प्रो. मृगेश पाण्डे

‘चले साथ पहाड़’ अरुण कुकसाल की नई किताब

इस दुनिया को बेहतर और जीवंत बनाने की पहल करने वाला वाला निश्चित ही एक घुमक्कड़ रहा होगा. भारी भरकम बंद किताबों में ठूँसे गए गरिष्ठ ज्ञान-ध्यान से कहीं अधिक रोचकता और अपनेपन का अहसास घुमक्कड़ों के पद चाप से मिलता है. घुमक्कड़ तो जहां है, जैसा है, उसी में रम कर, उसके जैसा ही बन कर,परम आनंद की अनुभूति प्राप्त करता है.
(Chale Saath Pahad)

चलते चले जाने पहाड़ को शिखरों तक छू लेने के प्रयासों के साथ रास्तों पड़ावों में लोग बागों से उस हकीकत का एहसास करना भी जरुरी है जिनसे यात्रा को संवाद का बहाना मिलता है और पता चलता है कि आखिरकार हालात हैं क्या? किस किस्म के बदलाव को झेल रहा है पहाड़. ऐसे ही चलते चलाते एक किस्सा सुना रहे हैं सज्जन सिंह कि पीठसैंण में जहां से गैरसैण बस पंद्रह कि. मी. दूर है. वहाँ मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी सन 2005 में जब आए तो खूब आवभगत हुई. रंगारंग कार्यक्रमों की धूम मची. अचानक ही एक बच्चे पर वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पहाड़ी देबता के रूप में औतार ले लिया. पूछने लगा जोर-जोर से कि “क्यों नहीं बनाई उत्तराखंड की राजधानी ‘गैरसैण’? बता क्यों बर्बाद कर रहे हो पहाड़ को शराब और खनन से? बच्चों का रोजगार कहाँ है? लोग बीमार हैं, तुम मज़े कर रहे हो. शर्म नहीं आती. और भी भोंत भोंकुछ बोला. सारा सरकारी अमला हकड़क हो गया. किसी तरह बड़ी मुश्किल से धूप-पिठाईँ दे उसे चुप कराया गया. मुख्यमंत्री तो हुए बड़े होशियार. पूरे टैम नतमस्तक हो कहते रहे, “सब्ब है जाल, सब्ब है जाल”

सवाल उभरता है कि अगर राजधानी गैरसैण बनती है तो क्या यह इलाका तरक्की करेगा. तो बुजुर्ग दुकानदार गंगा दत्त पपनोई मानते हैं कि राजधानी बनने और क्षेत्र के विकास का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है. राजधानी में तो चतुर और चलाक ही रह सकता है. मेरी मानो तो राजधानी देहरादून से हटा कर दिल्ली में बना दो. क्योंकि जब दिल्ली की ही हुकूमत ने सब कुछ करना है तो देहरादून राजधानी का क्या औचित्य है? साहब, पहाड़ देखने में सुन्दर लगते हैं, परन्तु उनमें रहना उतना ही विकट होता है. बाहर से यहाँ आने वाला हमेशा भिड़-भिड़ाट ही करेगा. यहाँ हम जैसे लोग ही पहाड़ की विकटता के साथ-साथ खुश हो कर रह सकते हैं.

यात्राओं को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानते अरुण कुकसाल की लेखनी पहाड़ में ऐसे दौड़ लगाती है और पाठक का ऐसा साथ करती है, जैसे दोनों हमजोली हैं. अंतहीन मंजिलों के अनंत पड़ाव “चले साथ पहाड़” में दस यात्राएं हैं इनमें पहली यात्रा सुन्दरढूँगा ग्लेशियर को किए बीस बरस गुजर गए पर वहाँ के आखिरी आबादी वाले गाँव जातोली में अभी भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से लोग वंचित हैं. दानपुर का सफर वहाँ के बाशिँदों के दुख दर्द को बयां करता है. सर-बड़ियाड को जाते पहाड़ के जनजीवन की जीवटता और संघर्ष की झलक दिखाई देती है. श्रीनगर से रानीखेत और अल्मोड़ा जाते गढ़वाल और कुमाऊं की आपसी साझी संस्कृति के दर्शन होते हैं. मध्यमहेश्वर, कार्तिक स्वामी, तुंगनाथ और रुद्रनाथ यात्रा अनजाने पर यह खूबसूरत तीर्थ स्थानों की ओर ले जाती है. वहीं जून, 2013 को केदारघाटी की भयावह आपदा के पारास्थितिकीय बदलावों को उनके द्वारा की गई केदारनाथ यात्रा से सामने रख देती है.
(Chale Saath Pahad)

मन्दाकिनी घाटी को जाते ऊखीमठ के छोर पर रांसी गाँव में राणा होटल का कमरा देने से पहले ही उसके मालिक दिलीप सिंह खुल्ला बोल देते हैं कि यहाँ दारु नहीं चलेगी. डी एम साब बड़े सख्त हैं. उन तक हर बात मुबैल पर पहुँच जाती है तो लेने के देने पड़ गए समझो. अब खुद साफ करने लग गए डी.एम. साब गधेरे को. कोई बोल पड़ा, आप रहने दो हम कर लेंगे तो भड़क गए साब. बोले,’ऐसा था तो पहले क्यों नहीं किया’? ऐसे अधिकारी हो जाएँ सब तो उत्तराखंड एक दिन में सुधर जाये. फिर नेताओं की क्या जरुरत है यहाँ. नेता लोग तो बोझ हैं बोझ.

रांसी गाँव में हर परिवार से सेना में कोई न कोई है. वैसे खेती और पशुपालन होता रहा है. सड़क भी पहुँच गई पर रोजगार नहीं. गाँव के डेढ़ सौ में अट्ठाइस मवासे उत्तराखंड बनने के बाद इसी सड़क से बाहर सरक गए हैं. राणा जी गाँव की कथा बांचते अब खिन्न और लाचार से हैं, “सरकार मदद नहीं करती और नौजवान पुश्तेनी काम में मेहनत नहीं करना चाहते. हमने भी क्या करना तब? जिंदगी भौत कट गई थोड़ी बची है, वो भी कट ही जाएगी. आगे की आगे वाले ही जानें. आगे चलते अंतिम गाँव गौंडार है जहां सड़क नहीं पहुंची है.कहने को ये भी आत्म निर्भर गाँव है पर सड़क न पहुँचने से स्वास्थय और शिक्षा में फ़िसड्डी ही रह गया है. इसी गाँव के रमेश का कहना है कि आलवेदर रोड के लिए तो हजारों पेड़ रातों रात कट गए. यहाँ हमको पर्यावरण बचाओ का जिम्मा थोप दिया गया है. जरा कुछ दिन इस गाँव में आ कर दिखाओ तो ओ दिल्ली वालो! तुम्हारा पर्यावरण बचाओ का नारा हवा हो जाएगा.

गोंडार गाँव के फते सिंह बहुत कुछ बता रहे हैं. साल के छह महिने वह यहाँ होटल चलाते हैं और पहाड़ी घी का भी कारबार करते हैं. पचास हज़ार तक की बचत कर लेते हैं उनका बेटा बी. ए. कर रहा. सेना में भरती होने के लिए कर्नल अजय कोठियाल के यूथ फाउंडेशन का तीन महिने का कोर्स भी कर लिया है. अभी तक इससे इलाके के 20 लड़के तो भरती हो ही चुके हैं.आगे तीखी चढ़ाई वाला खंडारा चट्टी का रास्ता है. रास्ते में मोबाइल में झुकी रूचि पंवार है जो बारहवीं में पढ़ती है और मिलिट्री में जाने की तैयारी भी कर रही है . सामने के ढलान पर उसके जानवर चर रहे हैं.मध्य महेश्वर से चार कि. मी पहले मैखम्बा है. पीछे छूट गए तीस किलोमीटर तक कोई बीमार पड़ जाय तो बस भगवान ही उसे बचा सकता है. प्राथमिक इलाज तक नहीं है. प्रकृति ने जितनी खूबसूरत जगहें यहाँ दीं हैं उतनी ही बदहाल व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार यहाँ का शासन -प्रशासन है.मध्य महेश्वर का पूरा इलाका वन विभाग का है. पंद्रह परिवारों की अस्थायी बसासत में आठ परिवार दूध से घी बना बेचते हैं. खूब जड़ी बूटी वाली घास है यहाँ. सीता राम बहुगुणा बता रहे कि इनके गोमूत्र का धंधा भी चल सकता है. सामने चौक में एक बुजुर्ग दंपत्ति के पास दस बारह बच्चे धमा चौकड़ी मचा रहे.बच्चों से क्या कर रहे पूछने पर एक जोर से बोलता है, “हमन त दिन-भर अटगण च”. मतलब कि हमने तो दिन भर दौड़ना-भागना है. ये बुजुर्ग बच्चों की दौड़भाग में रमे दिखते हैं. पता चला दो जवान बेटे जून 2013 में आई केदारनाथ आपदा में काल कलवित हो गए थे. अब बच्चों की चिल्ल-पौँ के बीच उनकी खिलखिलाती हंसी उन्हें मरहम सी लग रही होगी.
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पौड़ी से चले करीब नब्बे किलो मीटर की दूरी पर कत्यूरी राजाओं के गाँव कैन्यूर तक के सफर में न तो कोई टूटा घर-इमारत-खंडहर दिखता है और न कहीं बंजर धरती या छूटे हुए खेत. सब लोगबाग अपने कामों में जुटे पड़े हैं. न कैरम खेलते युवा, न ताश की गड्डी फैँटते सयाने. क्या ये पहाड़ी पहचान के बिलकुल विपरीत सी बात नहीं है? इसकी बड़ी सीधी सरल सी वजह है कि जंगल और लोगों के बीच रिश्ते यहाँ बड़े सहज और जीवंत होंगे. उनमें वो अलगाव नहीं पनपा दिखता जो शहरों में पसरा है. जंगलों की सघनता ने लोगों के पुश्तेनी कामों को कमजोर नहीं होने दिया. जंगलों में जंगली जानवरों का राज है तो खेत-खलिहानों में मानवोँ का. तभी चौरिंखाल का दुकानदार कह रहा था कि बाघ तो हमारा दोस्त है. क्या यह वजह काफी नहीं, ये समझने को कि बाघ और स्थानीय आदमी के रास्ते और जरूरतों में टकराहट की गुंजाईश दूधातोली इलाके में तो बहुत कम है.

गढ़वाल के दोसान्त इलाके से कुमाऊं में प्रवेश का पहला ग्रामीण क़स्बा है देघाट जिसकी घाटी की पहाड़ियों के आसपास छम छम चमकते गावों की झालर है. आज चैत की अष्टमी का मेला है तो बाजार सजा है. मंदिर की ओर जाते लोग, सजी धजी रंग बिरंगे वस्त्रों में ग्रामीण औरतें, कूदते फाँदते बच्चे. हर किसी के हाथ में पीँ-पीँ बजती पीँपरी. आगे स्याल्दे में तो और ज्यादा भीड़, धक्का-मुक्की. जीपनुमा टैक्सीयों की करकश पौँ-पौँ के बीच बच्चों के पिपरी बाजे की पूँ-पूँ आवाज दब सी गई है. मेले के इंतज़ाम को सँभालने वाले थोड़े से होमगार्ड के जवान भी हैं. पूछना बनता है न कि भई आप लोग मेला देखने आए हो या उसमें व्यवस्था करने. तो जवाब बड़ा सटीक है कि दाज्यू, ये मेले की भीड़ अपनी व्यवस्था अपने आप बना लेगी. कोई बड़ा नेता और अधिकारी तो आ नहीं रहा मेले में. उनके आने से ही भीड़-भगदड़ बनती है.

रानीखेत पहुँच गए हैं. उमेश डोभाल के स्मृति समारोह में शिरकत करनी है. जुलूस में शामिल हैं मित्र लोग. मेन बाजार के दोनों तरफ की दुकानों के बीच दिखते चलते लोगों में बस ‘मामला क्या है?’ वाली उत्सुकता है. एक सज्जन अपने साथी को बता रहे हैं, “उमेश डोभाल वाले पत्रकारों का जुलूस है. हमारे काफिले से नारा गूँजता है, “शराब माफिया हो बर्बाद -हो बर्बाद”, “शराब माफिया तेरी क़ब्र बनेगी, उत्तराखंड की धरती पर”. जुलूस में शामिल लोगों की नजरें इस नारेबाजी के साथ वाइन शॉप के बाहर लटकी लिस्ट पर फिसल-फिसल जाती है जिसमें आग्रह है, “शराब की कीमतों में भारी कमी.”
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इसी रानीखेत से बी. ए. किया था. तब पहले के ब्रिटिश कालीन और फिर पंचायत के डाक बंगलो में महाविद्यालय था. आज यह भवन राजकीय खाद्यान्न भंडार बना दिया गया है. इस बार सुबह-सुबह घूमते हुए इस महाविद्यालय के गेहूं-चावल ठुँसे कमरों में अँग्रेजी-अर्थशास्त्र की कक्षाएं ढूंढ रहा हूँ. फिर झूलादेवी मंदिर का दर्शन और फिर चौबटिया गार्डन. आगे भड़गांव तक पहले सेब, आड़ू, पुलम के बाग थे. अब यह बीते दिनों की बात है. उद्यान विकास को प्रमुख आर्थिकी मानने वाली सरकार इस उजड़े चमन को देखने का साहस करेगी भी तो कैसे ? सरकारी नालायकी ने हमारे परंपरागत हुनर और हौसले को रसातल में ही पहुंचाया है.

रानीखेत से श्रीनगर की वापसी में कालिका का गोल्फ मैदान देखते हैं. इसे दुनिया का बेहतरीन गोल्फ मैदान माना जाता है. एक दम सुरक्षित तार बाड़ से घिरा और सेना के संतरी की ड्यूटी. इसके भीतर कदम रखते ही कड़क आवाज झस्का देती है, ‘ए सिविलियन, तुरंत बाहर भागो.’ अब द्वाराहाट की ओर चल पड़े हैं जिसे मानसखंड में हिमालय की द्वारिका कहा गया. न जाने कितनों के दिल में यहाँ का लोकगीत “ओ भिना कसके जनूँ द्वरहटा “अभी भी ताजगी बिखेरता रहता है. इसी द्वाराहाट के एक तरफ एशिया की सबसे सुन्दर सोमेश्वर घाटी है तो परली ओर चौखुटिया जिसका पुल पार करते ही पड़ता है गनाई. कुमाऊं की प्रेमगाथा ‘राजुला मालूशाही’ का कथानक इसी वैराट गढ़ में जीवंत हुआ था. यहीं है अग्नेरी देवी मंदिर इस प्रणय गाथा की प्रत्यक्ष दर्शी. आगे जाते जाते सड़क के किनारे एक कश्मीरी युवक गड्ढा खोदते दिखता है. गड्ढा किस काम के लिए खोद रहे हो भई? पूछने पर गैंती की जबरदस्त चोट खुदे गड्ढे पर मारते बोलता है,’ पता नहीं जी, हमें तो खोदने को कहा है.

चौखुटिया से आगे पंडुवाखाल है, आधा कुमाऊं में और आधा गढ़वाल में. सड़क किनारे की दो दुकानें, दायीं तरफ ‘संगीला एजेंसी’ कुमाऊं में,तो बायीं ओर ‘मोहित जनरल स्टोर’गढ़वाल में. दोनों दुकानों के प्रोपाइटर को उनकी जमीन पर अगल बगल खड़ा कर फोटो खींचने में लोग बाग इस दोस्ताना सम्बन्ध की दुहाई पर तालियां बजा रहे है. पंडुवाखाल से आगे मेहलचौँरी और फिर है गैरसैण. इसे गढ़वाल के प्राचीन गढ़ों में लोहबागढ़ कहा गया. अभी लोहबा पट्टी या गैड़ गाँव का सैंण वाला भाग गैरसैण है जिसके चारों ओर बांज, बुरांश,अतीस, चीड़, देवदार के घने वनों के साथ खेती और पशुपालन की सम्पन्नता है. यह भू-भाग एक सांझी सांस्कृतिक विरासत है जहां पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा जनपद की सीमाएं एक दूसरे का आलिंगन करती हैं. गैरसैण के पास भराड़ी सेंण में विधान भवन बना है. आज हम यहाँ हैं तभी विधान सभा सत्र के लिए तथाकथित माननीय भी पधारे हैं.वहीं रामलीला मैदान में गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाने के लिए लोग धरने पर बैठे हैं. पर सरकार है कि अपने मुंह, आँख, कान बंद कर उनकी बात सुनने को राजी नहीं. गैरसेंण से दिवालीखाल कि ओर चले तो पता चला कि आज के विधानसभा सत्र को हाफ डे करके पूरी सरकार देहरादून की ओर फर्राटे मारते हुए चंपत हो गई है.
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रुद्रप्रयाग जाते चोपता से घिमतोली पहुँचते दिखता ये पूरा कार्तिकेय इलाका स्थानीय उत्पाद आलू, सेब, चुआ और जड़ी-बूटी के लिए जाना पहचाना रहा तो वैद्य विद्या और ज्योतिष के लिए विख्यात. सुना यहीं सरकारी उद्यान फार्म है. दुकानदार से पूछा तो वह तुनक गया. बोला ‘किसका सरकारी फार्म? वह तो सरकार कब का किसी प्राइवेट को बेच चुकी. कब से सुनते थे कि वहाँ जड़ी-बूटी उगेंगी. पर हमने तो उसे बंजर होते ही देखा है. सरकार का जो काम है वो तो उससे होता नहीं, हम पहाड़ियों के पैतृक व्यवसाय जरूर हड़पे जा रहे. अब चारधाम के मंदिरों का सीधा संचालन कर सरकार का काम भजन करना ही तो रहगया है. बात बदलने के फेर में पूछता हूँ, ‘यहाँ लोकल क्या बिकता है’ ?तो जवाब बड़ा कड़क है, ‘आदमी बिकता है साब आदमी, आदमी सस्ता और चीजें महंगी. बाकी क्या है यहाँ बेचने को. बस थोड़ा बहुत मडुआ, झिंगोरा, मोटी दाल, आलू की अपने खाने लायक खेती हुई हमारी. वो भी तब जब जंगली जानवरों की खौफनाक नज़रों से बच जाएँ तब’.

ऊपर कार्तिक स्वामी मंदिर जाते महिला के साथ एक बच्चा और उसके साथ कुत्ता दिखते हैं. बच्चे से पूछा कि कुत्ते का नाम क्या है तो बोला “बर्फी “और तुम्हारा नाम ? वो बोला,’दिल बहादुर’. तो कौन सी क्लास में पढ़ते हो? अब जवाब महिला दे रही है, ‘यहाँ कहाँ स्कूल? इसके मां-बाप तो ऊपर मंदिर में मजदूरी करने गए. मेरे भरोसे इसे छोड़ गए. सोचता हूँ कि हम उस राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा हैं जो ने जाने कितने दिल बहादुरों को उसके स्कूल जाने के मूल अधिकार से वंचित किए है. देखता हूँ सिमटे पहाड़ के सिर पर भीमकाय चट्टानें मज़े से चुपचाप खड़ी हैं. चट्टानों को काट काट चलने के लिए सीढ़ियां बनी हैं. पास वाली चट्टान से नेपाली श्रमिक पत्थर निकाल कर उनके भारी बोझ के साथ बेखौफ़ आ जा रहे हैं. सोच रहा हूँ रास्ते में मिले दिल बहादुर के मां बाप भी इन्हीं मजदूरों में हो कर भगवान के मंदिर को सुन्दर बनाने के लिए मजदूरी कर रहे हैं. दूसरी तरफ वो बच्चा आने वाले समय में किसी और मंदिर को बनाने के लिए मजदूर बनने की तैयारी कर रहा है. सरकार और समाज का जनकल्याणकारी चेहरा यहाँ ज्यादा फीका नजर आता है.

ऊपर शिव के रौद्र रूप रुद्रनाथ जाते तेज जीप भगाते पांडे जी का अनवरत बोलना जारी है. ‘हमारे राज्य की जनता सरकार को केवल शराब, खनन और मास्टरों के लिए ही चुनती है क्या?’ हम लोगों ने अपनी खुशी से अपना नुकसान कराया. तब तो कहते थे कि ‘आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज दो’. अब कहने को अपना राज है पर जब जनता के पास खाणे-कमाणे के लिए कुछ होता नहीं तो क्या करना ऐसे राज का? राज क्या पहाड़ के शरीर पर खाज हो गया है. खुजाओ तो अच्छा लगता है, न खुजाओ तो बेचैनी. इसे ठीक करने की दवा किसी के पास नहीं है.
(Chale Saath Pahad)

पैसे वाले पहाड़ से बाहर चले गए, जिनको अपनी पढ़ाई के अनुरूप रोजगार नहीं मिला वो भी बाहर गए. जो इन दोनों से लाचार हैं, वही पहाड़ में रह रहा है. ऐसा है क्या? मन में विचार आया तो दिमाग बोला- चुपचाप चढ़ाई चढ़ो. इस समय सोचो मत वरना और थक जाओगे.

आगे यात्रा ‘दरियादिल दानूपुर है जिसमें ‘बहुत कुछ खोने और ढोने की कश्मकश के बीच बचे हुए थोड़े से में जो थोड़ा कुछ बचा है जैसी आस को संजोती खष्टी दानू से भेंट होती है. वह रोजाना लम्बी तीखी चढ़ाई चढ़ अपने दर्जा आठ तक के बच्चों के साथ इस लम्बे रास्ते में जंगली जानवरों के डर, भूख, प्यास, थकान, बारिश, गर्मी, जाड़े को झेलती स्कूल पहुँचती है. एक हाईस्कूल हो जाय तो लड़कों से ज्यादा लड़कियों का भला हो जाय सोचती है और भ्रमण पर आए सांसद जी से इस बात को जोर दे कर कहने का दम भी रखती है. ‘यहाँ फिर तुरंत इंटर कॉलेज खुल जाये और आई. टी. आई. भी. लड़कों को तो कहीं भी भेज देते हैं धरवाले पर लड़कियों के कपाल में तो बस शादी और घर गृहस्थी का बोझा है’. बच्चियों को जीवन के हौसले और हुनर को तलाशने के मौके कब मिलेंगे वाली सोच यक्ष प्रश्न ही बन कर रह जाती है.

पिंडर नदी के आर-पार बन रहा पुल पूरा होने से पहले ही धराशायी दिखता है. नदी के ऊपर लटके नये पुल को सीधा करने के फेर में जे सी बी की ऐसी ढसाग लगी कि सब हवा-हवाई हो गया. अब बिना पुल बने तो सड़क भी कैसे चले?

दानपुर इलाके में मल्ला गाँव से रिटंग तक बांज, बुरांश, अखरोट, आड़ू, नाशपाती के साथ थुनेर, तेजपत्ता, अतीस, जटामासी, कुटकी, सलाम मिश्री, भाँग की भरमार है. खेतों में मंडुआ, मारसा और बारहनाजी फसलें खूब होती हैं. बेशकीमती जड़ी बूटियां कदम कदम पर हैं. गाँव के लोगों को जड़ी बूटी की खेती समझाने के वास्ते पिंडर नदी पार धाकुड़ी से खरकिया तक हर्बल गार्डन विकसित किया गया है. उधर कहीं सड़क का सर्वे हो चुका है कहीं बिजली आने की बात है. यह सवाल करने पर कि सड़क आने से जड़ी बूटियों को तो बड़ा नुकसान होगा. पर्यटक तमाम प्लास्टिक, कूड़ा कचरा तो फैलाते ही हैं तय पगडंडियों से इधर उधर चल दुर्लभ प्रजातियों को रोंद कुचल देते हैं. जवाबों में कुछ ऐसे स्वर भी हैं कि अगर यहाँ सड़कें आईं तभी जीवन की सांसों को आराम मिलेगा. यहाँ तो अब तक का जीवन आने जाने में ही खर्च हो गया. राशन और बीमारी में इलाज की तकलीफ क्या कम बड़ी है? अब आप लोग तो पहाड़ों को देखते हैं और हम इनमें रहते हैं. किसी सुविधा से अनछुवे ये पेड़ पहाड़ आपको देखने में बड़े सुन्दर लगेंगे पर जब जनम ही इनमें काटना हो तब यहाँ की धरोहर को बचाने का आपका विचार बस विचार योग्य ही रह जाता है.
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कपकोट ब्लाक के 100 स्कूलों में 20 गाँधी फेलो जो शहरों में पले-बढ़े उच्च शिक्षित हैं अब गाँव की मूलभूत जरूरतों, समस्याओं, अपेक्षाओं और समाधान तलाशने निकले हैं. ये गाँव के घर-परिवारों में उनकी ही जीवन शैली और दिनचर्या को अपनाये हर काम-काज में सहभागी रहते हैं. कोशिश यह भी कि कुमाउनी ही बोली जाय. गाँधी वादी विचार धारा यही सोच रखती थी कि जिस समस्या का समाधान निकालना हो पहले उसी में जी उसे भोग, उन कष्ट परेशानियों को सहना पड़ेगा जिनका निदान चाहिए. यहीं बागेश्वर के पतियासार में हीरा सिंह टाकुली मासाब ने यहीं के स्कूलों में पढ़ाते नौकरी पूरी की अब उसी लगन से गाँव की समस्याओं को सुलझाने में लगे पड़े हैं. देवलचौरा गाँव के प्रकाशराम हैं, कद छोटा है दिखता भी कम है पर पूरे गाँव-बाजार की ऐसी सुरक्षा कि उनका नाम ही ब्रिगेडियर पड़ गया. अपने छोटे कद की वजह से पेंशन लेने वाले भी वह राज्य में अकेले हैं. बड़े खुशनुमा जो अपनी जिंदगी के कष्टों और अभावों को -“परे हट जा, मुझे तो मस्ती में जीने दे “के जज़्बे से छिटका खुशनुमा माहौल बनाए रखते हैं. और भी होंगे ऐसे बहुत सारे इन पहाड़ों में जिनसे अहा जिंदगी के भाव -राग ताल निकलते हैं.

उमला गाँव में मुलायम घास पर चलते भेड़-बकरियों की लम्बी कतार. गाय भी, मोटा झबरा काला कुत्ता और छोटा भाई भी. नाम पूछा तो खित्त कर सकुचा गई. अब उसकी पढ़ाई लिखाई बस इसी धार पर चलना. घास काटना. जानवरों की देखभाल. लकड़ी लाना, पानी भरना में उलझी है. उसके बापू पीडब्लूडी की लेबरी करते हैं और ईजा खेती बाड़ी में घिरी रहती है. अपनी भेड़ों के नये जन्मे बच्चों के नाम उसने गप्पू, चूनी, मूनी, ताबी, गैणी, मुस्ती,नानू रख छोड़े हैं. विदा लेते पहाड़ी धार से पीछे देखता हूँ भाई बहिन को. दोनों के हाथ हवा में डोल रहे हैं.

कठुलिया बुग्याल से वापसी का सफर है. सुन्दरढूँगा इलाके का शांत, सीधा साधा जन जीवन जहां अभी ज्यादा लोगों का आना जाना भी नहीं हुआ है पर जो भी आए उनके द्वारा फ़ेंक दिए पॉलिथीन बैग, कपड़े, कागज, चॉकलेट-टॉफ़ी के रैपर, खाली टीन के डब्बे वाला सामूहिक कचरा बढ़ते जा रहा है.खूबसूरत पेड़ों, पत्थरों और दीवारों पर खुरच कर अपने को अमर करने के भ्रम से नाम -पते गोद दिए गए हैं. बढ़ती सुविधाओं के साथ बढ़ते यात्रियों और यात्रा के बदलते रंग-ढंग के प्रति भी सचेत रहने की जरुरत है.

उच्च धार्मिक आस्था के कई स्थल जब पर्यटक केंद्र के रूप में उभरने लगेंगे तो लोगों की चिंता और चिंतन उसकी प्राचीन तीर्थ यात्रा की पहचान को बनाए रखने के प्रति भी होनी स्वाभाविक है. जो दिख रहा है वह तो बड़ा कुरूप परिदृश्य है. बेशर्मी से रास्तों के किनारे, पानी के स्त्रोतों के पास किया गया मल त्याग. भोजपत्र और रिंगाल के तोड़े मरोड़े पेड़ और बुग्याल पर चल-चल कर बना डी गईं आड़ी तिरछी पगडंडियां जिन पर हजारों फूलों ने खिलने से पहले ही दम तोड़ दिया है. अब ये हम पर ही निर्भर करता है कि कि हम प्रकृति को उसकी नैसर्गिक सुंदरता बनाए रखते हुए या उस पर अपने भोंढ़ेपन के निशानों की छाप के साथ उसे अपनी अगली पीढ़ी को सौपते हैं.
(Chale Saath Pahad)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.

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