त्रेतायुग में वनवास, द्वापरयुग में अज्ञातवास और अब कलयुग में एकांतवास

वनवास, अज्ञातवास और एकांतवास इन तीनों में बहुत समानता है. एक प्रकार से तीनों किसी को हराने के लिए अपने युग की ऊर्जा संचय अवधि हैं. तीनों को पूरा करने के बाद इंसान ‘विजेता’ कहलाता है. तीनों में चौदह का विशेष महत्व है. ये अलग बात है कि पहले दो युगों में चौदह को मापने का आधार ‘वर्ष’ था और कलयुग में ‘दिन’ हो गया. स्वभाविक है! पहले के युगों में तो लोग एक बाण प्राप्त करने के लिए सैकड़ों-हज़ारों साल यूँ ही तपस्या में गुज़ार देते थे. अब गाड़ी-बंगला-नौकरी, आदि-आदि सर्वस्व पाने के लिए भी ईश्वर के दरबार में जूते उतारकर हाज़िरी लगाने तक की फ़ुर्सत नहीं है. चलती गाड़ी में बैठे-बैठे मंदिर-मस्जिद के सामने सर झुका लें तो बहुत समझिए. अब इन तीनों को विस्तार-कम-संक्षेप में समझते हैं.
(Ashutosh Mishra)

वनवास

इसकी उत्पत्ति त्रेतायुग में हुई. इसकी अवधि 14 वर्ष की होती थी. अभिलेखों के अनुसार इसे सबसे पहले प्रभु श्रीराम ने भुगता. इसी अवधि में त्रिलोक विजेता रावण और उसके ख़ानदान वालों का ख़ात्मा हुआ और इसे पूरा करने के बाद ही प्रभु श्रीराम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहलाये.

वनवास और अज्ञातवास

द्वापरयुग में वनवास के साथ अज्ञातवास की भी उत्पत्ति हुई. अज्ञातवास एक प्रकार से कठोर सजा मानी गयी. इसलिए द्वापर में त्रेता युग के वनवास की अवधि 14 वर्ष से घटाकर 12 वर्ष कर दिया गया तथा अज्ञातवास के समय को गहन विचार-विमर्श के बाद उसकी कठोरता एवं पकड़े जाने पर पुनः वनवास की सम्भावना को दृष्टिगत रखते हुए 02 वर्ष की जगह 01 वर्ष कर दिया गया. वनवास+अज्ञातवास को भुगतने वाले पहले पाँच वीर पांडव थे. इसे पूरा करने के बाद चौदहवें साल में प्रभु श्रीकृष्ण गीता का ज्ञान दिये और कौरव एंड कम्पनी को मार-काटकर पांडव चक्रवर्ती बने. राज-पाट अलग से मिला.

एकांतवास

कलयुग में कोरोना नामक बीमारी से बचने के लिए 14 दिन अकेले में रहने को एकांतवास कहते है. वैसे बोलचाल की भाषा में इसे ‘होम आइसलेशन्’ कहा जाता है. कोरोना की उत्पत्ति से पहले गम्भीर बीमारी या बड़े आपरेशन से उलझने के बाद बड़े लोग एकांतवास में रहते थे. जन सामान्य के बीच इसे मान्यता नहीं मिली थी. कोरोना काल में डब्लूएचओ ने अथक प्रयास से इसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का काम किया.इस अवधि को सफलतापूर्वक पूरा करने पर न केवल कोरोना जैसी महामारी से मुक्ति मिलती है, बल्कि ‘कोरोना योद्धा’ की उपाधि भी दी जाती है.
(Ashutosh Mishra)

यह उपाधि कोई भी प्रदान कर देता है, क्योंकि इसके साथ कोई पेंशन या परितोष नहीं जुड़ा होता है. वित्त विभाग की पूर्वानुमति आवश्यक न होने के बाद भी यदि कोई इस उपाधि को न दें, तो लोग स्वयं-भू घोषित कोरोना योद्धा बन सकते हैं. इसमें किसी प्रकार की बुराई नहीं है. जरा सोचिए ! ईश्वर किसी को ‘भक्त’ का ख़िताब थोड़े-ही देते हैं.

ख़ैर ! उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि होम आइसलेशन् के महत्व को आप समझ गये होंगे. अपना छोटा-सा राज-पाट भोगना है तो कोरोना को हराना होगा और किसी को हराना है तो ‘वास’ तो करना ही पड़ेगा. रावण जैसे प्रतापी को हराने के लिए जब भगवान कोई शार्टकट नहीं अपनाये, तो हम बिना इसे पूरा किये कोरोना को कैसे हरा पाएँगे? इसे गम्भीरता से लें और प्रभु श्रीराम तथा पांडवों की तरह विजेता बनें.

घर पर रहें, सुरक्षित रहें.
(Ashutosh Mishra)

आशुतोष मिश्रा

14 नवम्बर 1979 को बलिया जिले के ग्राम गरया में जन्मे आशुतोष उच्चतर न्यायिल सेवा में अधिकारी हैं. ‘राजनैत’ उनका पहला उपन्यास है.

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