केशव भट्ट

साठ के दशक में हिमालय अंचल की यात्रा से जुड़ी यादें

चितरंजन दासजी ने उत्तराखंड के हिमालयी तीर्थों की अपनी यायावरी यात्रा को अपनी किताब ‘शिलातीर्थ’ में बहुत ही सजीव और अद्भुत ढंग से सजोया है. 1959 में केदारनाथ और बद्रीनाथ की पैदल यात्रा में वो अपने सांथ पाठक को भी अपने सांथ ले उससे बतियाते से महसूस होते हैं. इस यायावरी किताब को पढ़ते हुए आजादी के बाद देश के हालातों के साक्षात दर्शन होते हैं. चितरंजनजी ने इस यात्रा में हर पहलू को छूंआ है, महसूस किया है और पाठकों को उस जमाने के हालातों से बखूबी रूबरू कराया है.
(Book Review Shilatirth Chittaranjan Das)

इस यायावरी बेहतरीन किताब की समीक्षा कर पाना मेरे लिए संभव ही नहीं है. समीक्षा के वजाय इसे बार-बार पढ़ते हुए मेरा इसमें डूब जाने का मन करता है. जब चितरंजन दासजी ही इस किताब को लिखने के बाद इसे अपनी सबसे बड़ी आंतरिक तृप्ति मानते हैं तो कोई कैसे उनकी यायावरी के किस्सों से भरी किताब की समीक्षा कर पाएगा. उनकी यात्रा हमें दादा-दादी, नाना-नानी के जमाने में उनके द्वारा सुनाई जाने वाली रहस्यमयी किस्से-कहानियों की तरह ही इतने मीठे ढंग से आगे रहस्यमयी हिमालयी संसार में ले जाती है कि मन के किसी गहरे कोने में ईच्छा जाग उठती है कि, ‘दादा’ से कहूं कि, ‘दादा एक बार हमें भी फिर से उस संघर्षमयी मीठे और सरल संसार में ले चलो न.. जहां काश्मीर, पंजाब, बंगाल समेत देश के सभी हिस्सों से अपने सिर में गठरी ढोते हुए हजारों तीर्थ यात्रियों का समूह यात्रा में आपस में कब प्रेममय हो जाते थे पता ही नहीं चलता था. उस वक्त में गरीबी तो थी लेकिन लोग मेहनती और बिन छल-कपट प्रेमरूपी हद्वय वाले थे.’

सदन मिश्राजी से जुड़ाव कई वर्षों से था. एक बार उन्होंने मुझे चितरंजन दासजी की पुस्तक ‘शिलातीर्थ’ दी और उसे पढ़ने का आग्रह किया. मैंने उनसे वादा किया, लेकिन मैं पुस्तक रख दूसरी व्यस्तताओं में मग्न हो लिया. एक बार मैं जब तुंगनाथ मंदिर से वापस आया तो उन्होंने मुझसे बहुत ही आत्मीयता से ‘शिलातीर्थ’ को पढ़ने को कहा कि, ‘इसमें ‘दादा’ ने तुंगनाथ की पैदल यात्रा के बारे में भी लिखा है पढ़ना जरूर…’

सदनजी की आत्मीयता से मैंने किताब में बीच के पन्ने पलट जब तुंगनाथ के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पता चला कि अब का चोपता तब चोपड़ा हुवा करता था. कुछेक पन्नों में मुझे ‘दादा’ ने अपने सांथ घसीटा तो मैंने मुख्य पृष्ठ की ओर दौड़ लगा दी. पता चला कि उनके इस किताब का यह तीसरा संस्करण है. पहले प्रकाशक ने कब अपना काम बदल दिया ‘दादा’ को पता ही नहीं चला और दूसरा प्रकाशक बकायदा उनकी किताबें बेचकर अलादीन के जिन्न की तरह गायब हो गया. बाद में ‘दादा’ के मित्र भाग्यधर साहू ने अपने ‘पथिक प्रकाशनी’ में उनकी किताबों का तीसरा संस्करण निकाला.
(Book Review Shilatirth Chittaranjan Das)

आगे पन्ने पलटे तो सदन मिश्राजी के बचपन की बातें पता चली कि किस तरह आगरा में वो मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे कि उनकी मुलाकात चितरंजन दासजी से हुवी वो भी एक डिफाल्टर के तौर पर. दासजी को जब पता चला कि सदनजी किस दौर से गुजर रहे हैं तो उन्होंने सदनजी की काफी मदद की. बाद में जब ‘दादा’ को पता चला कि सदनजी हिमालय की गोद में रहते हैं तो उनका सदनजी से जुड़ाव बड़ते चला गया. उन्होंने हिमालय देखने की ईच्छा जाहिर की तो सदनजी खुश हो लिए. ‘दादा’ ने एक्जाम के बाद पेपरों का काम निपटाया और सदनजी के सांथ उनके गांव ‘हाटकल्याणी’ के सफर में चल पड़े. आगरा साम को काठगोदाम एक्सप्रेस रेल पकड़ी. रेल में बाहर के दृश्यों के सांथ-सांथ उनका सफर शुरू होता है, जो कि काठगोदाम में खत्म होता है. यहां से सरकारी बस से नैनीताल की ओर उंचाई लिए घुमावदार सड़क से घने जंगलों के बाद नैनीताल में दोनों जन रूकते हैं. नैनीताल के जनजीवन के बारे में तब की उनकी टिप्पणी आज भी बदस्तूर सही साबित होती है.

‘पहाड़ के हृदय पर नाना प्रकार की आकर्षक वस्तुएं लिये यह शहर बाहर से आये सैलानियों के मनोरंजन और भोगविलास के लिए, दर्प से फूला हुआ इस स्थान पर कब्जा किये बैठा है. यहां सब है, पैंसा कमाने और भोग करने के मीना बाजार में सब मस्त हैं, परंतु केवल पहाड़ी लोग ही इनसे वंचित हैं. पहाड़ी संस्कृति यहां मर गयी है. पहाड़ी पहाड़ी होकर रहना नहीं चाहते.’

‘दादा’ और सदनजी बस से कोसी पहुंचते हैं. सामान वहीं रख पैदल कटारमल में सूर्य मंदिर भी हो आते हैं और अगले दिन पैदल अल्मोड़ा जाकर रास्ते में पहाड़ के जन-जीवन को देख मिले अपने अनुभवों को भी बखूबी किताब में बांचते हैं. कोसी से कौसानी, गरूड, ग्वालदम तक बस में और फिर वहां से हाटकल्याणी गांव की पैदल यात्रा में वो सदनजी के सांथ ही पाठक का भी हाथ पकड़ किस्से सुनाते मस्ती में चलते रहते हैं.
(Book Review Shilatirth Chittaranjan Das)

‘दादा’ हाटकल्याणी गांव में रहे नहीं बल्कि उन्होंने गांव के जीवन को काफी गहरे तक खुद भी जिया. हाटकल्याणी में भी वो गांव से छह कोस उप्पर खड़ी चढ़ाई में ‘पांगर’ बुग्याल में जाने का लोभ छोड़ नहीं पाए. उन्होंने गांव के लोगों की मेहनत को अंदर तक महसूस कर इस बारे में जो लिखा है वो गांवों में सालों तक रहने के बावजूद भी नहीं समझा जा सकता है. गांव में ग्रामीणों की हाड़तोड़ मेहनत कभी कम होने का नाम नहीं लेती थी. ‘दादा’ की नजर से ही देखिये, ‘पर्वत के ढलान पर दस हाथ चौड़े खेत बनाने के लिए पहाड़ी किसान को पहाड़ों के सांथ कठिन संग्राम करना पड़ता है, और शरीर से प्राण निकलने तक उसे यह संग्राम लगभग प्रति वर्ष करना पड़ता है.’ प्रकृति और हिमालय से ‘दादा’ का प्रेम इतना निश्छल रहा कि दिनभर थके होने के बावजूद रात में अकसर तारों को निहारते हुए वो हर-हमेशा घंटो तक डूबे रह जाते थे. 

हाटकल्याणी से बद्री-केदार के लिए उनकी पैदल यात्रा शुरू होती है. ‘दादा’ के सांथ में हैं सदन मिश्र, उनके पिता मोहनानंद मिश्र तथा पड़ोस के गांव के विद्यादत्तजी और उनकी विधवा भाभी. पांचों जन हाटकल्याणी में सदन मिश्र के गांव से जरूरतभर का सामान लेकर उस जमाने की पैदल तीर्थ यात्रा को निकल पड़ते हैं.

इस यात्रा में ‘दादा’ अपने सांथ-सांथ पाठक को भी रास्ते के चढ़ाव-उतार में लिए चलते हैं. उस जमाने की यात्रा का इतना विस्तृत वर्णन बहुत कम मिलता है. रास्ते में यात्रियों के ठहरने की चट्टियों के बहाने उन्होंने उस जमाने के लोगों की दयालूता, व्यवसाय का बखूबी वर्णन किया है. यात्रा में भौगोलिक व ऐतिहासिक वर्णन के सांथ ही ‘दादा’ ने रास्ते में उगने वाली वनस्पतियों के बारे में भी रोचक जानकारी दी है. पड़ावों के सांथ ही मंदिरों के आसपास के बारे में कई तरह की दंतकथाओं से यह किताब काफी रोचक महसूस होती है.
(Book Review Shilatirth Chittaranjan Das)

केदारनाथ-बद्रीनाथ में पंडो की लूटखसोट जैसे 1959 के जमाने में थी, वही आज भी बदस्तूर जारी है, बस तरीका थोड़ा बदल गया है, लेकिन आज भी पंडे अपने वशंजों के पगचिन्हों में चल तीर्थयात्रियों को अंधविश्चास के अंधेरे कुंए में धकेलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं. पंडो के बारे में उनका कहना था कि, ‘भगवान रूपी बनिया तुम्हारे जमा किये हुए धर्म से तुम्हारे पैरों में सोने की जंजीर पहना कर तुम्हें ले जा कर स्वर्ग में रखेंगे.’

‘दादा’ की इस यात्रा में पता चलता है कि उस जमाने में कई पड़ावों के नाम अब बदल चुके हैं. केदारनाथ से वापसी में वो तुंगनाथ की यात्रा में थे तो चोपड़ा में उनका पड़ाव पड़ा. तब का चोपड़ा को अब चोपता कहा जाने लगा है. ‘शिलातीर्थ’ का हिन्दी अनुवाद डॉ अर्चना मोदी ने बहुत ही सहज और साहित्यिक ढंग से किया है. उड़िया भाषी पाठकों के बीच यह यात्रा वृत्तांत आज भी काफी लोकप्रिय है.

बहरहाल! ‘दादा’ अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनके खुद के अंतर्मन से लिखी ‘शिलातीर्थ’ को समझने के लिए तो स्वयं के अंतर्मन में भी कहीं गहरे उतरना ही होगा तभी हम धर्म के मकड़जाल से मुक्त हो पाएंगे और हमारा सीधा संवाद प्रकृति और उसके रचियता से हो पाएगा.
(Book Review Shilatirth Chittaranjan Das)

केशव भट्ट 

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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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