मेरा गांव-कालाआगर. नैनीताल से करीब 100 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में. इस ऊंची पर्वतमाला को जिम कार्बेट कालाआगर रिज कहते और लिखते थे. उस दिन ‘ब्लू ह्विसलिंग थ्रश’ यानी हमारी कलचुड़िया इतने करीब आ जाएगी, यह सोचा भी नहीं था. कब से इसकी तस्वीर लेने की कोशिश कर रहा था लेकिन कलचुड़िया थी कि एक जगह रुकती ही नहीं थी. हिलती-डुलती रहती थी. जब तक कैमरे का बटन दबाऊं, वहां से नदारद हो जाती. (Blue Whistling Thrush called Kalchudiya in Kumaon)
लेकिन, उस दिन शायद वह फोटो खिंचाने के मूड में थी. दोपहर बाद हमारे पुश्तैनी पानी के धारे से नीचे पथरीली सड़क पर बहते पानी, पत्थरों और घास-पात के बीच अपना भोजन तलाशती चल रही थी. बीच-बीच में हमारा इरादा भांपने के लिए हमें भी ताक लेती थी. (Blue Whistling Thrush called Kalchudiya in Kumaon)
हल्द्वानी से मेरे गांव की ओर चलने पर पद्मपुरी से ही पहाड़-दर-पहाड़, यहां-वहां नीली चमकीली कलचुड़िया चड़ी दिखाई देने लगती हैं. मन ही मन सदा उनकी गिनती करता रहा. एक, दो, तीन, वह चार…पांच! पिछली बार गांव पहुंचने तक नौ-दस कलचुड़ियां देखीं. लगता है, इधर इनकी संख्या बढ़ गई है. यह शुभ लक्षण है. इसका मतलब है जंगल की हरियाली बढ़ी है, जंगल में पेड़-पौधों की छांव से ठंडक भी बढ़ी है और आसपास खुत-खुत, खित-खित कर बहते साफ पानी के गधेरों, नालों की नमी ने कलचुड़िया के लिए कीड़े-मकोड़ों का भरपूर भोजन भी जुटाया है. अन्यथा, यह नम जगहों की निवासी नीली चिड़िया ऊपर पहाड़ की सूखी धारों (चोटियों) में कहां दिखाई देती. ऊपर तक आती भी है तो बस नम और ठंडे मौसम में. शायद लोग तभी कहते होंगे कि कफुवा (कुक्कू) और कलचुड़िया की कभी भेंट नहीं होती. मौसम जब गर्म होने लगता है तो पहाड़ों में कफुवा बोलने लगते हैं-कुक्कू! कुक्कू! और, तब मधुर सीटी की आवाज में चहकने वाली कलचुड़ियां गधेरों-नालों के किनारे नीचे उतर जाती हैं.
कलचुड़िया से मेरा भावनात्मक लगाव है. मेरे बचपन में जब मां गंभीर रूप से बीमार थी तो किसी ने कलचुड़िया चड़ी का शोरबा अचूक औषधि बताया था. मां ने कहा था- उस बेचारी चिड़िया की जान लेकर जो क्या मेरी जान बचती है?…तब कलचुड़िया की जान बच गई थी.
हमारी इस कलचुड़िया का नाम कस्तूरा और हजार-दास्तान भी है. दवात में भरी नीली स्याही जैसी कलचुड़िया मुझे बचपन से ही अच्छी लगती रही है. कभी इस पत्थर पर फुदकती, कभी उस चट्टान पर जाकर बैठ जाती और कभी किसी झाड़ी के नीचे से निकल कर किसी पेड़ की ऊंची शाख पर बैठ कर प्यार से सीटी बजाने लगती-त्जी ई ई ई…त्जी…त्जी ई ई ई…कितनी मीठी आवाज! कई बार तो जंगल में यह नहीं दिखाई देती, केवल इसकी सुरीली सीटी की मधुर आवाज से ही पता लगता है कि यहां कहीं कलचुड़िया चड़ी है. इसके लिए कहा भी जाता है- कलचुड़िया दिखाई कम, सुनाई ज्यादा देती है! और हां, इसे ‘सीटी बजाने वाला विद्यार्थी’ भी कहा गया है जो पढ़ना-लिखना छोड़ कर बस सीटियां बजाता रहता है! सीटी भी नर कलचुड़िया ही बजाता है. इसकी सीटी की आवाज हमारे होंठों से निकली सीटी की पतली आवाज जैसी सुनाई देती है. इसलिए जंगल के एकांत में भ्रम भी हो सकता है कि शायद हमें देखकर कोई सीटी बजा रहा है.
गांव से दिल्ली लौटा तो सालिम अली की ‘द बुक आफ इंडियन बर्ड्स’ के पन्ने पलटे. पता लगा, हमारी कलचुड़िया चड़ी की एक बिरादर दक्षिण भारत में भी पाई जाती है जिसे वहां ‘मलाबार ह्विसलिंग थ्रस’ कहते हैं. दोनों का वंश तो एक है लेकिन जाति अलग-अलग. उत्तरी भारत की हमारी कलचुड़िया का वैज्ञानिक नाम मायोफोनस सीरुलेयस है और मलाबार ह्विसलिंग थ्रस मायोफोनस हार्सफील्डाई कहलाती है. देखने में फर्क यह है कि हमारी कलचुड़िया चटख नीले रंग की और मलाबार ह्विसलिंग थ्रस नीले-काले रंग की होती है. एक बात और, कलचुड़िया की चौंच पीले रंग की होती है जबकि मलाबार ह्विसलिंग थ्रस की चौंच काली होती है. लेकिन, दोनों को ही जलधाराओं के आसपास नम, छायादार जगहों में रहना बहुत पसंद है. गधेरों, जलधाराओं के आसपास इसलिए क्योंकि वहां इन्हें खाने के लिए खूब कीड़े-मकोड़े, घोंघे, केंचुए, केकड़े और फल वगैरह मिल जाते हैं. अप्रैल से अगस्त तक इनका प्रजनन काल होता है.
कभी-कभी मधुर आवाज भी जान की कैसी दुश्मन बन जाती है. मधुर आवाज में सीटी बजाने वाली इस चिड़िया को भी कहते हैं, कभी लोगों ने तोता-मैना की तरह पिंजरे में पालना शुरु कर दिया था. तब हमारी यह प्यारी हजार-दास्तान भला किसे सुनाती अपनी दुखभरी दास्तान? लेकिन, बहुत कम मिलने और शायद मुश्किल से पकड़ में आने के कारण आदमी का यह क्रूर शौक आगे नहीं बढ़ पाया. कलचुड़िया चड़ी हमारे पहाड़ों में वनप्रातंरों के अपने घरों में बची रह गईं और आज वहीं हवा में इसके मधुर गीत गूंज रहे हैं. जब तक हमारे हरे-भरे वन, कल-कल बहती जलधाराएं और पेड़-पौधों की शीतल छांव रहेगी, तब तक हमारी कलचुड़ियां चड़ी भी गीत गाती रहेंगी.
–देवेन मेवाड़ी
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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