अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता संग्रह) और पहला दखल (संस्मरण). अमित काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
उत्तराखण्ड राज्य सिविल सर्विस पास करने के बाद ट्रेनी अफसरों को नैनीताल स्थित एटीआई में प्रशिक्षण हेतु भेजा जाता है. पुलिस सेवा में चुने जाने के बाद वर्ष 2005 में अमित श्रीवास्तव ने भी यह ट्रेनिंग ली. उसी ट्रेनिंग प्रोग्राम की स्मृतियों का एक बेहद संवेदनशील संस्मरण है उनकी पुस्तक पहला दखल. कहीं अतिशय भावुकता, कहीं बीहड़ उचाटपन, कहीं संवेदनशील रूमानियत और कहीं खिलंदड़ जिज्ञासा. और इस सबके ऊपर लगातार अपने आप को एक बेहतर मनुष्य बनाते चले जाने की सतत अन्तर्यात्रा. इस के अलावा और भी तमाम रंग हैं इस किताब को वह बनाते हैं जो कि वह है. अमित श्रीवास्तव की तराशी हुई सौष्ठवपूर्ण गद्य शैली इस पुस्तक को बार-बार पढ़ने लायक बनाती है. काफल ट्री इस किताब के चुने हुए टुकड़े आज से सिलसिलेवार प्रस्तुत करने जा रहा है. इन संस्मरणों से गुजरने के बाद आप स्वयं को लेखक की यात्रा में शामिल पाएंगे. – सम्पादक
जुलाई सन 2005, दिन सोमवार, समय शाम के करीब 8 बजे, स्थान डाइनिंग हाल. भरा पूरा माहौल. कहीं ठहाके लग रहे हैं, कहीं `तेरे- नंबर- कितने- मेरे- नंबर- इतने’ हो रहा है तो कहीं सुड़क-सुड़क आलू टमाटर की रस्सेदार सब्जी सुड़कने की आवाज. ये ई-225, नेहरु विहार, तिमारपुर, नई दिल्ली के तीसरे मंजिल के फ़्लैट का सबसे बाहरी कमरा है जनाब! जिसे हम अपना ड्राइंग कम डाइनिंग कम स्टडी कम `आज- नोट्स- लेने- पूनम- आयेगी- खबरदार- इधर- कोई- न- फटके’ में `इधर’ वाला कमरा कहते थे. जहां एक बहुत हवा-पानीदार खुली खिड़की थी जो पास जाकर देखो तो खिड़की कम सुसाइड पॉइंट ज्यादा लगती थी क्योंकि उसमें न तो ग्रिल थी न ही जाली, बस पल्ले ही पल्ले थे जिनके खुलने पर ऐसा लगता था कि कैप्टन राकेश शर्मा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ऐसा जवाब क्यों दिया होगा भला. यहाँ से देखते भारत तो जवाब बदल जाता.
मैं इसी खिड़की के दोनों फटके खोल शुरू होने वाली दूसरी दुनिया के सपने बुन रहा था. और आप क्या सोचे ये एटीआई का चौखम्बा1 है जहां बिष्ट जी पहले ही दिन बकरा नहीं बकरी, ना… ना… ना. ये समय और स्थान आप को लाया होगा एटीआई के डाइनिंग हाल में, मैं तो अभी भी 300 किमी दूर अपने मुफलिसी के चार यारों के साथ रात का खाना खा रहा था, क्योंकि पूरी जद्दोजहद और झीन्गामुश्ती (वो भी पूरे शाकाहारी तरीके से) करने के बाद भी विदेश व्यापार निदेशालय के निदेशक महोदय से शुक्रवार तक एनओसी नहीं ले पाया था और शनिवार रविवार रहती है छुट्टी (पुलिस में आने के बाद जिसका मर्म समझ आया)! सोमवार का दिन फिर भी आश्वस्तिपरक रहा क्योंकि एक तो मुझे एनओसी मिल गयी थी दूसरा त्यागीजी, हमारे एडी साहब, के पीले स्कूटर पर बैठकर बिना मरे मैं साबुत- पूरा का पूरा वापस आ गया था. पहली और आख़िरी बार इस स्कूटर पर बैठने का सौभाग्य प्राप्तकर्ता मैं यद्यपि उन कहानियों से ज्यादा डर गया था जो मौर्याजी और विनोदजी ने मुझे उस स्कूटर के किसी बाबा आदम के जमाने का होने और उसे समयमान वेतनमान के साथ सेवा निवृत्ति दिए जाने की प्रबल संस्तुति के साथ बताई थीं.
लब्बोलुबाब ये कि मैं ट्रेनिंग में पूरा एक दिन लेट था और पेट में उठ रही झुरझुरी को आलू टमाटर की सब्जी और धीराज गर्ब्याल साहब के टेलीफोनिक वार्तालाप से शांत करने की कोशिश कर रहा था जिसमे उन्होंने अपने कई साला प्रशासनिक अनुभवों का निचोड़ `अरे कोई फरक नहीं पड़ता यार, आराम से ज्वाइन करो…’ जैसे शब्दों में किया था और सिस्टम को चंद मात्रि-पक्षीय विशेषणों से सुशोभित किया था जो अंततः मुझ जैसे बहुत से लोगों के जीवन अनुभव का भी निचोड़ बनने वाले थे. नहीं-नहीं ये विशेषण नहीं बल्कि वो संज्ञा जिनके लिए ये प्रयोग में लाए गए. धीराज सर से मेरा क्या परिचय था? …फिर कभी.
तो जनाब हजार कोशिशों के बाद भी शांत न होने वाली पेट की झुरझुरी और दो नफर बैग, जिनमें अब तक की मेरी पूरी जिंदगी का सरमाया समा नहीं सकता था लिहाजा उसका सर काटकर मैं प्रणव मिश्र को दे आया था (यानी मेरी 60-70 किताबें-नोटबुकें जिन्हें सीने से लगाकर कई बार ये लगा था कि सांस और धडकन के साथ-साथ इनका भी कोई पुराना कर्ज बाकी रह गया है) अपने साथ माया- माया ले कर मैं 9 बजे की दिल्ली टू नैनीताल बस में बोर्ड हुआ. जो 9.30 पर भी वहीं दिल्ली की सड़कों पर दिखती है 10 बजे भी, 10.30 बजे भी. उसके बाद मैं हजार झुरझुरी के बाद भी सो गया. मेरी नींद ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया. आज भी मुझे धोखा नहीं देती और मेरी पत्नी को सुकून. मैं हमेशा से नींद को आँखों का एक जरूरी काम मानता हूँ. रात को सोने के लिए ईजाद किया हुआ मानता हूँ और खुद को रात के लिए. इस भरोसेमंद नींद ने मुझे बाद में बड़ा आराम दिया जब हम ग्रेहाउंड्स ट्रेनिंग में नाईट मार्च के लिए निकलते थे और तेज चलते हुए अपने साथियों से आगे निकल जाते थे तो दो-दो मिनट के लिए ही कहीं भी जमीन पर लेटकर नींद निकाल लेते थे फिर चाहे जमीन दलदली, गीली, पथरीली जैसी भी हो. अब लगता है मेरे खर्राटों ने कितना परेशान किया होगा जंगली जानवरों को.
नैनीताल के बारे में मैं कुल जमा तीन चीजें ही जानता था. ये एक पहाड़ी शहर है, यहाँ एक खूबसूरत झील है और यहाँ काठगोदाम से होकर जाना पड़ता है जो शायद आख़िरी रेलवे स्टेशन है. ये तीनों ही बातें मुझे आकृष्ट करती थीं. काठगोदाम के भी दो चित्र अंदर कहीं प्रिंटेड थे. एक तो नाम सुनकर पहली बार में ही छप गया था जो एक बड़े चौकोर गोदाम का चित्र था जिसमें लकडियों के लट्ठे ही लट्ठे भरे पड़े हों, कहीं बुरादा बिखरा पड़ा हो तो कहीं लकड़ी चिरने की आवाज आरी और कुल्हाड़ी की जुगलबंदी में एक अलग ही सिम्फनी बना रही हो. मुझे लगता है ये चित्र बहुत छुटपन में जौनपुर के `नैयके पुल’ (ये और बात है कि इस नैयके पुल को बने भी चालीस से ज्यादा साल बीत चुके हैं, एक और सद्भावना नामक पुल अस्तित्व में आ चुका है, ये पुल उसी तरह से लोगों की भाषा में नया है जैसे एक दिल्ली में हजारों नई दिल्लियाँ शामिल होने के बाद भी एक नई दिल्ली बचती है.) के पास बड़ी-बड़ी मूंछों वाले रजई के टाल पर जाने की वजह से बना होगा. जाहिर है इसके पूरा होने का कोई सवाल ही नहीं था. जिस प्रकार का गोदाम मैं आंख बंद करके देखता था बाद में वहाँ बसें ही बसें खड़ी दिखाई दी थीं और पता चला था कि ये काठगोदाम का बस स्टेशन है.
दूसरा चित्र बनता था एक रेलवे प्लेटफार्म का जिसमें एक छोटी फ्रॉक पहने लड़की बेंत के बने पंखे, डोलची बेच रही हो. ये चित्र विलियम सी डगलस की कहानी `A Girl With a Basket’ से बना था जो आज कई बार रेलवे प्लेटफार्म पर जाने के बाद और वहाँ ऐसी कोई लड़की न मिलने के बाद भी नहीं मिटता.
उस रात की नींद ने ये अहसान किया कि काठगोदाम के ये चित्र चटाख से टूटे नहीं क्योंकि जिस समय हल्द्वानी- काठगोदाम से होकर मेरी बस हिचखोले खाती गुजर रही थी, मैं गहरी नींद में था. नींद का अहसान नंबर दो. काठगोदाम से नैनीताल की गोल-चक्कर चढ़ाई, जिस पर बाद में मुरादाबाद जाते समय हम जैसे कई साथियों ने बस के शीशे पर दाल-चावल-अण्डों से कलाकृति बना डाली थी, कब आयी और कब गुजर गयी पता ही नहीं चला. सुबह के लगभग 5.30 पर जब चूं-चूं की आवाज और ब्रेक के झटकों के साथ मेरी नींद खुली तो मैं तल्लीताल बस स्टेशन पर था.
(जारी)
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4 Comments
सुशील
पुलिस अधीक्षक के पद पर कर लीजिये। लेखन बाँधता है।
Kafal Tree
शुक्रिया. गलती सुधार ली गयी है.
नरेंद्र
बहुत खूब सर , क्या ज़माना था A T I का । हमारे लिए तो अभी चंद महीने पहले गुजरा है। ग्रेहाउंड में नींद वाली टिप काम आएगी ?
Anonymous
अमित श्रीवास्तव जी की लेखनी वास्तव में प्रभावित करने वाली है क्योंकि पुलिस की नौकरी में यह एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो सिस्टम के अंदर छुपा सच बड़ी मासूमियत अपने शब्दों में उजागर करते हैं आशा है काफल ट्री भविष्य में इनके नए लेखों तक हमको पहुंचाएगा