दादा के घर से चौकोड़ी, गोल टोपी सी दिखती है. लगता है जैसे प्रकृति ने चोटी को ठंड से बचाने के लिए टोपी पहना दी हो. चढ़ाई पार करते हुए फूँ-फाँ होने लगी तो उन्होंने बताया कि पार वो जो गाड़ी आते दिखाई दे रही है न, वह थल रोड है. हमें उसी सड़क पर पहुँचना है. वहाँ से बाँये हाथ सौ मीटर चलेंगे तो उड्यारी बैंड (मोड़) है और उसके ठीक ऊपर चौकोड़ी समझ लो. देखने में जितनी नजीक लगी, उतनी ही दूर है चौकोड़ी!
(Chaukori Childhood Memoir by Gyan Pant)
कांडे, किरौली गाँव भी दिखे लेकिन हमें उस तरफ नहीं जाना था. ओ, हो रेबाधरौ, लागि गोछै बा्ट? त्वीलि दगड़ू ले भल छांटि राखौ, मेरे नमस्कार के उत्तर में उन्होंने ‘जी रयै च्याला’ कहा तो दादा ने बताया कि यो गरूँ मुन्ना छ, केदार दज्यूनौ-च्योल. होय-होय यार, मैं जाणनेरै भयूँ, हुसैनगंज थांणा सामुणि वाल नै, अरे यैक नामकंद’क भात खायी भै हमैलि त. जी, मैं भी जानता हूँ आपको, तर्दा ताऊजी हैं, नहर के दफ्तर वाले, मैंने कहा तो वे खुश हो गये.
उनका पूरा नाम श्री तारादत्त भट्ट है. पिताजी तर्दा कहते थे तो हम लोग तर्दा ताऊजी कहने लगे. रिटायरमेंट बाद गाँव आ गए लेकिन घोड़े जैसी टाँगों में चुस्ती-फुर्ती आज भी बनी हुई है. कहते हैं कि लखनऊ रह जाता तो अब तक बुशी (कंडम) गया होता. यहाँ दौड़ भाग लगी हुई मगर हा्व-पाणि शुद्ध हुआ. लखनौ जाकर जरुर कहना कि याद कर रहे थे बल. जाऔ पैं, भलिकै जाया. ताऊजी चले गये लेकिन हमें उज (उर्जा) दे गए. मैं यही सोचता कि जब ये बूढ़े खटाखट जाकर वापस आ गये तो…
हम फिर सड़क पर ही जाकर रुके. वहाँ से सड़क-सड़क जाना ठीक समझा गया. खड़ी चढ़ाई कौन पार करता? वैसे भी पैर दर्द कर रहे थे. सुबह घर से जगथली और दोपहर बाद चौकोड़ी को. दादा समझ रहे थे लेकिन उनकी भी मजबूरी थी.
उड्यारी बैंड पर अमूमन चहल पहल रहती है क्योंकि यहाँ थल, पिथौरागढ़ की ओर जाने वाले गाड़ी का इंतजार करते हैं. कुछ दूकानें भी हैं जहाँ जलपान की साधारण व्यवस्था है. स्थानीय डाक भी वहीं आती है. मुझे नहीं पता कि किसके दरवाजे बैठकर पीतल के गिलास में टपुकी चाय पी रहा था. कोई दादा के जानने वाले रहे होंगे. मेरा काम सभी को नमस्कार कहना और बची रयै, जी रयै’ सुनना भर था. चौकोड़ी की ओर जा रही खाली टैक्सी वाले को उन सज्जन ने ही बुलाकर कुछ कहा होगा वरना वह हमसे चलने की जिद्द क्यों करते. जिस आत्मीयता के साथ उन्होंने बिठाया उसमें किराये की संभावनाएं शून्य हो गयी थी. पहाड़ में अपने-पराये का भेद करना सरल नहीं होता. यह उन दिनों की बात है.
जाते-जाते भी सूरज पहाड़ से भौत कै-भौत कै (आलिंगन) करते जा रहे थे. सामने चोटियों पर पिठ्या जैसा घाम आर-पार फैला हुआ था. हिमालय सफेद तो नहीं लेकिन उस तरफ सांझ ढलने के कारण मटमैला दिखा. कतार में खड़े चीड़ वृक्षों को देखकर लगता था जैसे सीमा की चौकसी में जवान खड़े हों और यह सच भी है कि पहाड़ी परिवारों के एक न एक सदस्य सीमा सुरक्षा में जरुर होते हैं. उस दिन पहली बार मैंने सूर्य को पहाड़ के पीछे छुपते हुए देखा. लखनऊ में तो सूरज डूबता है. बालमन के लिए पहाड़ में धूप-छाँव का खेल कौतूहल बनाए रखता है.
चौकोड़ी में जहाँ हम रुके वह घर कम होटल कम दुकान था. दादा के ही गाँव के लोग रहे होंगे. पक्षियों के लौटने के समय पहाड़ी घरों में दिया-बत्ती की शुरुआत होती है. आमा भी दिया जला रही होगी. सांझ की आरती में उसने यही कहा होगा कि परमेश्वरौ, मुन्ना कैं राजी खुशी-पुजै दिया. घी चुपड़ी रोटियाँ, भांग मिली गडेरी सब्जी व लाई की टपुकी के बावजूद भोजन गले नहीं उतर रहा था क्योंकि इतना तय है आमा ने आज खाना नहीं बनाया होगा. वह कहती भी थी-
ते जायी बाद द्वि तीन दिन जाणें फुड़फुड़ाट लागी रूँ, पोथा. के धान करुँ जै है जैं. यो पेट बजी रौ-कां माननेर भै! खांण् त भयै, उसी यां पनै सार ले भयी. तु जा, जब जांणें हाथ खुट चलि रयीं गोर्-बाछनां पछिल मूँ ले मरी भयूँ. पछा त मैं ले ऊँणैं पड़ौल. एकलि पराँणि ले आँखिरकार कब जांणे पार्याल , नि भये पैं?
(तुम्हारे जाने के दो तीन दिन बाद तक बैचेनी रहती है. क्या करुँ, सोचती रहती हूँ. पेट है, खाना जरूरी है, यहाँ की आदत है. बाद में आना ही होगा. अकेली कब तक रखवाली कर पाउँगी. ठीक है कि नहीं? )
(Chaukori Childhood Memoir by Gyan Pant)
हाँ आमा, बाबू भी कह रहे थे कि आमा को साथ लेकर आना और सच में शरीर साथ देने तक आमा ने घर मेनटेन किया हुआ था कि- कभै त नान्तिन आलै सई. घर’क द्वार नि ढकी रौओं, उनन खांण् पिणैं परेशानी न हौ
(कभी त़ो बच्चे आयेंगे, घर के दरवाजे बंद न हों, उन्हें रहने खाने की परेशानी न हो )
लेकिन जो गया , फिर लौट कर कब आया है ? ऐसा ही बाबू के साथ भी हुआ है.
चौकोड़ी में जहाँ हम रुके, वहाँ चाची सामान्य दिनों के मुकाबले आज जल्दी उठ गईं हैं क्योंकि आठ बजे से पहले उन्हें भजन-भोजन की तैयारी करनी है. रास्ते में क्या मिले, न मिले इसलिए हम खाकर निकलेंगे. यह रात में ही तय हो गया है. खटर-पटर में नींद कहाँ आती. वैसे भी रातभर आमा की फिल्म चलती रही इसलिए शरीर अलसाया है. उसके सकुशल घर पहुँचने की खबर का इंतजार है. रेबाधर दादा बताते हैं कि आमा घर पहुँच गई होगी, निश्चिंत रहो. ऐसा-वैसा कुछ गलत होता तो अभी तक आफत आ जाती. वे सही कह रहे हैं लेकिन मैं समझूँ तब न !
ऐसा वैसा या कुछ गलत से मतलब यही है कि गुरघटिया में बाड़ आई है और पार करने में आमा कहीं बग (बह)गई हो. बाकी आमा तो बाघ से भी लड़ चुकी है. रात्रि चर्चा में अब मेरी समझ आया कि ये लोग क्यों कह रहे होंगे- गरुँ-बुड़ि त आजि ले आ्ग-पाणिं भै. (गराऊँ की बुढ़िया तो आज भी चुस्त-फुर्त है)
(Chaukori Childhood Memoir by Gyan Pant)
चाची नहा धोकर कब तैयार हो गई, यह तो पता नहीं लेकिन गोठ से आँगन में आए गाय, भैसों को चारा डालते हुए देखना अच्छा लगा. घर के ठीक सामने हिमालय पर सोना पिघलने लगा है. नवजात शिशु सा सूरज देखते हुए घाटियों की नींद टूटती है तो पक्षी भी अपने-अपने कामों में लग जाते हैं. थोड़ी देर बाद सूरज जब पंचाचूली की तरफ मुड़ेगा तो डानों-कानों में भी दिन की शुरुआत हो जाएगी.
चौकोड़ी की भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है कि सूरज सीधे संवाद में आ जाता है. लगता है जैसे गले लगा ही लेगा. धीरे-धीरे उसका बड़ा हो जाना “ग्वें” (घुटनों बल बच्चे का चलना ) लगाने जैसा है. मन भर-भर कर सोने का हिमालय देखता हूँ तो चाची जाने क्या सोचकर बोलतीं हैं- तु ययीं रै जा च्याला! पछा जायै, रेबाधर ज्यू आफि जानीं. पा्ख (छत) में बटी ब्याव-ब्यावा टैम में और्री जै देखींनी सूर्जनरैण. फिर आऊँगा, कहते ही ध्यान टूटता है. और लोग भी जग गये हैं. भीतर कोने में तिपाई पर चढ़ी केतली की आवाज बता रही है कि पानी खौल गया है. अभी चाय की तैयारी है, बाद में नहायेंगे.
चौकोड़ी में बगल वाले घर के बरामदे में बैठे बुजुर्ग सज्जन परिचित से लगते हैं. मैं आँखें चुराकर कई बार देख चुका हूँ और पैर छूकर नमस्कार कहता हूँ तो चश्मा चढ़ाते हुए कहते हैं- जी रया, मैलि पच्छयाँण न्हाँत्ये? आँख् ले कमजोर है गियीं, सुदारण छन. आप बीर सिंह मास्साब हैं. आपने मुझे चार में घुसी स्कूल में पढ़ाया है. तो उन्हें याद आता है.
अरे तुम लखनौ बटी आछा तब, तीन पास करि बेरि. खूब पढ़िया लेखिया, ठुल मैंस बणिंया. और भी न जाने क्या-क्या आशीष दी लेकिन मैं, बना वही जो मुझे बनना था. बहुत समय नहीं हुआ, तीन साल ही हुए थे स्कूल छोड़े हुए. मैं क्या देता, बड़बाज्यू जैसे टीचर को? चलते समय आमा ने पिठ्या लगाते हुए हाथ चपाई में दस रुपये दिए थे.. पैर छूकर वही मैंने हाथ में रखते हुए कहा कि मास्साब जी, आप मिठाई खा लीजिएगा. अगली बार आपके लिए रेवड़ी लाऊँगा. उधर दादा कह रहे थे कि बड़ा फसकी हो गया है मुन्ना, पहाड़ आकर. शायद उन्होंने पैसा देते हुए देख लिया था.
(Chaukori Childhood Memoir by Gyan Pant)
बात हो रही थी कि गंगोलीहाट वाली केमो, वैसे तो ठीक टैम पर आती है मगर. रयाँगर में कईं कन्याल सैप ‘लि डाक दिंण में देर करि दे त फिर के बा्ट नि भै. पार्टी-सार्टी वा्ल भै, रात देर है गियी त रत्तै नींन कां टुटनेर भै पैं. यो मामुल में देबीनगर वा्ल चरणदज्यू ठीक छन. थैल तैयार करि बेरि राती में सड़का्क किना्र गणेश’कि दुकान में पुजै दिनी. रत्तै गाड़ि टिप ल्ही जनेर भै. आज देखौ धैं, कस हुँ पैं.
आज गाड़ी समय पर आ रही थी क्योंकि साहगराऊँ बैंड पर मास्साब की नजर पड़ी तो उन्होंने बताया था- पंडिज्यू, भलि किस्मत छ. आ्ब हल्द्वाणी टैम पर पुजि जाला और दस पन्द्रह मिनट में प्वाँ-प्वाँ करती गाड़ी में हम बैठ गए थे. जुगाड़ तब भी चलता था. बेरीनाग में जमनाज्यू को चौकोड़ी वाले चाचा ने खबर की थी कि दो सीट रुकवा देना, यहाँ से लोग जायेंगे. घर जैसी औपचारिकताएं यहाँ भी हुईं. अक्षत, पिठ्या, सर में फूल, भौत कै-भौत कै. पीछे मुड़कर देखता हूँ तो आँखों की दूरी तक सूरज का कब्जा हो चुका है और सड़क के बराबर में पहाड़ चढ़ती-उतरती घस्यारिनों के झुंड के झुंड रास्ते भर मिलते रहते हैं. आदमी का कहीं पता नहीं चलता कि जिंदा है या मरा है.
(Chaukori Childhood Memoir by Gyan Pant)
पिछली कड़ी: शहर लौटने से पहले आमा और पोते के मन का उड़भाट
मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं . वर्तमान में लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पंत समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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