सत्तर के दशक तक पिथौरागढ़ में दुतिया बोले तो भाई दूज, अलौकिक त्यौहार होता था. गांव घर के लोग रक्षाबंधन भी भाई-बहिन से संबंधित त्यौहार होता है, जानते तक नहीं थे. शहरी लोग फिल्मों में देखा करते थे. कुछ एक बहिनें ही राखी बांधा करती थीं लेकिन अब आचार-व्यवहार, दिनचर्या में अंतर आ चुका है. प्यार है पर त्यौहार का तरीका औपचारिक सा हो गया है. (Bhaiya Dooj festival Pithoragarh)
अधिकतर पैदल ही आना-जाना होता था, मायके जाती बहू बेटियों का रेला लगा रहता था. पीठ में झोला गठरी जिसका फीता सर में टेक लिया रहता था. हम जब थरकोट गांव में अपने ममकोट जाते थे तो ऐंचोली से शक्करपारे खरीदेंगे, घर से सोचकर निकलते थे.
साठ के दशक के उत्तरार्ध में जाखनी के पास जहाँ पर आजकल न्यू बीरशिवा स्कूल पिथौरागढ़ (पुलिस लाइन) है, तिब्बती रिफ्यूजी कैंप हुआ करता था. इन तिब्बती लोगों को हम हुनिया कहा करते थे. इनके बारे कहा जाता था ये लोग आदमियों का मांस भी मारकर खा जाते हैं. यही अफवाह बच्चों को डराने के लिये प्रयोग होती थी जबकि ये लोग चीन के आतंक से डरकर तिब्बत से भागकर आये शरणार्थी थे जो मुख्यतः नयी निर्माणाधीन सड़कों में मेहनत मजदूरी करते थे. इनके लिये गाय भैंस, बकरे. मुर्गी, सूअर के मांस में भेद नहीं था इनका कुछ ठेकेदार मुंशी हर तरह का शोषण भी करते थे. इनकी मंगोल नस्ल, रंग-रूप आम भोटिया लोगों से अलग होता था मैंने इन्हें नहाते कभी नहीं देखा. खैर अब न वो पहाड़ी पहनावा रहा न वो तिब्बती लोग दुनिया बदल गयी है.
हां, तो जब हम थरकोट से पहले कांचुलीगाड़ नामक दो-तीन दुकानों वाली जगह में पहुंचते थे तो वहीं पर पहली ढोक भेंट ममकोटिया बूबू मामा भाई लोगों से होती थी. इस स्थान पर पूरे रौलपट्टी के समाचारों का आदान-प्रदान भी हो जाता था. ताश दाना का जबरदस्त जुआ औकातानुसार खेला जाता था. लूड़ो के दाने जैसा एक से छः नंबर वाला जो कभी-कभी हाथी दांत का बना भी होता था, जिसे लुड़काकर नंबर की बोली लगती थी, इसे ही ताश दाना कहते थे.
हाँ तो जब हम ममकोट के घर पहुंचते थे तो ईजा का जोरदार स्वागत होता था क्योंकि वो अपने मायके की सबसे बड़ी बहिन और विनोदी स्वभाव की जो थीं और सर पूजने घुंणी-मुंणी की मामाओं की पहली पूज्या भी. लेकिन हमारे परिवार में पिताजी ने यह अधिकार एक मुंहबोली बहिन को दिया हुआ था जिसका सम्मान सभी बहिनें करती थीं. रिश्तों का सम्मान बहुत होता था, हर रिश्ता पारदर्शी था. (Bhaiya Dooj festival Pithoragarh)
सोर के खश राजपूतों में खस्सी या बकरे की भी खाश अहमियत थी ऐसे त्यौहारों में सिकार-भात भी खीर-पूड़ी के अलावा खास पकवान होता था. जिसे खश ब्राह्मण भी अनुगमन करते थे. ध्यान रहे सोर और बाराबीसी क्षेत्र में जितनी बसासत खश ब्राह्मणों की है पूरे कुमाऊं में इतनी आबादी नहीं है. इनका भी अपना अलग खश कल्चर हुआ करता था जो अब क्रमशः कुलीन ब्राह्मणों जैसा दिखना बनना आचार-व्यवहार पसंद करने से बदलता जा रहा है.
खैर शाम होती थी तो हम उदास होने लगते थे. दूर सड़क में किसी मोटरगाड़ी की हेडलाइट या धमौड़ गांव के इक्का-दुक्का घरों के दीये मोमबत्ती खामोशी को और भी बड़ा देते थे पटाखे नहीं के बराबर. पूरी शाम दो-चार पटाखे फूटते थे जो हमारे गांव के शहर का निकटवर्ती होने के कारण हमें बड़ा अजीब सा लगता था.
(कुलदीप सिंह महर की फेसबुक वाल से)
पिथौरागढ़ के विण गांव में रहने वाले कुलदीप सिंह महर सोशल मीडिया में जनसरोकारों से जुड़े लेखन के लिए लोकप्रिय हैं.
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1 Comments
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वाह। पुरानी यादें ताज़ा कर दी।