इन दिनों पहाड़ के गांवों के खेतों में रोपाई अर्थात रोपणी की जा रही है. अषाढ़ के महीने की छः गते की रोपणी को लेकर आज भी पहाड़ के लोक में माना जाता है कि इस दिन रोपणी के सेरे (रोपाई के खेत) में जीतू के प्राण नौ बैणी आछरियों ने हर लिए थे. जीतू और उसके बैलों की जोडी रोपाई के खेत में हमेशा के लिए धरती में समा जाता है. पहाड़ के सैकड़ों गाँवों में हर साल जीतू बगडवाल की याद में बगडवाल नृत्य का आयोजन किया जाता है. बगडवाल नृत्य पहाड़ की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है. जिसमें सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र होता है बगडवाल की रोपणी. इस दौरान रोपणी(रुपाई) को देखने अभूतपूर्व जनसैलाब उमड़ता है.
जीतू बगड्वाल के जीवन का 6 गते अषाढ़ की रोपाई का वह दिन अपने आप में विरह-वेदना की एक मार्मिक समृत्ति समाये हुए है.
बावरो छयो जीतू उलार्या ज्वान
मुरली को हौंसिया छौ रूप को रसिया
घुराए मुरली वैन खैट का बणों
डांडी बीजिन कांठी
बौण का मिर्गुन चरण छोड़ी दिने
पंछियोन छोडि दिने मुख को गाल़ो
कू होलू चुचों स्यो घाबड्या
मुरल्या
तैकी मुरली मा क्या मोहणी होली
बिज़ी गैन बिज़ी गैन खेंट की
आंछरी
तेरा खातिर छोडि स्याळी बांकी
बगूड़ी
बांकी बगूड़ी छोड़े राणियों कि
दगूड़ी
छतीस कुटुंब छोड़े बतीस परिवार
दिन को खाणो छोड़ी रात की सेणी
तेरी माया न स्याली जिकुड़ी लपेटी
कोरी कोरी खांदो तेरी माया को
मुंडारो
जिकुड़ी को ल्वे पिलैक अपणी
परोसणो छौं तेरी माया की डाळी
डाळीयूँ मा तेरा फूल फुलला
झपन्याळी होली बुरांस डाळी
ऋतू बोडि औली दाईं जसो फेरो
पर तेरी मेरी भेंट स्याळी
कु जाणी होंदी कि नी होंदी ?
गौरतलब है कि आज से एक हजार साल पूर्व तक प्रेम आख्यानों का युग था, जो 16वीं-17वीं सदी तक लोकजीवन में दखल देता रहा. हमारा पहाड़ भी इन प्रेम प्रसंगों से अछूता नहीं है. बात चाहे राजुला-मालूशाही की हो या तैड़ी तिलोगा की, इन सभी प्रेम गाथाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज की. लेकिन, सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली ‘जीतू बगड्वाल’ की प्रेम गाथा को, जो आज भी लोक में जीवंत है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गढ़वाल रियासत की गमरी पट्टी के बगोड़ी गांव पर जीतू का आधिपत्य था. अपनी तांबे की खानों के साथ उसका कारोबार तिब्बत तक फैला हुआ था. एक बार जीतू अपनी बहिन सोबनी को लेने उसके ससुराल रैथल पहुंचता है. बहाना अपनी प्रेयसी भरणा से मिलने का भी है, जो सोबनी की ननद है.
दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं. जीतू बांसुरी भी बहुत सुंदर बजाता है. एक दिन वह रैथल के जंगल में जाकर बांसुरी बजाने लगा. बांसुरी की मधुर लहरियों पर आछरियां (परियां) खिंची चली आई. वह जीतू को अपने साथ ले जाना (प्राण हरना) चाहती हैं. तब जीतू उन्हें वचन देता है कि वह अपनी इच्छानुसार उनके साथ चलेगा. आखिरकार वह दिन भी आता है, जब जीतू को परियों के साथ जाना पड़ा.
जीतू के जाने के बाद उसके परिवार पर आफतों का पहाड़ टूट पड़ा. जीतू के भाई की हत्या हो जाती है. तब वह अदृश्य रूप में परिवार की मदद करता है. राजा जीतू की अदृश्य शक्ति को भांपकर ऐलान करता है कि आज से जीतू को पूरे गढ़वाल में देवता के रूप में पूजा जाता है. तब से लेकर आज तक जीतू की याद में पहाड़ के गाँवों में जीतू बगडवाल का मंचन किया जाता है. जो कि पहाड़ की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है. समय के साथ अब बहुत सीमित गाँवों में ही इसका मंचन किया जा रहा है.
नौ बैणी आंछरी ऐन, बार बैणी भराडी
क्वी बैणी बैठींन कंदुड़यो स्वर
क्वी बैणी बैठींन आंख्युं का ध्वर
छावो पिने खून , आलो खाये माँस पिंड
स्यूं बल्दुं जोड़ी जीतू डूबी ग्ये
रोपणी का सेरा जीतू ख्वे ग्ये…
वरिष्ठ पत्रकार संजय चौहान की फेसबुक वॉल से साभार.
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