भंवर: एक प्रेम कहानी- अनिल रतूड़ी का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास है. उपन्यास में लेखक ने लोक-जीवन से भरपूर जितने चित्र और चरित्र उकेरे हैं, कुदरत के चित्र उससे कहीं कमतर नहीं दिखते. लेखक को जहां भी मौका मिला, कुदरत को शब्दचित्र देने में उन्होंने कंजूसी नहीं की. फलस्वरूप रचना में प्रकृति अपने पूरे साज-सिंगार के साथ आई है. स्त्री-पात्रों की जहां भी एंट्री होती है, उनके पहनावे और भंगिमा पर लेखक की खास नजर रहती है. कहा जाता है कि मानव शरीर से सबसे ज्यादा ऊर्जा आंखों से नि:सृत होती है. पात्रों के मनोभाव व्यक्त करने के लिए आंखों के रंग, आकार-प्रकार पर लेखक की विशेष दृष्टि रहती है. (Book Review Bhanwar ek Prem Kahani)
दरअसल लेखक विलियम वर्ड्सवर्थ से खासे प्रभावित दिखते हैं. चाहे बोर्डिंग स्कूल का अनुभव रहा हो या ननिहाल का अनुभव, कुदरत को उन्होंने अपने पूरे ऐश्वर्य के साथ देखा था. प्रकृति से ऐसा संवाद, जो मनुष्य के मूल चरित्र को उन्नत बनाने में बेहतर भूमिका निभाता हो, वर्ड्सवर्थ की रचनाओं में बारंबार अभिव्यक्त होता है.
340 सफों में फैले इस उपन्यास को लेखक ने फ्लैशबैक में लिखा है. बृहद् जीवनानुभवों को समेटने के लिए उन्होंने पर्वत, धारा और मेघ नाम से तीन रूपकों का इस्तेमाल किया है. पहले भाग में हरियाली, झरने और पहाड़ी शैली में बने मकान हैं. ननिहाल के बहाने पर्वतीय संस्कृति का भरपूर चित्रण है. दूसरे भाग में लखनऊ-दिल्ली जैसे शहरों का सरसरी चित्रण है, यारी-दोस्ती के किस्से हैं. कोई नायक का मनीऑर्डर छुड़वाकर उनका विश्वासभंग करता है तो कोई स्पर्धा में ऐन मौके पर स्वार्थी बन जाता है. इतना ही नहीं सिनेमा, साहित्य, शास्त्रीय संगीत जैसी कलाएं भी विस्तार से आई हैं.
स्थान-स्थान पर न्यूज़ हेडलाइंस से समयकाल का बोध होता रहता है कि यह किस समय-विशेष की घटना है. खास बात यह है कि न्यूज़ हेडलाइंस राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम और खेल-खिलाड़ियों से ज्यादा ताल्लुक रखती हैं. इसका एक विश्लेषण यह दर्शाता है कि दुनिया भर में घट रही घटनाओं के प्रति लेखक जितना सचेत रहा है, खेल और खेल-भावना के प्रति उसकी स्पिरिट दीवानगी की हद तक रही होगी.
इस आत्मकथात्मक उपन्यास में निर्माण कार्यों की हल्की गुणवत्ता, मीडिया-राजनीति-अफसरी का गठजोड़ एक भ्रष्ट व्यवस्था की ओर संकेत करता है. जहां एक ओर उन्होंने ऐसे लोग देखे, जो धन, वैभव, यश, प्रसिद्धि को किसी भी कीमत पर पाना चाहते हैं तो दूसरी ओर गिने-चुने ही सही, ऐसे भी लोग देखे, जो बुद्धि से अधिक महत्त्व विवेक को देते हैं. लेखक की मान्यता है कि ओहदा हमें साधारण मनुष्य से भिन्न नहीं बनाता वरन् ज्यादा जिम्मेदारी देता है. लेखक के मुताबिक अच्छे, व्यावहारिक और लचीले अफसरों में से लचीले, व्यवस्था की धुरी में बने रहते हैं, व्यावहारिक बीच में आ जाते हैं और अच्छे, प्रायः बाहर की तरफ, चक्के की सरहद पर निर्वासित से रहते हैं.
मंडल कमीशन और उसके बाद की घटनाएं, लॉ एंड ऑर्डर ड्यूटी मेंं नेतृत्व और निर्णय लेने की क्षमता लेखक के वास्तविक स्वरूप को सामने ले आती हैं. नए भारत के निर्माण को लेकर लेखक पर्याप्त आशावादी हैं. आर्थिक सुधारों के फलस्वरुप उन्होंने आमजन की कमीज का कॉलर पलटने की आदत के बजाय उसकी नई कमीज खरीदने की क्रयशक्ति भी देखी.
मां-बाप से दूर बोर्डिंग हाउस में एक बच्चा, पिता की इच्छापूर्ति के लिए चकाचौंध भरी दिल्ली यूनिवर्सिटी में खुद को निखारता नौजवान किस तरह स्वयं को जीवन-संघर्ष में झोंक देता है, इस रचना में उसके सिलसिलेवार ब्यौरे आते हैं. अभय के नियति-चक्र को लेखक ने गहन सूझबूझ और पैनी दृष्टि से उकेरा है. स्मृति का अपना महत्त्व होता है. स्मृतियां भी कैसी, भावनाओं से भरपूर, जिनमें दु:ख है, दर्द है, सही-सही करने और देखने की भारी छटपटाहट है.
जन्मदिन पर चार्ल्स डिकेंस की ‘डेविड कॉपरफील्ड’ देने वाले पिता, जो बेटे में संभावनाएं ही देख सके और सफलता देखने के लिए जीवित नहीं रहे, को खोने का दु:ख नायक को निरंतर सालता रहता है.
टी एस इलियट के वेस्टलैंड और प्राच्य साहित्य के प्रति आकर्षण लेखक के प्रगाढ़ चिंतन को दर्शाता है. स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो इस कहानी में लेखक खुद उपस्थित हैं और जो कुछ रचा-बुना गया है, ये उनकी स्वयं की चित्तवृत्तियां हैं. जीवन की जटिलताओं को समेटे परिवार की स्मृतियां है, प्रेम है, व्यथा है. सजग दृष्टि से देखें तो इसमें लेखक के जीवन को खोजा जा सकता है. उन्होंने अतीत के अनुभवों और उनसे जुड़ी स्मृतियों को शब्द दिए हैं. कथाक्रम को रोचक बनाए रखने के लिए भरपूर लेखकीय आजादी ली है.
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इस उपन्यास को पढ़ना पीछे मुड़कर देखना है जिसमें इंसान आत्मविश्लेषण, आत्मनिरीक्षण कर बेबाकी से वह सब कुछ कह डालता है जो उन्होंने अनुभव किया. कुछ वास्तविकताओं, कुछ आकांक्षाओं को इस रचना में अंतर्वस्तु के रूप में मुखरता से चित्रित किया गया है. आखिर में जो साढ़े चार पेजी कविता है, वो इस उपन्यास का सार है.
लेखक की सोच की भावभूमि पाठक को आसानी से वहां तक पहुंचा देती है, जहां तक पहुंचाना उनका उद्देश्य रहा है. इस रचना में आपको संस्मरण, डायरी और जीवनी जैसी विधाओं का एकमुश्त आस्वादन मिलेगा. आखिर में वे लेखन-अनुभव पर भी बेबाकी से विचार रखते हैं— बरसोंबरस के चिंतन को वे दिमागी बोझ सा अनुभव करते रहे लेकिन जैसे ही उसे कागज पर उकेरा आश्चर्यजनक रूप से हल्कापन सा महसूस किया. पश्चिम और पूर्व की सभ्यताओं से अच्छाई सीखकर समग्र मानव बनना उनका अभीष्ट परिलक्षित होता है.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. वर्ष 2021 में पिता की जीवनी ‘कारी तू कब्बि ना हारी’ और 2021 के ही आखिर-आखिर में उपन्यास ‘चाकरी चतुरङ्ग’ प्रकाशित होकर आया है.
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