उत्तराखण्ड को अगर पर्वों, उत्सवों और मेलों की भी धरती कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा. पूरे प्रदेश में साल भर विभिन्न मौकों पर सैकड़ों मेले आयोजित किये जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मेले धार्मिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक महत्त्व के हैं. कई मेलों का संबंध किसी न किसी रूप में फसलों की कटाई और बुवाई से भी है. सभी मेले दसियों सालों से मनाये जा रहे हैं. सरकारी सहयोग और संरक्षण के अभाव के बावजूद ज्यादातर मेले अपने वजूद को कायम रखे हुए हैं. वक़्त के साथ इन मेलों के स्वरूप में बदलाव जरूर आये हैं, जो कि स्वाभाविक ही है. उत्तराखण्ड के इन मेलों में से कुछ प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं, ज्यादातर की पहचान स्थानीय स्तर तक ही सीमित है.
इन्हीं मेलों में से एक है बौराणी का मेला. यह मेला दिवाली के ठीक 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा की रात पिथौरागढ़ जिले के बेड़ीनाग कस्बे के बौराणी में स्थित सैम देवता के मंदिर प्रांगण में मनाया जाता है. इस पूरे इलाके से हिमालय का नयनाभिराम दृश्य दिखाई देता है. मेले की शुरुआत के बारे में ठोस जानकारी नहीं मिल पाती है. लेकिन पता चलता है कि यह मेला सदियों से मनाया जाता रहा है. आज भी मेले में भागीदारी करने कई ऐसे बुजुर्ग पहुँचते हैं जो अपनी आयु का शतक लगाने के करीब हैं. सभी बताते हैं कि कैसे वे अपने बचपन से ही इस बिना नागा इस मेले का रस लेते आ रहे हैं और अपने बाप-दादाओं से भी उन्होंने यही सुना है.
बौराणी मेले का स्वरूप भी उत्तराखण्ड के अन्य मेलों की ही तरह धार्मिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक ही हुआ करता था. स्थानीय निवासी कुथलिया बोरा पत्थरों के बर्तन, सिल-बट्टे और घराटों (पनचक्कियों) के पाट बनाने में निपुण हुआ करते हैं. इसके अलावा इनके हाथ के बने भांग के पौंधे के रेशों से बने कुल्थे भी काफी मशहूर हुआ करते थे. जाहिर ही कुछ सालों पहले तक घराट, कुल्थे तथा पाषण पात्र पहाड़ी जनजीवन का आवश्यक अंग हुआ करते थे. कालांतर में इनके उपयोग में कमी आती जा रही है. बौराणी मेले में पत्थर की इन्हीं वस्तुओं और कुल्थों का व्यापार हुआ करता था. कहा जाता है कि कुलाथिया बोराओं के हाथ से बने पत्थर के बर्तन, सिल-बट्टे, घराट के पट तथा कुल्थे खरीदने कुमाऊँ ही नहीं नेपाल तक से लोग यहाँ आया करते थे.
कार्तिक पूर्णिमा की मध्यरात्रि में ही यहाँ पर सैम देवता के मंदिर में पुलाईचापड़ गाँव से 22 हाथ लम्बी चीड़ के छिलुके से बनी मशाल लाये जाने की परम्परा है. मंदिर की सात बार परिक्रमा करने के बाद कन्धों पर लायी गयी इस मशाल को सैम देवता के मंदिर के सामने स्थापित किया जाता है. श्रद्धालु हाथ जोड़कर मशाल का स्वागत करते हैं. बौराणी और इसके आसपास बांज का घना जंगल है शायद इसी वजह से इस मशाल को ग्रामीण 5 किमी दूर से अपने कन्धों पर लेकर आते हैं. चांदनी की चमक में मशाल को लम्बे पहाड़ी रास्ते से लाये जाने में ग्रामीणों की जीवतता देखते ही बनती है. इसके बाद हुड़के की थाप पर नौर्त लगते हैं और श्रद्धालु मन्नतें मांगते हैं. मशाल की रौशनी में सारी रात झोड़ा-चांचरी लगायी जाती है. पूरी रात नाच-गाने का यह कार्यक्रम चलता रहता है.
2014 तक बौराणी मेला जुए मेले के रूप में भी कुख्यात हुआ करता था. इस धार्मिक-व्यावसायिक मेले में कब और कैसे जुआ घुस आया और उसने अपनी जगह मजबूत कर ली इसकी सटीक जानकारी नहीं मिलती. लेकिन सालों से मेले में प्रतिभाग करते आ रहे लोग बताते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा को ही दिवाली में हारे हुए जुआरियों के लिए ‘अपील’ का दिन माना जाता है और इस रात जुआ आयोजित कर उन्हें हारी हुई धनराशि जीतने का एक और मौका दिया जाता है. शायद इसी वजह से रात भर चलने वाले इस मेले में कभी जुआ खेलने की परम्परा शुरू हुई और यह मेला जुआ मेले के रूप में दूर-दूर तक लोकप्रिय हो गया. बताया जाता है कि यहाँ मंदिर परिसर से एक किमी की दूरी से चार किमी दूर लम्बकेश्वर महादेव मंदिर की पहाड़ी तक जुए के 150 तक फड़ लग जाया करते थे. हर फड़ में 17 लोग तीनपत्ती का जुआ खेलते थे और कई लोग अपनी बारी का इन्तजार किया करते थे. जुए के लिए स्थानीय ग्रामीण टेंट तथा खान-पान की व्यवस्था किया करते थे, इससे उनकी अच्छी खासी कमाई हो जाया करती थी. जागरूक ग्रामीणों तथा प्रशासन ने मेले में घुस आये इस अवांछित तत्व को बाहर करने का प्रयास किया मगर सालों तक कोई कामयाबी नहीं मिल पायी. यह मेला जुए की वजह से कई ग्रामीणों की आय का अच्छा स्रोत भी बन गया था. कई दिनों तक चलने वाले जुए की कमाई से कई लोगों का साल भर का खर्च चल जाता था. फिर उन दिनों इस मेले में पहुँचने के लिए राई आगर से 12-15 किमी की दूरी पैदल ही नापनी होती थी, लिहाजा यहाँ पर प्रशासन का कोई असर नहीं हो पाता था. यह मेला जुए मेले के रूप में इतना लोकप्रिय हो गया था कि यहाँ उत्तर-प्रदेश के दूरदराज के शहरों-कस्बों तक से जुआरी आने लगे. मेला स्थल के पास सड़क पहुँच जाने के बाद प्रशासन ने इस मेले के जुआरियों पर शिकंजा कसना शुरू किया और कुछ सालों की मशक्कत के बाद 2014 में यहाँ जुआ बंद कराया जा सका. इस मुहीम में ऐसे स्थानीय जागरूक ग्रामीणों का भी सहयोग रहा जो जुए की कुप्रथा को अपने गाँवों और मेले की प्रतिष्ठा के लिए गलत समझते थे. आज इस मेले में जुआ बिलकुल बंद हो चुका है, हालाँकि यह अफवाह सुनाई देती है कि चोरी-छिपे जुआ आज भी चला करता है.
आज इस मेले का पारंपरिक व्यापारिक स्वरूप पूरी तरह ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता मेले में आने वाले भक्तों की जरूरतों को पूरा करने वाली दुकानें आज भी लगा करती है. मेले का धार्मिक स्वरूप आज भी बरकरार है. आज भी मध्यरात्रि से सैमदेवता के मंदिर के प्रांगण में अखंड धूनी के सामने सुबह तक नौर्त चलते रहते हैं और श्रृद्धालु सुख-शांति समृद्धि की प्रतीक छिलुके की मशाल के नीचे देवडांगरों से मनोकामना मांगते हैं.
मेले के संस्कृतिक स्वरूप में वक़्त के साथ बदलाव आ गया है. शाम से ही मंदिर प्रांगण से थोड़ी ही दूरी पर बाकायदा मंच सजाया जाता है. हजारों मेलार्थियों से राजनीतिक लाभ लेने की गरज से नेताओं और उनके चेले-चपाटों की आवाजाही लगी रहती है. राजनीतिक भाषणों की घुट्टी पिलाई जाती है. इसी मंच में आधुनिक हिंदी-कुमाऊनी अच्छे, भौंडे गीतों की महफ़िल भी अगली सुबह तक चलती रहती है. दम-दारू के नशे में युवा मदमस्त रहते हैं. मंदिर प्रांगण में जमने वाली झोड़े-चांचरी की वर्षों से सजने वाली पारंपरिक महफ़िल की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है. नयी पीढ़ी की इसमें कम ही भागीदारी दिखती है. सालों से यहाँ आ रहे बुजुर्ग ही इस लोकगीत, लोकनृत्य की परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं. मेले के इस परंपरागत सांस्कृतिक स्वरूप को बचाए और विकसित किये जाने की जरूरत है. उम्मीद है कि देर-सवेर इसका रास्ता निकल आयेगा.
कार्तिक पूर्णिमा की शाम से अगली सुबह तक आसपास के गाँवों से हजारों दर्शकों के यहाँ आने-जाने का सिलसिला चलता रहता है. हजारों लोग मंदिर परिसर में जमे रहते हैं. इनमें बूढ़े, बच्चे, युवा, हर उम्र के स्त्री-पुरुष शामिल रहते हैं. सडकें रात भर गुलजार रहतीं हैं. कड़ाके की ठण्ड में भी लोगों का उत्साह में ज़रा भी कमी नहीं दिखाई देती. मेले को लेकर स्थानीय लोगों में उत्साह की कमी आज भी नहीं है, सभी सुबह तक मेले के कार्यक्रमों के लिए डटे रहते हैं. किसी भी उम्र के स्त्री-पुरुष के लिए सुरक्षित इस परिवेश को देखकर पहाड़ के जनजीवन पर गर्व की अनुभूति होना स्वाभाविक है.
अब इस मेले का आयोजन तथा सञ्चालन बौराणी महोत्सव समिति किया करती है. फिलहाल इस समिति के अध्यक्ष उत्साही स्थानीय युवा राजेन्द्र बोरा हैं, जो कि पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष तथा वर्तमान जिला पंचायत सदस्य भी हैं. सालों से लगता आ रहा यह मेला स्थानीय लोगों की थाती है. शासन-प्रशासन का इसे कोई संरक्षण नहीं है न ही इसकी जरूरत ही मालूम पड़ती है. इतना जरूर है कि शासन-प्रशासन इस मेले को व्यापक बना सकता है. इस जगह में वैसे भी पर्यटन की असीम संभावनाएँ हैं. इस मेले को धार्मिक, सांकृतिक पर्यटन के लिए विकसित किया जा सकता है.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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