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कविता का सच अलग होता है और जीवन का सच अलग होता है

कहते हैं एक ज़माने में भारत में घी दूध की नदियां बहती थीं. इस काव्यात्मक ट्रुथ में यह कहने का प्रयास किया गया है कि जब तक भारत से लूट खसोट नहीं शुरू हुई थी भारत में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी. लेकिन मेरे जाने में दूध और घी के मामले में यह बात मेरे गांव पर कत्तई लागू नहीं होती थी. दूध की स्थिति यह थी कि जान हथेली पर धरकर कोई दर्जन भर गायों के थन निचोड़ने के बाद एकाध किलो दूध मिलता था, अब दूध ही इतनी मुश्किल से और इतना कम मिलता था तो ऐसी स्थिति में घी की सम्भावना अपने आप खत्म हो जाती थी.
(Shankhdhar Dubey Article)

अगर आप गाँव से बहुत दूर निकल आये हों तो आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे देश में प्रोद्योगिकी के पिछड़ेपन के कारण सिर्फ दूध से ही घी बनाने की सहूलियत थी आज की तरह सूअर की चर्बी, गोबर, केमिकल से घी नहीं बना पाते थे. दूध के मामले में सिर्फ गायें ही दोषी न थीं, भैसें भी थीं. वे दूध न देने के लिए कटिबद्ध थीं बल्कि कई बार ऐसा लगता था गायों, भैंसों और भेड़ों बकरियों ने दूध न देने के की किसी राष्ट्रीय ट्रीटी पर हस्ताक्षर कर दिया हो और वे पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा भाव से इस संधि का पालन कर रह थीं.

आज की क्रॉस ब्रीड्स की गायें भैंसे देखकर कोई यकीन नहीं करेगा हमारे समय में ऐसी छोटी छोटी लतही और मरकही होती देशी गायें होती थी कि उन्हें लात मारता देख कर कोई भी ब्लैक बेल्ट चैंपियन हदस खा सकता है. छोटे पान का एक उदाहरण यह था कि बेंचू काका के यहाँ एक गाय थी दवा के टेबलेट जैसी गोल जिसका कुल वजन 40/45 किलो रहा होगा जो एक बछड़ा ब्याई थी और जो ‘झारि कय दुहे पय सुन्नर एक पौवा दूध देती है’ (मतलब अगर बच्चे के लिए कुछ मत छोडो तो 250 ग्राम दूध देती है) ऐसा यह बात बेचू काका ने खुद उसका गुणगान करते हुए उसके ग्राहक को बताया था.

अपवादों को छोड़ दिया जाय तो कुछ बातें सब गायों पर लागू होती थीं एक तो वे उबड़ खाबड़ होती थीं, मरखैनी होती थी दूध कम देती थीं सींग लगभग सबकी टूटी फूटी होती थी कुछ स्थाई विकलांगता की शिकार थीं जो उनकी आपस में लड़ाकू प्रवृत्ति को दर्शाता है. ऐसी गायों से दूध निकालना मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालना या शेरनी को दुहने होता था.गायें आदमियों को दूध का दुश्मन मानती थीं वे दूध अपने बछड़े के छुपा लेती थीं, दोहनकर्ता के आँख में गोबर-गीली पूँछ मार देती थीं. एन दुह चुकने के बाद लात मर कर दूध गिरा देती थीं. दुहने वाले के ऊपर ही हग या मूत देती थीं. कई बार तो वे बरास्ते थन इतनी देर तक पेशाब करती थीं कि दुहने वाले का धैर्य जवाब दे जाय.

अब डैडी के यहाँ एक गाय थी जिससे सिर्फ काकी मतलब डैडी की माई ही दूध निकाल पाती थीं. गाय की लात खा-खा कर काकी का मुंह स्थाई रूप से टेढ़ा हो गया था. एक समीकरण था जिसके तहत गाय काकी को और काकी गाय को बेशर्म मानती थी. जो भी हो काकी के मुंह से यह निकलते ही चलो गाय दुहना है उनके गण गाय को घेर लेते थे फिर दुलत्ती की बरसात के बीच और काकी की “झुई” की गगन फाडू आवाज, जिसे सुनकर निमिष भर के लिए ग्रह नक्षत्र अपनी परिक्रमा छोड़ कर ठहर जाते थे, लोटते पोतते काकी दूध निकालती थीं.

और भैंसे, ऐसा लगता था वे जो भी खाना खुराक खाती थीं उसे अपनी सींघ बढ़ाने पर लगाती थीं और ढाड पर पहुँचते ही मुंह उठाये किसी और भैंस को चुनौती देते हुए या स्वीकार करते हुए रोमन ग्लैडिएटरों की तरह लड़ती रहती थीं और इससे जो समय बचता था उसे चरने में लगाती थीं. वे दूध देने की में उतनी आना कानी नहीं करती थीं पर उनमें भी एकाध ऐसी होती थीं जो अपने पालक को छट्ठी का दूध याद दिला देती थी.

हमारे बचपने में एक भैस थी जो उछल-कूद मचाकर हर दूसरे तीसरे दिन गोबर में दूध तब गिराती थी जब आप निश्चिन्त होकर उसे दुह चुके हों. कुसंगति के सिद्धांत के आधार पर ही गोबर में दूध गिरने से गोबर का कुछ नहीं बिगड़ता था, दूध का ही वैल्यू ख़त्म हो जाता था. दूध मिलने से गोबर का पोषण वैल्यू भले बढ़ गया हो लेकिन हमने कभी चखने का जोखिम नहीं उठाया. एक और भैस थी जो इकहत्थी थी जिसे सिर्फ काका ही दुह सकते थे और दूसरे दुहने वाले के ऊपर गिर पड़ने तक में संकोच नहीं करती थी. कहना मुश्किल था कि काका ने भैंस पाली है या भैस ने एक काका पाल रखा है.
(Shankhdhar Dubey Article)

कविता के दूध घी की नदी वाले फरेब से परे देखा जाय तो अषाढ़ सावन में भैसें अपने गरीब पालकों की जिंदगी नरक बना देती थीं. शायद उन्हीं दिनों के लिए एक लोक प्रिय कहावत थी कि “जवन ज्यू होइहैं दूध घ्यू खाए तवन ज्यू जैहैं गां… घेर्राए” यह कहावत सही भी थी. बरसात में मक्खी मच्छर कीचड़, दलदल, हरियरी घास खाकर तिलतिला कर पोंकती भैसें खूंटे के इर्द-गिर्द घूम-घूम कर कीचड़ को और समृद्ध बनाने पर अमादा भैसे, गोबर और दलदल में लिपटी पूँछ से आपका स्वगत स्वागत करने को आतुर भैसें, हौदी उलट कर अपनी मर्दानगी दिखाती भैंसे, उस दलदल के बीच से इन्वेस्टिगेट करके गोबर निकालने के लिए मोसाद जैसी कटिंग एज टेक्नोलॉजी की ज़रूरत पड़ती थी.

दिन भर की झांय झांय के बाद निहत्थे सिर्फ नाख़ून के सहारे मक्खी मच्छर, घमोरियों और पानी से सड़ गयीं अँगुलियों के पोरों को खुजाते हुए नींद के पहले झकोरे में ही इस पुकार पर ‘देखा हो त्वाहर भैंस तुरान बा” जगाती भैंसे. जब आप भैसों के पास पहुचंते हैं तो पता चलता दो भैसे असाढ़ की दलदली जमीन से खूंटा उखाड़ कर दो दिशाओं में लापता हैं. किसी के मक्के या धान के खेत बिरदौं रही होंगी. सुबह लाठी चल जाएगी इस डर से आप इधर उधर भागते हैं न पैरों में चप्पल है, न हाथ में टोर्च. ऊपर से भैस का खूंटा असाढ़ की अराजक टट्टी में लिथड़ा हुआ है. शरीर गनगना जाता है. इस बीच एक भैंस पानी में चली जाती है.

फिर यह कहावत समझ में आती है ‘गयी भैंस पानी में’ आधी रात को भैस स्वीमिंग का आनंद ले रही है, अजगर की तरह फों फों की आवाज निकाल रही है. आप ढेला ढूंढ रहे हैं, जो असाढ़ में मुश्किल से मिलते हैं. आप पानी में लाठी पटक रहे हैं. पड़वे की आवाज़ निकाल रहे हैं. लेकिन भैस प्रभावित नहीं हो रही है. पेड़ के शिखर पर इक्का दुक्का जुगुनू अब भी चमक रहे हैं.सांप ने कहीं मेढक दबोच रखा है. जब आप भैंस लेकर घर पहुचते हैं तो पता चलता है कोई खूंटा तो खाली है.किसी थूनी थाम में बांध दूँ यह ख्याल आते हैं डर होता है कहीं छप्पर ही न गिरा दे.

इसलिए कहते हैं कि कविता का सच अलग होता है वह एक तरह का खेल कूद और मनोरंजन है और जीवन का सच अलग होता है. भैया जब जीवन के सच का साबका पड़ता है तो अच्छे अच्छों की कल्ला जाती है.
(Shankhdhar Dubey Article)

शंखधर दूबे

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मूलतः बस्ती के रहने वाले शंखधर दूबे, वर्तमान में राज्य सभा सचिवालय में कार्यरत हैं. महीन व्यंग्य, सरल हास्य और लोक रस से सिंचित उनके लेखन में रेखाचित्र, कहानी, संस्मरणात्मक किस्सों के साथ-साथ शीघ्र प्रकाश्य चुटीली शैली का उपन्यास भी है. शंखधर फेसबुक पर अत्यंत लोकप्रिय लेखकों में से हैं.

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