा पकड़े यात्रा की अगुवाई कर रहे थे. फिर कुछ पुजारी और सयाने. गाँव से लगे खेतों की मेड़ों पर यात्रा बढ़ने लगी. छिपला केदार की जै… कल्पसा भड़ों की जै… का समवेत स्वर बीच-बीच में गूँज उठता.
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खेतों में मक्के के खेतों में छिपे परिंदे इस घोस के घबरा कर अचानक उड़ान भरने लगते. चटख हरे रंग के बीच सफ़ेद और लाल रंग की लकीर धीरे-धीरे बढ़ने लगी. मांओं ने सिसकते हुए अपने नौनिहालों के माथे पर दही चावल का आशीष जड़ा और जात निकल पड़ी हिमालय में भगवती को उसके मायके ले जाने.
खेतों की सीमा समाप्त हुई तो बांज के घने जंगल में जात का प्रवेश हुआ. गाँव पीछे छूट चुका था. जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ रहे थे दक्षिण में घनधूरा के जंगल के पार की पहाड़ियां परत दर परत हरी से नीली होती जा रही थी. आकाश को छूते बांज के पेड़ों पर चांदी की चेन जैसे लाइकेन झूल रहे थे. ऊंचाई बढने के साथ बांज की जगह रियांज के जंगल दिखने लगे. बीचों-बीच पक्की पत्थर की पगडण्डी पर हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे. भुप्पी के अपने गले में एक ढोलक टाँगे हुए था और हम लोग कुछ गाते हुए आगे बढ़ रहे थे.
कोई लाइन तोड़ता तो जित्तू जोर से हड्काता. ए भाई… बबलापुर नहीं. बबलापुर हमारे लिए बड़ा अनोखा शब्द था लेकिन उतना ही आकर्षक. इस शब्द की क्या कहानी रही होगी पता नहीं पर ये था बड़ा मजेदार. बबलापुर मतलब लाइन तोड़ना, अनुशासन तोड़ना, अव्यवस्था करना और यह सब इस यात्रा में बहुत खराब माना जाता था. यही अनुशासन था जिसके चलते यहाँ आठ साल का बच्चा और अस्सी साल का बुजुर्ग बिना किसी ख़ास परेशानी के चल पाते और आज तक कोई भी दुर्घटना इस यात्रा में नहीं हुई.
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रियांज की जगह खरसू, तिम्सू और थुनेर के पेड़ दिखने लगे और उनके नीचे रिगाल के घने झाड़. ऊंची-ऊंची रिगाल जिसको यहाँ से काटकर कनार के लोग टोकरियाँ, सुप्पे, मोष्टे और डोके बनाते. कुछ अपने लिए तो कुछ बेचने के लिए. इस रिगाल के जंगल की शुरुआत में यात्रा विश्राम के लिए रुकी और सयानों ने सबसे जूते चप्पल उतारने को कहा. सबकी तरह हमने भी अपने सैंडिल उतार कर एक पेड़ की जड़ में छोड़ दिए. वापस आने पर यह हमें यहीं मिलेंगे. अब यहाँ से पूरा सफ़र नंगे पांव की होना था.
रिंगाल के घने जंगल को पार कर हम खड़ी चड़ाई पार कर ऎसी जगह पंहुचे जहाँ कुछ भोज पत्र और रातपा (सफ़ेद बुरांश) के पेड़ दिखने लगे. कुछ ही आगे पहुंचे कि पेड़ों की सरहद समाप्त हो गयी. अब सामने घास का बड़ा सा ढालू मैदान था जिसे हम लोग बुग्याल कहा करते हैं. बुग्याल की घास अब सुनहरी हो चुकी थी और फूल भी खिल कर मुरझा चुके थे. यहाँ पर यात्रा को एक गोल घेरे में बिठाकर सारे पुजारी चारों तरफ खड़े हो गए. मानो योद्धा हों और अपने लोगों की किसी अनजान शत्रु से रक्षा कर रहे हों. मान्यता है कि बुग्यालों में परी-आंचरियाँ निवास करती हैं और उनके इलाके में कोई आये तो उसे पकड़ लेती हैं. जो इनकी चपेट में आया उसका बचना मुश्किल होता है. पुजारियों पर देवता उतर आये और उन्होंने पूरे दल के चारों और दौड़ते हुए उन्हें अभय दिया और अनदेखी डरावनी ताकतों को दूर रहने की हिदायत. पहाड़ी के दुसरे छोर से एक दल मेतली की ओर से आता नजर आया.
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यहाँ आते आते सूरज ढल गया था और जहाँ पर बुग्याल समाप्त हो रहा था वहां से एकदम खड़ी पथरीली पहाड़ी थी. इस खड़ी नंगी ढाल की ऊंचाई कम से कम तीन सौ मीटर तो होगी थी. इस चट्टान के बीच हमें जो दिखा वह अद्भुत था. यहाँ बीच की गहरी तिरछी दरार रुपी कन्दरा को सामने से पत्थर और लकड़ियों से बंद किया हुआ था. इसको भैमण गुफा कहा जाता है जिसका नाम हम कल से सुनते आ रहे थे. यहीं हमने आज रात रुकना था. कुछ लोग यहाँ पहले ही आ चुके थे जिन्होंने पेट्रोमैक्स जलाकर उजाला किया हुआ था.
हम धीरे-धीरे बुग्याल को पार कर इस चट्टान की जड़ में पंहुचे. यहाँ से रास्ता कठिन था लेकिन हम आसानी से चढ़ते गए. गुफा से ठीक पहले पानी का बहाव रोककर एक छोटा खड्डा भरा हुआ था, जहाँ पर पैर धोकर हम अंदर जा सकते थे. शुरू में एक छोटा उड्यार बना था जहाँ एक रसोई लगी थी और अन्वाल, पुजारी और सयानों के लिए यह स्थान सुरक्षित था. इसके बाद इस कन्दरा का बड़ा हिस्सा जिसे सामने से बंद कर एक विशाल गुफा बना दी गयी थी. अन्दर गए तो हमारी आँखें फटी रह गयी.
दूर से सुनसान दिखने वाली इस चट्टानी गुफा के अन्दर पांच सौ से ज्यादा लोग अलग-अलग झुण्ड बनाये बैठे थे. इस गुफा में एक पूरी दुनिया थी. कितने ही जाने अनजाने चेहरे. कितनी ही आहटें, गीत और कहानियां यहाँ इस चट्टान की दरार में एक साथ थे. लोगों ने छोटे छोटे घेरे बनाये थे और बीच में आग जलाकर बैठे थे. भुप्पी की ढोलक जौलजीवी के सुनार ने पकड़ ली और शुरू हुए कीर्तन. सयानों ने केदार की गाथाएँ गानी शुरू की. हम दोनों भाइयों को एक जगह पर पराल की गद्दी में बिठाकर भुप्पी कहीं गायब हो गया.
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हम यह सब देख स्तब्ध थे, हमारे पास बोलने को कुछ नहीं था. हम खामोशी से उस सपने को जी रहे थे जिसे सालों से देख रहे थे. कीर्तन चलते रहे, हंसी, मजाक, किस्से अपने सबाब पर थे. रात के साथ लोगों के झोले खुलने लगे. कोई पूरी तो कोई पराठे, क्कोई सत्तू तो कोई हलवा खाने लगे. हमारी आँतों में भी भूख से मरोड़ उठ रही थी लेकिन खाने का कोई ठिकाना न था. जिन लोगों को हम जानते थे उनके चेहरे इस भीड़ में कहीं न थे. न भुप्पी और न जीतू… जो मासप लोग पहले दिन हमारे साथ बरम से चले थे उनकी हालत और खराब थी. वह पैसे से सारी व्यवस्था कर लेने के भाव से चले थे और पिछली रात जीतू और गाँव वालों से कुछ व्यवहार बिगाड़ चुके थे. ऊपर से उनकी चलने की आदत शायद न रही हो. अब अपने झोले को टटोलने के अलावा कोई रास्ता न था.
हमारे झोले में कुछ काजू, बादाम और मिस्री थी. थोड़ा-थोड़ा ही खा पाए क्योंकि कल पूरा दिन भी चलना था और ये रसद कल के लिए भी चाहिए थी. हमने अपनी-अपनी पंखियाँ ओढ़ ली और पराल पर लेट गए. न जाने कब आँख लगी. कानों में ढोलक की थाप और अनेक आवाजें तो आ रही थी लेकिन नींद और थकान में सब सपने जैसा लग रहा था. सपने में हम कहीं अपने गाँव की ऊपर की पहाड़ी में बैठे थे जहाँ कोई बारात जा रही थी और नगाड़े बज रहे थे. दूर कोई नीली नदी पत्थरों को चीरती बह रही थी. हम ग्वाले गए थे और बन देवता की पूजा में खाना बन रहा था. सपने में हमको किसी ने कहाँ खाना खा लो. एक बार नहीं दो तीन बार कहा ददा खाना खा लो. पर सपना तो सपना था. सपने के खाने से पेट कहाँ भरता. नींद भूख पर हावी थी.
इतने में किसी ने हमारे कन्धों को जोर से हिलाकर कहा ददा खाना. हम अचक कर जाग गए. सामने भुप्पी अपनी प्यारी सी मुस्कान के साथ हाथ में एक थाली और दो बड़े से कटोरे लिए बैठा था. थाली में बड़ी सी रोटियां थी और कटोरों के आलू का थेचुवा. भूप्पी ने देरी के लिए खेद जताया. लेकिन हमें वह मिल गया था जिसकी कोई उम्मीद भी न थी. वह हमारे लिए अण्वाल की रसोई में पुजारियों के लिए बन रहे खाने में से रोटियाँ लाया था. उसे देर भी इसीलिए हुई कि वहां आटा गूंदने और सब्जी काटने जैसे काम भुप्पी और इस जैसे एक दो और बच्चे ही कर रहे थे. पेट में खाना गया ही था कि भुप्पी जूठी थाली लेने फिर आ गया. हमारे कितना ही मना करने पर भी वह माना नहीं. कटोरों में हाथ धुलवा कर बर्तन ले गया और सोने के लिए कह कर फिर से कहीं खो गया. बस इतना ही बोला कि सुबह चार बजे उठ जाना हम जल्दी निकल जायेंगे.
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इस गहरी काली रात में निर्जन हिमालय की इस विशाल कन्दरा में लेते लेते मैं पिछले दो दिनों को याद करने लगा. कौन थे हम भुप्पी के. जौलजीवी में गाडी की अगली सीट में बैठा वह लड़का हमारे लिए छोटे भाई कब हो गया पता नहीं. लेकिन इतना समझ में आया कि दुनिना में किसी भी बल से बलवान है प्रेम और विश्वास. हम इस सफ़र में किसी भगवान् की आस्था के चलते नहीं आये थे. न इस पूरे सफ़र में हमारे मन में किसी देवता का ख़याल आया. वह सब हमारे लिए केवल कहानी थे, ऐसी कहानी जिस पर सब यकीन करते हैं. लेकिन जीतू हकीकत था, भुप्पी हकीकत था, रोटियां हकीकत थी और वह प्रेम हकीकत था जो हमने यहाँ अर्जित किया था.
हम कल की कल्पनाओं में गहरी नींद में ढल गए. कल का दिन हमारे जीवन के यादगार दिनों में से एक होने वाला था. सफ़र का असल मजा तो अब आने वाला था.
(जारी)
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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