क्रिकेट के पुछल्लों के कारनामे
ऐसा कई बार हुआ है कि बोलिंग टीम सामने वाली के छक्के छुड़ा कर शुरुआती छः-सात विकेट सस्ते में निबटा लेती है, लेकिन पीछे वाले बल्लेबाज़ यानी टेल एन्डर्स भले भले गेंदबाज़ों की नाक में दम कर देते है... Read more
रोटी के साथ उम्मीद भी जुटानी पड़ती है
सड़क चलता कोई व्यक्ति एक्सिडेंट का शिकार हो जाए, इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं होती. लेकिन इस दुर्घटना का चौतरफा असर जब उसके जीवन पर पड़ना शुरू होता है तो वह इसे एक अलग-थलग घटना मानकर आगे नहीं... Read more
कब बन जाते हैं आदमी के दो चेहरे
इतने विशाल हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार – पंद्रहवीं क़िस्त क्या आपने इलाचंद्र जोशी के ‘प्लेंचेट’ और परामनोविज्ञान का नाम सुना है? 1965-66 के दौरान ‘धर्मयुग’ में संपादक धर्मवीर भारती ने परा-मन... Read more
कुमाऊनी लोकोक्तियाँ – 56
पिथौरागढ़ में रहने वाले बसंत कुमार भट्ट सत्तर और अस्सी के दशक में राष्ट्रीय समाचारपत्रों में ऋतुराज के उपनाम से लगातार रचनाएं करते थे. वे नैनीताल के प्रतिष्ठित विद्यालय बिड़ला विद्या मं... Read more
हम फिर से उसी थकान से भर जाते हैं
किसी को जानो तो बस इतना ही जानना कि कोई और भी दिखे तो उसके होने का भ्रम होता रहे उस गांव में दूर तक खेत फैले थे. उनके बीच कुछ रास्ते थे. कुछ सड़कें थीं. कुछ ऊंची इमारतें थीं. मौसम बिछड़ जाने क... Read more
अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 11
गुडी गुडी डेज़ (हीरामन– हीराबाई संवाद; नाम में क्या रक्खा है) अमित श्रीवास्तव हीराबाई- हीराबाई हीरामन- हीरामन हीराबाई- आह! हीरा! हम तुमको मीता कहेंगे फिर… हमारा नाम एक ही है न इसलिए हीर... Read more
कुमाऊनी लोकोक्तियाँ – 55
पिथौरागढ़ में रहने वाले बसंत कुमार भट्ट सत्तर और अस्सी के दशक में राष्ट्रीय समाचारपत्रों में ऋतुराज के उपनाम से लगातार रचनाएं करते थे. वे नैनीताल के प्रतिष्ठित विद्यालय बिड़ला विद्या मं... Read more
सर्दियों का बिनसर
सर्दियों की ऋतु हो और आप बिनसर में हों तो क्या कहने! बिनसर की शामों की सोने सी रोशनी, रात के आसमान में आकाशगंगा में तारों की बारात और सुबह का प्रफुल्लित कर देने वाला विशाल हिमालयी दृश्य, जंग... Read more
मेहमान बनने का शौक
उसे जान-पहचान में मेहमान बनने का बहुत शौक था. वह इतना भी जरूरी नहीं समझता था कि जान-पहचान बहुत गहरी हो, बस कामभर की ही सही. गाँव में इक्का-दुक्का बार आमने-सामने पड़े हों, देखा-देखी हुई हो, इत... Read more
कहो देबी, कथा कहो – 20
निर्माण के दिन वर्ष भर बाद 1970 में ‘किसान भारती’ मासिक के संपादक रमेश दत्त शर्मा के विश्वविद्यालय छोड़ देने के बाद मैं और मेरा एक साथी उसका संपादन करने लगे. कुछ समय बाद ‘किसान भारती’ के संपा... Read more