महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी
मेलोडेलिशियस-3 (पोस्ट को रुचिता तिवारी की आवाज़ में सुनें) ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़हन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद... Read more
‘माँ, महान होती है.’ ‘माँ, महान ही होती है.’ हमारी सामाजिक व्यवस्था में ये दोनों वाक्य अधूरे हैं. इसका एक तीसरा और पूरक वाक्य भी है- ‘माँ, को महान ही होना चाहिए... Read more
जानूँ जानूँ री, काहे खनके है तोरा कंगना
मेलोडेलिशियस – 2 ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़ेहन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता... Read more
देयर इज़ ऐन एक्टर हू वांट्स टू बी नोन ऐज़ ए पोएट एक दूसरा सच भी होता है जो अपराध उसके अन्वेषण और न्याय की पूरी कार्यवाही के बीच कहीं दबा हुआ होता है. इसमें व्यक्ति कभी संस्था की वजह से और अक्स... Read more
जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ
आज से हम एक नया संगीतमय कॉलम शुरू करने जा रहे हैं. यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की जुगलबंदी के रूप में होगा. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है.... Read more
हीरा-लीक्स
गुडी गुडी डेज़ अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 20 अमित श्रीवास्तव हीरामन के पास एक बक्सा था. बक्से में एक पिटारा था. पिटारे में अखबारी कतरनों का एक बंडल. बंडल पर हाथ फेरते हुए हीरा ने बता... Read more
अगर आप रो नहीं सकते तो आपको हंसने का कोई हक़ नहीं
चार्ली चैप्लिन (Charlie Chaplin) के बहाने कुछ फिल्मों के कुछ फ्रेम्स की याद एक फ्रेम है ‘सिटी लाइट्स’ मूवी में जिसमें ट्रैम्प (चार्ली चैप्लिन Charlie Chaplin) उस अंधी लड़की (वर्जी... Read more
गुडी गुडी के राष्ट्रीय प्रतीक
गुडी गुडी डेज़ अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 20 अमित श्रीवास्तव (हीरामन-स्मृति) गुडी गुडी के बारे में आपकी उत्सुकता को देखते हुए लेखक ने हीरामन से गुडी गुडी मुहल्ले के बारे में मालूमात... Read more
सस्सू की चिट्ठी
गुडी गुडी डेज़ अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 19 अमित श्रीवास्तव दुखवा कासे कहूं… बात ही बात में बस बात हुई जाती है सुबू तो होती ई नहीं रात हुई जाती है कैसे कहूं? जब से तुम्हें देखा है ज... Read more
कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है
कुछ ख़बरें इतने चुपचाप से आकर निकल जाती हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य समाज उसका नोटिस ही नहीं ले पाता. इसी तरह की एक ख़बर दो-चार दिन पहले आई और अखबार के बहुत छोटे से कॉलम में सिमट कर रह गई. ख़बर... Read more