पहाड़ ने भी खूब संवारा लखनऊ का चेहरा
किसी भी नगर की सबसे पहली पहचान उसकी नागरिक सुविधाओं से बनती है. लखनऊ अब एक बड़ा महानगर है. सन 1947 में यह छोटा-सा नगर था. इसका प्रबंध नगर पालिका करती थी जिसकी आर्थिक हालत बड़ी खस्ता थी. कुछ... Read more
परदेस को चिठ्ठी लिखने का भी कोई कायदा होता होगा. बाबू ने ही तो कहा था – “दुःख में जो-जो मुंह से निकला सब लिख देना हुआ क्या?” फिर तो परदेस में चिठ्ठी बांचने का भी कोई कायदा... Read more
नंद कुमार उप्रेती : एक आम पहाड़ी का खास किस्सा
उप्रेतीखाल, पाँखू, पिथौरागढ़ में 1930 में जन्मे नंद कुमार उप्रेती की कहानी एक सामान्य पहाड़ी आदमी का उस जमाने का लगभग आम मगर खास किस्सा है. एक गरीब परिवार में जन्म और बचपन में ही शहरों की ओर... Read more
तो, नित्यानंद मैठाणी जी भी चले गए. 14 सितम्बर, 2020 की रात 86 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका निधन हो गया. कोई दस दिन पहले उनसे बात हुई थी. आवाज बहुत क्षीण थी. हाल में उन्होंने अपना बेटा खो द... Read more
जब गिर्दा ने अपनी गठरी चुराने वाले को अपनी घड़ी देकर कहा – यार मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है
गिर्दा में अजीब सा फक्कड़पन था. वह हमेशा वर्तमान में रहते थे, भूत उनके मन मस्तिक में रहता था और नजरें हमेशा भविष्य पर. बावजूद वह भविष्य के प्रति बेफिक्र थे. वह जैसे विद्रोही बाहर से थे कमोबे... Read more
उत्तराखण्ड के महान संगीतज्ञ केशव अनुरागी
सल्लाम वाले कुमत्यारा वे गौड़ गाजिना, सल्लाम वाले कुमम्यारा मियां रतना गाज़ी, सल्लाम वाले कुमतेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम…केशव ‘अनुरागी’ का स्मरण होते ही कानों में सम्मोहित कर देने व... Read more
आकाशवाणी के कार्यक्रम उत्तरायण को पहाड़ियों की सांस्कृतिक धड़कन बनाने वाले बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ : पुण्यतिथि विशेष
कोई 30-31 वर्ष तक आकाशवाणी के शॉर्ट वेव 61.48 यानी 4480 किलोहर्ट्ज पर रोज शाम सुदूर पर्वतीय अंचल (उत्तराखण्ड) के श्रोता ठीक शाम 5.45 बजे सुनते थे दो सुपरिचित आवाजें –उत्तरायण का श्रोता... Read more
सन् 1971 में जब मैंने हाईस्कूल पास किया तब अंग्रेजी पाठ्य पुस्तक में सरोजनी नायडू की एक कविता थी- ‘वीवर्स’ यानि बुनकर. कवियित्री बुनकरों से पूछती है- यह प्यारा-सा कपड़ा किसके लिए बुन रहे हो?... Read more
लाल मकान वाली हेमा
“उत्तरायण” कार्यक्रम में एक–दो बार उन्हें देखा होगा जब कभी वे लोक वार्ता बांचने आतीं लेकिन ठीक से मुलाकात की याद “आंखर” संस्था का गठन होने के बाद की है- 1977-78 के आस-पास. हम कुमाऊंनी नाटकों... Read more
चेहरों पर पहाड़ का दर्द उकेरता कलाकार
सन 1977 में जब मैंने ‘स्वतंत्र भारत’ से पत्रकारिता की शुरुआत की तो साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचियों के कारण साहित्य, रंगमंच और कला जगत के सक्रिय लोगों से परिचय शुरू हुआ. अपने वरिष्ठ साथी प्रमोद... Read more