लगभग चालीस सालों से चले आ रहे अल्मोड़ा अखबार ने 1913 के बाद ही धार पकड़ी. अल्मोड़ा अख़बार ने जब तक स्थानीय मुद्दों पर अपनी यह धार दिखाई तब तक प्रशासन चुप रहा. लेकिन बद्रीदत्त पाण्डे के सम्पादकत्व में चल रहे अल्मोड़ा अख़बार की धार से कब तक कुमाऊं का प्रशासन बचा रहता है. ( Badri Datt Pandey )
साल 1913 में कुमाऊं के तत्कालीन प्रमुख अखबार अल्मोड़ा अख़बार के संपादक बद्रीदत्त पाण्डे बने. इससे पहले वह इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक अख़बार ‘लीडर’ के सहायक मैनेजर और सब-एडिटर रहे और बाद में देहरादून से निकलने वाली ‘कास्मो पोलिटिन’ के संपादक रहे.
1913 से 1918 तक अल्मोड़ा अख़बार ने जिस बेबाकी से छपा उसने न केवल अंग्रेजों को असहज कर दिया बल्कि इस पूरे क्षेत्र में राजनैतिक जागृति भी लाया. 1918 में अल्मोड़ा अख़बार में दो लेख छपे. ‘जी हजूरी होली’ और ‘लोमश की भालूशाही’ नाम से छपे दोनों व्यंग्य अल्मोड़ा अख़बार के सम्पादकीय थे.
अल्मोड़ा अख़बार से 1000 रुपये की ज़मानत मांगी गयी और व्यवस्थापक सदानंद सनवाल का इस्तीफा माँगा गया. अब अंग्रेजों के सामने अल्मोड़ा अख़बार कहा झुकता सो अल्मोड़ा अख़बार बंद कर दिया गया. ( Badri Datt Pandey )
इधर अल्मोड़ा अख़बार बंद हुआ उधर हरिकृष्ण पन्त, मोहन सिंह मेहता, हरगोविंद पन्त, गुरुदास साह आदि के सहयोग से बद्रीदत्त पाण्डे ने 15 अक्टूबर 1918 को देशभक्त प्रेस की स्थापना कर ‘शक्ति’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरु कर दिया. शक्ति के पहले ही अंक में लिखा गया था :
उसका उदेश्य देश की सेवा करना, देश हित की बातों का प्रचार करना, देश में अराजकता और कुराजकता के भावों को न आने देना, प्रजा पक्ष को निर्भीक रूप से प्रतिष्ठा पूर्वक प्रतिपादित करना है. शक्ति जन समुदाय की पत्रिका है. वह सदा विशुद्ध लोकतंत्र को प्रकाश करेगी. जहां जहां अत्याचार, पाखंड और शासन की घींगाघींगी से लोक पीड़ित होता है, वहां शक्ति अपना प्रकाश डाले बिना न रहेगी.
1916 से 1926 तक शक्ति के संपादक बद्रीदत्त पाण्डे रहे इस बीच बद्रीदत पाण्डे ने बागेश्वर में कुलीबेगार जैसे बड़े आन्दोलन का नेतृत्व किया. 1920 में जब हरगोविन्द पन्त के नेतृत्व में कुमाऊं परिषद के काशीपुर अधिवेशन बद्रीदत्त पाण्डे ने कुली बेगार समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव रखा. बेगार संबंधी प्रस्ताव में बद्री दत्त पाण्डे ने कहा :
कुमाऊं नौकरशाही का दुर्ग है. यहां नौकरशाही ने सभी को कुली बना रखा है. सबसे पहले हमें कुमाऊं के माथे से कुली कलंक हटाना होगा तभी हमारा देश आगे बढ़ सकता है.
12 जनवरी की दोपहर बागेश्वर में एक ‘कुली उतार बंद करो’ लिखे लाल कपड़े के बैनर को जुलूस द्वारा कत्यूर बाजार से दुग बाजार तक घुमाया गया. इस बीच बागेश्वर डाक बंगले में डिप्टी कमिश्नर डायबिल भी आ चुका था. 13 जनवरी को संक्रांति के दिन मेले में दस हजार के आस-पास लोग कुली बेगार के विरोध में खड़े थे तब बद्रीदत पाण्डे ने डाक बंगले की ओर ईशारा कर कहा
वहां कपट दरबार लगा हुआ है. मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दे या गोली मार दे मैं कुली नहीं बनूंगा. आप सब मेरा अनुकरण करें यही स्वराज की ओर पहला कदम है.
कुली बेगार का सफल नेतृत्व करने ले बाद ही बद्रीदत्त पाण्डे को कुमाऊं केसरी कहा गया. हरिद्वार के कनखल में 15 फरवरी 1882 के दिन जन्मे बद्रीदत पाण्डे की प्रांरभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई. आजादी के दौरान बद्रीदत्त पाण्डे 5 बार जेल गये और 2 बार नज़रबंद रहे. निजी जीवन में पुत्र और पुत्री दोनों की मृत्यु हो जाने के बावजूद बद्रीदत्त पाण्डे ने कभी देशसेवा से पीछे कदम नहीं हटाया.
आजादी के बाद भी जब भारत और चीन युद्ध हुआ तो बद्रीदत्त पाण्डे अपने जीवन में प्राप्त दो सोने के पदक भारत सरकार को दान में दे दिए. कुमाऊं क्षेत्र में आजादी की अलख जगाने वाले बद्रीदत्त पाण्डे का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी किताब कुमाऊं का इतिहास है. 1937 में बद्रीदत्त पाण्डे द्वारा लिखी गयी यह किताब आज भी कुमाऊं क्षेत्र के इतिहास के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक पुस्तक मानी जाती है. ( Badri Datt Pandey )
संदर्भ : मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना
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