उत्तराखंड में चैत्र माह में प्यूंली के पीले और बुरांश के लाल फूल खिल कर वसंत ऋतु के आगमन का संदेश दे देते हैं, बच्चों की टोलियां अपनी नन्हीं टोकरियों में रंग-बिरंगे फूल भर कर चैत्र माह के पहले दिन घर-घर की देहरी पर फूल चढ़ा कर फूलदेई की शुभकामनाएं देने लगते हैं- फूल देई, छम्मा देई/दैणी दार, भर भकार/ये देली कें बारंबार नमस्कार! यानी, यह देहरी फूलों से भरी रहे, मंगलमय रहे, रक्षा करे और घर भीतर के भंडार भरे रहें. Bhitauli Tradition in Uttarakhand
चैत्र माह के उसी पहले दिन से दूर पहाड़ों और घाटियों में ब्याही बहू-बेटियों को शिद्दत से मायके की याद आने लगती है और उनकी आंखें हर पल गांव-घर की ओर आती राह पर टिक जाती है कि आता होगा, मेरा भैय्या भिटौली लेकर आता होगा. उधर मायके में भाई को भी प्यारी बैंणा (बहिन) की याद आने लगती है. उसका मन गा उठता है- ऐगो भिटौली को म्हैंणा, आस लागी रै हुनलि मेरि बैंणा. (भिटौली का महीना आ गया है, मेरी बहिन मेरे आने की आस लगाए होगी.) वह मन ही मन सोचता है- बहिन को मेरी याद में बांटुली (हिचकी) लग रही होगी लेकिन फिक्र मत करना बहिन, मैं तेरे पास आने के लिए एकदम सुबह चल पड़ूंगा.
उत्तराखंड में सदियों से चैत के महीने में अपनी दूर ब्याही बहिन से मिलने, उसे पकवानों और कपड़ों की स्नेह भरी सौगात देने की भिटौली की परंपरा चली आ रही है. दुर्गम पहाड़ों के दूर-दराज गांवों में ब्याही बहिनों की कुशल-मंगल लेने और मायके की ओर से साल में कम से कम एक बार चैत्र के महीने में भिटौली की सौगात सौंपने की यह प्यार भरी परंपरा शायद तब शुरू हुई होगी, जब पहाड़ों में आने-जाने के कोई साधन नहीं थे. भिटौली की परंपरा से ब्याही हुई बहिनों की कुशल-मंगल का पता चल जाता था और भिटौली के व्यंजन ससुराल के गांव में मिल-बांट कर खाने से मायके और ससुराल का स्नेह बंधन भी मजबूत होता था. इसीलिए सदियों से यह पवित्र परंपरा चली आ रही है. Bhitauli Tradition in Uttarakhand
लेकिन, वे बहिनें जिनका कोई भाई नहीं होता, वे क्या करती होंगी? चैत का महीना आता और ऐसी बहिनों का हिया कलपने लगता कि ऊंचे पहाड़ों की चोटियों में कफुवा (कुक्कू) चहकेगा और गहरी घाटियों में न्योली बोलेगी. देवरानी, जेठानी के भाई तो भिटौली लेकर आएंगे, लेकिन हे मां, मेरे लिए कौन लाएगा भिटौली? भिटौली की सौगात भाई न हो तो पिता या भाई-भतीजे बहिन को दे आते हैं. Bhitauli Tradition in Uttarakhand
नई शादी-शुदा बहू-बेटी को पहली बार चैत्र माह में नहीं बल्कि चैत्र बीत जाने के बाद बैसाख के महीने में भिटौली देने की परंपरा है. इसके पीछे मान्यता यह है कि पहाड़ों में चैत्र माह को काला माह या मलमास माना जाता है. लोक मान्यता में इसे पहली भिटौली के लिए शुभ नहीं माना जाता. इसलिए पहली बार बैसाख में भिटौली देकर अगले वर्ष से फिर चैत के महीने में दी जाती है.
भिटौली के बारे में कई मान्यताएं और लोक कथाएं भी प्रचलित हैं. पिथौरागढ़ की नैसर्गिक सौंदर्य से भरी सोर घाटी के गांवों में यह मान्यता है कि चैत माह की पूर्णिमा के दिन भगवान शिव भी हिमालय के अपने निवास से सोर घाटी के बाईस गांवों में अपनी बहिन भगवती को भिटौली देने आते हैं. इस दिन सोर घाटी के उन गांवों में चैतोल का पर्व मनाया जाता है. वे शिव के ही रूप देवल समेत लोक देवता की छतरी और डोला निकाल कर जात्रा के रूप में बाईस गांवों में घुमाते हैं. माना जाता है कि उन बाईस गांवों में शिव यानी देवल देवता अपनी बाईस बहिनों से मिलते हैं जो भगवती का रूप मानी जाती हैं.
भिटौली के साथ बहिन और भाई के अटूट प्यार की एक लोक कथा भी कही जाती है. लोक कथा में कहा गया है कि पहाड़ों में, बहुत दूर एक दुर्गम गांव में बहिन ब्याही हुई थी. चैत्र का महीना आया, प्यूंली और बुरांश के फूल खिले, वन-वन कफुवा बोलने लगा और घाटियों में न्योली चिड़ियां के बोल गूंजने लगे. भाई को बहिन की बहुत याद आई और वह एक दिन सुबह-सुबह टोकरी में भिटौली लेकर बहिन की ससुराल को चल पड़ा. दिन भर चलता रहा और देर शाम थका-मांदा बहिन के पास पहुंचा. उसने देखा कि उसकी प्यारी बहिन गहरी नींद में सो रही है. सोचा, दिन भर काम से थक कर सोई होगी इसलिए उसने उसे नहीं उठाया. उसने भिटौली की टोकरी धीरे से उसके पास रखी और उसके जागने का इंतजार करने लगा. तभी उसे ख्याल आया कि अरे आज तो शुक्रवार है. मां ने कहा था, इतने दिनों बाद शनिवार के दिन भेंट नहीं करनी चाहिए. इसीलिए वह दिन भर मीलों चल कर इतनी दूर बहिन के पास पहुंचा था. सोचा, क्या करूं? उसने निश्चिय किया कि बहिन रात तक जागेगी नहीं और सुबह होने पर शनिवार हो जाएगा. इसलिए वह चुपचाप बहिन के पैर छूकर वापस लौट गया. सुबह बहिन की नींद खुली तो वह भिटौली की टोकरी देख कर चकित रह गई. उसे बहुत पश्चाताप हुआ कि भूखा-प्यासा भाई भिटौली लेकर आया लेकिन वह सोई रही. उसका मन दुख से भर उठा और वह कातर स्वर में बोल उठी, ‘भै भुकी, मैं सिती, भै भुकी, मैं सिती!’ (भाई भूखा था, मैं सोती रह गई) इसी दुख में उसके प्राण पखेरू उड़ गए और वह न्योली चिड़िया बन गई जो आज भी चैत्र के महीने में यही बोलती रहती है, ‘भै भुकी, मैं सिती!’
आज समय बदल गया है लेकिन उत्तराखंड में भिटौली की यह परंपरा अब भी कायम है. गांवों में आज भी भाई या पिता भिटौली की सौगात लेकर बहिन या बेटी के पास जाते हैं. भिटौली में पहले की तरह अब भी हलवा, पूड़ी, खीर, पुए, सिंगल और खजूरे जैसे पकवान, फल और कपड़े रखे जाते हैं. अब गांवों से बहुत सारे लोग दूर-दराज नौकरी पर जाने लगे हैं जिसके कारण बहिन या बेटी के पास हर बार चैत्र के महीने में पहुंचना संभव नहीं हो पाता है. ऐसी परिस्थिति में वे किसी-न-किसी तरह मिठाई, रूपए-पैसे और कपड़े बहिन या बेटी तक भेजते हैं. शहरी प्रभाव के कारण घर में बने व्यंजनों के बजाए रेडीमेड मिठाई तथा फल भेज कर भिटौली की परंपरा निभाई जा रही है. फिर भी हमें यही कोशिश करनी चाहिए कि किसी भी तरह भाई-बहिन के अनोखे प्यार में भीगी यह पवित्र परंपरा बनी रहे. Bhitauli Tradition in Uttarakhand
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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